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40 सालों तक एक मुस्लिम परिवार के घर रहीं पंचूबाई जब अपने घर गईं

'एक दिन अब्बा ट्रक चलाते हुए दमोह बस स्टैंड के सामने से गुजर रहे थे. तभी उनकी नजर ज़मीन पर बेसुध पड़ी एक महिला पर पड़ी.' पढ़िए पूरी कहानी

By अनूप दत्ता
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40 सालों तक एक मुस्लिम परिवार के घर रहीं पंचूबाई जब अपने घर गईं

पुरातत्व की दृष्टि से समृद्ध मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल में बसे दमोह ज़िले ने धार्मिक सद्भभाव की एक अनूठी मिसाल पेश की है.

यहाँ एक मुसलमान परिवार ने लगभग 40 वर्षो तक, एक अनजान, मानसिक रूप से कमज़ोर हिन्दू महिला को अपने साथ रखा और अब उन्हें उनके परिवार से मिला दिया.

17 जून दोपहर क़रीब ढाई बजे कोटातला गांव के एक तीन कमरे के घर के सामने भीड़ लगी हुई थी.

गाँव के कई लोग घर के सामने लगे जामुन के पेड़ के नीचे एक कार के आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे.

लाल रंग की कार को हाई-वे से लगभग एक किलोमीटर नीचे स्थित इस गांव में, घर ढूंढ़ने में देर नहीं लगी. गाँव में घुसते ही लोगों ने कार को घर के सामने पंहुचा दिया.

ये घर मरहूम नूर ख़ान का है. नूर ख़ान पहले पत्थर ढोने वाला ट्रक चलाते थे और गाँव में दो कमरों के घर में किराए पर रहते थे. बाद में उन्होंने ये नया घर बनाया जहां अब उनके बेटे इसरार अपनी माँ और बाक़ी परिवार के साथ रहते हैं.

उधर कार से उतरने वाली हर सवारी पर कोटातला गांव की निगाहें गढ़ी हुई थीं.

कार से वर्धमान नगर, नागपुर के पृथ्वी भैयालाल शिंगणे, उनकी पत्नी और पारिवारिक मित्र रवि उतरकर घर के भीतर जा पहुंचे.

अंदर कमरे में लोगो की भीड़ जमा थी, जो पिछले कई घंटो से बेसब्री से पृथ्वी और उनके परिवार के सदस्यों के आने का इंतज़ार कर रहे थे.

इसी कमरे में क़रीब नब्बे वर्षीया महिला भी बैठी थीं. न उन्हें अपना जन्मदिन याद है न ही परिवार.

इस गाँव में अच्छन मौसी के नाम जाने जाने वाली इस बुज़ुर्ग महिला के चार दशकों के लंबे इंतज़ार के बाद अपनों से मिलने की आस जगी थी.

ये कहानी है चालीस साल पहले गुमशुदा हुईं नागपुर की पंचूबाई की जिन्हें दमोह अच्छन मौसी कहता है.

नूर खां जो पंचू बाई को ट्रक में बिठाकर अपने घर लेकर आए थे

फ्लैश बैक, जनवरी 1979

आगे की कहानी ट्रक ड्राइवर नूर ख़ान के बेटे इसरार की ज़ुबानी.

"बात मेरे जन्म के कुछ दिन बाद की है. एक दिन अब्बा ट्रक चलाते हुए दमोह बस स्टैंड के सामने से गुजर रहे थे. तभी उनकी नजर ज़मीन पर बेसुध पड़ी एक महिला पर पड़ी."

इसरार ने अपने अब्बा से सुनी कहानी दोहरानी शुरू की,

"पास जाने पर पता चला कि महिला पर मधुमक्खियों ने हमला किया था. ट्रक के बोल्डरों के ऊपर पीछे बैठे मज़दूरों की मदद से अब्बा उन्हें घर ले आये. तब से अच्छन मौसी हमारे साथ रहने लगी"

इन बीते क़रीब 40 वर्षों में नूर ख़ान ने, पंचूबाई के परिवार को खोजने का प्रयास किया गया. लेकिन बुज़ुर्ग महिला मानसिक बीमारी और सिर्फ़ मराठी बोल पाने की वजह से अपने घर का पता ठीक से बता नहीं पाती थीं.

अपने ड्राइवरी के दौरान जब भी नूर ख़ान महाराष्ट्र जाते तो वो ज़रूर अच्छन मौसी को उनके परिवार से मिलाने की कोशिश करते थे.

इसरार ने बताया, "अब्बा के गुजरने के बाद हमने कई बार फ़ेसबुक, सोशल मीडिया में उनके वीडियो, फ़ोटो अपलोड कर, मौसी के घरवालों तक पहुंचने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली."

