पासवान फैक्टर के सामने बिहार में झुकना पड़ा अमित शाह को
बहरहाल, 2014 में एनडीए का दामन थामने का सुझाव चिराग पासवान का ही था. जिसका जिक्र एक बार फिर से सीट शेयरिंग की प्रेस कांफ्रेंस में राम विलास पासवान ने किया था. अब देखना होगा कि 2019 में एनडीए के साथ बने रहने का फ़ैसला राम विलास पासवान और चिराग पासवान के लिए कितना मुफ़ीद बैठता है.
बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो गई है. बिहार की कुल चालीस सीटों में से 17-17 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड चुनाव लड़ने जा रही है जबकि छह लोकसभा सीटों पर राम विलास पासवान की पार्टी चुनाव मैदान में होगी.
इसकी घोषणा भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने जनता दल (यूनाइटेड) के नीतीश कुमार और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के राम विलास पासवान की मौजूदगी में की. इतना ही नहीं अमित शाह ने अपनी घोषणा में ये भी कहा है कि आने वाले दिनों में राज्यसभा चुनाव के दौरान राम विलास पासवान राज्य सभा में भेजे जाएंगे.
दरअसल यही वह पहलू था जिसपर राम विलास पासवान की पार्टी अड़ी हुई थी. इस पहलू पर बीजेपी की ओर से दिख रही देरी के चलते ही राम विलास पासवान के बेटे और पार्टी के संसदीय दल के नेता चिराग पासवान ने राजनीतिक सरगर्मी का दौर बढ़ा दिया था.
चिराग ने 18 दिसंबर को ट्वीट कर बताया कि अगर 31 दिसंबर तक बीजेपी सहयोगी दलों के साथ सीट शेयरिंग के मसले को नहीं सुलझाती है तो नुकसान संभव है. इसके साथ ही उन्होंने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत हासिल करने वाले राहुल गांधी की तारीफ़ करते हुए कहा कि उन्होंने सही मुद्दे चुने थे, इसलिए जीते. इतना ही नहीं चिराग पासवान ने दो साल पहले हुए नोटबंदी से अब तक क्या हासिल हुआ है, इसके फायदे भी प्रधानमंत्री से पत्र के माध्यम से पूछ लिया था.
इन बातों से ये आशंका उत्पन्न होने लगी थी कि कहीं ऐन मौके पर राम विलास पासवान अपना पाला ना बदल लें. पासवान की पहचान भारतीय राजनीति में मौसम वैज्ञानिक की रही है, उनका अब तक का ट्रैक रिकॉर्ड ये बताता है कि वे अमूमन उस साइड पहुंच ही जाते हैं, जिसकी स्थिति मज़बूत होने लगती है.
पासवान को राज्यसभा का ऑफ़र
दूसरी तरफ बिहार में अपने सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा के जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी दूसरी चूक नहीं करना चाहती थी, लिहाजा चिराग पासवान के जगाने के बाद भारतीय जनता पार्टी भी हरकत में दिखी. राम विलास पासवान और चिराग पासवान की मुलाकातें भारतीय जनता पार्ठी के महासचिव भूपेंद्र यादव और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से हुई. अमित शाह से हुई मुलाकात के बाद जब राम विलास पासवान और चिराग पासवान मीडिया के सामने पहुंचे थे तब तक कुछ तय नहीं हो पाया था. इसके बाद अरुण जेटली से भी मुलाकातें हुई.
यही वजह है कि रविवार की दोपहर जब अमित शाह, नीतीश कुमार और राम विलास पासवान एकजुट होकर प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे तब राम विलास पासवान ने कहा, "कुछ ऐसा था नहीं, कोई मामला था नहीं. तीन चार दिन तक मामला चला लेकिन कुछ था नहीं."
ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि आख़िर वो बात थी क्या जिसके चलते तीन चार दिनों तक उहापोह की स्थिति बनी हुई थी?
दरअसल बीते अक्टूबर महीने में अमित शाह ने बिहार के सहयोगी दलों के साथ सीट शेयरिंग पर एक बैठक की थी, जिसमें इस बात पर सहमति बनी थी कि बीजेपी और जेडीयू एकसमान सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. उस बैठक तक उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी भी गठबंधन का हिस्सा थी.
लिहाजा मोटे तौर पर इस बात का विकल्प उभरा था कि बीजेपी और जेडीयू 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, राम विलास पासवान की पार्टी चार सीटों पर और बाक़ी की दो सीटों पर उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी. इस बैठक में अमित शाह ने राम विलास पासवान के लिए ये भी कहा था कि आपको राज्य सभा में भेजेंगे. ये चार सीटों के साथ एक राज्य सभा सीट का ऑफ़र था.
हालांकि बाद में जब उपेंद्र कुशवाहा सीट बढ़ाने की मांग के साथ गठबंधन से अलग हुए तो बीजेपी के लिए ये बेहद आसान हो गया था कि राम विलास पासवान को छह सीटें दे दी जाएं. लेकिन पासवान अमित शाह की ओर से राज्य सभा की सीट की बात को अपने सम्मान से जोड़ चुके थे.
चिराग पासवान के गठबंधन के भविष्य वाले ट्वीट रहे हों या राहुल गांधी की तारीफ़ या फिर नोटबंदी के दो साल पर प्रधानमंत्री से मांगे गए हिसाब की बात रही हो, ये सब राज्य सभा की सीट पर दावेदारी जताने के लिए दबाव की राजनीति का हिस्सा था.
इस दबाव के बीच रामविलास पासवान की पार्टी का संपर्क यूपीए गठबंधन दलों की ओर से भी आने लगा था. उपेंद्र कुशवाहा ने तो बकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके कहा कि राम विलास पासवान जी को भी एनडीए गठबंधन से बाहर निकल आना चाहिए.
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पासवान की अहमियत
इस बारे में राष्ट्रीय जनता दल के राज्य सभा सांसद मनोज झा बताते हैं, "उनकी पार्टी से भी संकेत मिल रहे थे, हमलोगों ने ये भी कहा था कि अगर पासवान जी एनडीए से बाहर निकलने का फ़ैसला लेते हैं तो उनको साथ लेने पर हम लोग विचार कर सकते हैं."
दरअसल, बिहार की राजनीति में यही राम विलास पासवान की अहमियत है. वे एक ही वक्त में दो विपरीत छोरों पर खड़े लोगों के बीच सहज स्वीकार्य हो सकते हैं. करीब पचास साल के राजनीतिक जीवन में उन्होंने ऐसा बखूबी कर दिखाया है.
वीपी सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी तक, राम विलास पासवान छह छह प्रधानमंत्रियों के सहयोगी मंत्री की भूमिका में रहे हैं. 1998 में वे एचडी देवगौड़ा की सरकार में भी मंत्री थे और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी शामिल रहे. एनडीए सरकार में पांच साल तक उपभोकता मामलों के मंत्री रहने से पहले वे यूपीए सरकार में 2004 से 2009 तक रासायनिक उर्वरक मंत्री रहे थे.
हालांकि इस बीच 2009 से 2014 का बुरा दौर भी उन्होंने देखा था जब वे ना तो अपनी सीट बचा पाए और ना ही उनकी पार्टी को कोई सीट मिल पाई थी. बावजूद इसके लालू प्रसाद यादव की मदद से राम विलास पासवान राज्य सभा में पहुंचने में कामयाब हो गए थे.
2014 में उन्होंने एनडीए का दामन थाम लिया है, हालांकि नरेंद्र मोदी के गुजरात दंगों में कथि भूमिका का हवाला देते हुए ही पासवान एनडीए से 2002 में अलग हुए थे.
राम विलास पासवान की इस ख़ूबी की सबसे बड़ी वजह बिहार में उनकी जाति पासवान का वोट बैंक है. बिहार में पासवान मतदाताओं की संख्या करीब छह फ़ीसदी है.
बिहार के हाजीपुर, समस्तीपुर, उजियारपुर, बेगूसराय, दरभंगा, सीतामढ़ी, मधेपूरा और मधुबनी में पासवान समुदाय बड़ी संख्या है. राज्य की 40 सीटों में कम से कम 15 सीटें ऐसी है जहां इस समुदाय के लोगों की संख्या 50 हज़ार से ज्यादा और दो लाख के बीच है.