दादी पंचूबाई, पृथ्वी भैयालाल शिंगणे, उनकी पत्नी, अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ

परसापुर का ज़िक्र

लेकिन मई के पहले हफ़्ते में उम्मीद की एक किरण जगी.

स्वयंसेवी संस्थान में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी करने वाले इसरार ने बीबीसी को बताया, "पांच मई को सुबह लगभग साढ़े आठ बजे होंगे. रोज़ की तरह हम लोग चाय लेकर अच्छन मौसी के कमरे में पहुंचे. अम्मी मौसी के कमरे में झाड़ू देने लगीं. साथ ही मौसी से बातचीत भी चल रही थी. मैं भी चाय का प्याला थामे वहीं खड़ा था. बातों के बीच में अचानक मौसी ने परसापुर बुदबुदाया. मैंने पहली बार परसापुर का ज़िक्र उनकी ज़ुबान से सुना था. तुरंत मैंने गूगल पर चेक किया और पता चला कि यह एक गाँव का नाम है जो महाराष्ट्र के अमरावती जिले में स्थित है".

फ़ोन की मदद से इसरार परसापुर के कनिष्का ऑनलाइन संस्था के अभिषेक तक जा पहुंचे और अच्छन मौसी के बारे में बताया.

दोनों के बीच तय हुआ कि इसरार अच्छन मौसी का एक वीडियो बनाएगा और वो वीडियो अभिषेक सोशल मीडिया के ज़रिये परसापुर के मोबाइल यूजर्स तक पहुंचने की कोशिश करेगा.

इसरार ने वीडियो ओर तस्वीरें अभिषेक को भेजीं. इसरार ने बताया, "एक दिन छोड़कर, 7 तारीख़ की सुबह मैंने मौसी का एक वीडियो बनाया और अभिषेक को भेज दिया."

परसापुर से अभिषेक ने बीबीसी को बताया, "वीडियो और तस्वीरें आते ही मैंने यहाँ और आसपास बसे कस्बों, समाज और सांस्कृतिक मंडलों के बने मोबाइल यूजर्स ग्रुप में इन्हें पहुंचाया. लगभग दो घंटे के भीतर मुझे और लगभग आधे परसापुर को पता चल गया था कि इस वृद्ध महिला का ननिहाल अंजमनगर में है."

कुछ दिनों के भीतर ही नागपुर से पृथ्वी भैयालाल शिंगणे ने इसरार को फ़ोन किया और कहा कि वीडियो और तस्वीरों वाली महिला उनकी दादी है.

कैसे पहुँची दमोह?

लेकिन चालीस साल पहले पंचूबाई दमोह पहुँची कैसे?

पंचूबाई के पोते पूर्वी वर्धमान नगर नागपुर के रहने वाले पृथ्वी भैयालाल शिंगणे ने बीबीसी को बताया, "मेरी दादी पंचूबाई नागपुर से दमोह कैसे पहुंची यह तो नहीं पता, पर मुझे ये पता है कि मेरे पिताजी भैयालाल शिंगणे ने 1979 में लकड़गंज पुलिस स्टेशन में उनकी गुमशुदगी की शिकायत दर्ज कराई थी."

पृथ्वी ने अपनी माँ से जो दादी के गुम होने की कहानी सुनी थी वो कुछ यूँ थी, "आई कहती है 22 - 30 जनवरी, 1979 के दरमियान पिताजी अपनी माँ का इलाज कराने नागपुर पहुंचे हुए थे. एक दिन उन्होने पाया कि जिस मकान में वो रहकर दादी का इलाज करा रहे हैं वो वहाँ नहीं है. काफ़ी खोजबीन हुई और मेरे पिताजी भैयालाल शिंगणे ने 1979 में लकड़गंज पुलिस स्टेशन में एक गुमशुदगी की रिपोर्ट भी दर्ज कराई. पर हमें दादी नहीं मिली."

उनका कहना है कि मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के बावजूद उनकी दादी एक परिवार के साथ 40 वर्ष रहीं यह किसी अचंभे से कम नहीं है.

इसरार कहते हैं, मानसिक रूप से अस्वस्थ अच्छन मौसी अपने सम्बोधन में अब्बा को भैया और अम्मी को कमला भाभी कहती थी.

वो आगे बताते हैं, "पृथ्वी जी से बात करने पर पता चला कि कमला भाभी उनके भाई की पत्नी का नाम है. मौसी के भाई का नाम चतुर्भुज है जो कि अंजना नगर परसापुर के निवासी हैं."

इसरार अपनी अच्छन मौसी को उनके परिवार से मिलाकर बेहद ख़ुश हैं.

बस एक मलाल है.

अब इसरार को 30 जून को अपना 40 वाँ जन्मदिन, अच्छन मौसी के बिना मनाना पड़ेगा.

BBC Hindi
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English summary
After staying 40 years with a Muslim family when Panchubai went to her home
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