यही वजह है कि 2009 में जब राम विलास पासवान की पार्टी कोई सीट नहीं जीत पाई थी, तब उसे राज्य भर की जिन 12 सीटों पर उन्होंने चुनाव लड़ा था, वहां 6.5 फ़ीसदी वोट हासिल किए थे. 2014 के आम चुनाव में जब उनके छह उम्मीदवार सांसद बनने में कामयाब हुए थे तब भी पार्टी को 6.40 फ़ीसदी वोट मिले थे.
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राजनीतिक चतुराई
करीब छह फीसदी का ये वोट एक तरह से कंप्लीट ट्रांसफ़रबल माना जाता रहा है, यही वजह है कि राष्ट्रीय राजनीति में पासवान का जादू हमेशा कायम रहा है.
यही वजह है कि हर कोई राम विलास पासवान को अपने साथ जोड़े हुए रखना चाहता है. बीजेपी की राम विलास पासवान की पार्टी के प्रति नरमी को आप इसी रूप में देख सकते हैं. हालांकि अभी ये फ़ैसला नहीं हुआ कि कौन सी पार्टी किस जगह से उम्मीदवार खड़े करेगी. मनोज झा कहते हैं, "बिहार में एनडीए की सीट शेयरिंग का मसला पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है क्योंकि कौन कहां से लड़ेगा, ये अभी तय नहीं हुआ है. 15 जनवरी के बाद कुछ और भी देखने को मिल सकता है."
हालांकि नीतीश कुमार, राम विलास पासवान और अमित शाह ने सीटों के बंटवारे के मुद्दे को आसानी से सुलझा लेने की बात दोहरायी है. इसके अलावा अमित शाह ये संदेश देने में भी कामयाब रहे हैं कि एनडीए में कोई भगदड़ की स्थिति नहीं है, इसका असर गठबंधन के दूसरे सहयोगियों, जिनकी संख्या हाल के दिनों में कम हो रही है, उन्हें जोड़े रखने में ज़रूर होगा.
वहीं दूसरी ओर, राम विलास पासवान ने इस पूरे मामले में अपने बेटे को राजनीतिक तौर पर स्थापित करते नज़र आए हैं. बीते पांच साल से जमुई के सांसद के तौर पर चिराग पासवान ने जितनी सुर्खियां नहीं बटोरी होंगी, उससे ज़्यादा सुर्खियां सीट शेयरिंग के मुद्दे को उठाकर उन्होंने हासिल कर ली है.
72 साल के राम विलास पासवान अपनी पार्टी के तमाम फैसलों को लेने के लिए चिराग को अधिकृत कर चुके हैं. ऐसे में चिराग पासवान के सामने अब पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह अपनी स्थिति को मज़बूत करने की चुनौती तो ही है.
उनके पिता अपनी राजनीतिक चतुराई के लिए जाने जाते रहे हैं, अब ये चुनौती चिराग के सामने है. इसी चतुराई के तहत पासवान का राज्यसभा सीट के लिए अड़ना भी शामिल रहा है. कुछ विश्लेषकों का अनुमान है कि अगर 2019 के नतीजे उम्मीद के मुताबिक नहीं हुए, ऐसी सूरत के लिए पासवान ने अपना ठिकाना पहले ही तलाश लिया है.
बहरहाल, 2014 में एनडीए का दामन थामने का सुझाव चिराग पासवान का ही था. जिसका जिक्र एक बार फिर से सीट शेयरिंग की प्रेस कांफ्रेंस में राम विलास पासवान ने किया था. अब देखना होगा कि 2019 में एनडीए के साथ बने रहने का फ़ैसला राम विलास पासवान और चिराग पासवान के लिए कितना मुफ़ीद बैठता है.
चूंकि ये फ़ैसला अभी चिराग को आगे बढ़ाकर किया जा रहा है, लिहाजा 2019 में अगर एनडीए की सरकार बनती है तो चिराग का दावा मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए मज़बूत होगा, वहीं दूसरी ओर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ज़रूरत पड़ने पर राम विलास पासवान के सामने दूसरे विकल्प पर विचार करने का रास्ता खुला रहेगा.
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