‘एडल्टरी’ पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सभी धर्मों पर होगा लागू, लेकिन विवाह को लेकर धार्मिक कानून रहेंगे इससे अलग
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को असंवैंधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया है। इस धारा के तहत एडल्टरी यानी व्यभिचार को अपराध माना गया था। हालांकि अदालत ने ये स्पष्ट कर दिया कि व्यभिचार तलाक के लिए आधार हो सकता है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि अगर कोई व्यक्ति अपने साथी (पति या पत्नी) के व्यभिचार के कारण आत्महत्या करता है और इसके पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध होते हैं तो व्यभिचार करने वाले को आत्महत्या के लिए उकसाने का जिम्मेदार माना जा सकता है। लेकिन साफ शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि व्यभिचार अब अपराध नहीं है। अब वैवाहिक पक्ष की बात करते हैं। देश में हर एक धर्म का अपना वैवाहिक कानून है।
धारा 497 को खत्म करने का फैसला भारत में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और अन्य सभी धर्मों पर लागू होगा। हालांकि हर धर्म के विवाह संबंधित वैवाहिक कानून अलग बने रहेंगे। वरिष्ठ वकील नवकेश बत्रा कहते हैं कि ये अलग-अलग मुद्दे हैं। एक में मामला आपराधिक कानून के क्षेत्र का है जिस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि व्यभिचार अपराध नहीं है। दूसरा वैवाहिक कानून के दायरे का मामला है जो उसके हिसाब से तय होगा।
हिंदू कानून
हिंदू
विवाह
अधिनियम
की
धारा
13
(1)
के
तहत
व्यभिचार
को
इस
प्रकार
से
परिभाषित
किया
गया
है,
"इस
अधिनियम
के
लागू
होने
से
पहले
या
बाद
में
जो
विवाह
विधिपूर्वक
हआ
है,
वो
पति
या
पत्नी
में
से
किसी
एक
के
द्वारा
दायर
याचिका
पर
तलाक
की
डिक्री
के
जरिए
इस
आधार
पर
खत्म
किया
जा
सकता
है
कि
अगर
विवाह
के
संपन्न
होने
के
बाद
दोनों
में
से
किसी
ने
अपनी
मर्जी
से
अपने
पति
या
पत्नी
के
अलावा
किसी
दूसरे
व्यक्ति
के
साथ
यौन
संबंध
बनाए
हैं"।
इसमें
कहा
गया
है
कि
व्यभिचार
साबित
करने
के
लिए
दो
तत्वों
का
होना
आवश्यक
होगा-
व्यभिचार
करने
का
इरादा
और
इस
तरह
के
इरादे
को
अंजाम
देने
का
अवसर।
इसके
अलावा
ऐसे
मामलों
में
‘बर्डन
प्रूफ
ऑफ'
यानी
अपराध
को
साबित
करने
की
जिम्मेदारी
याचिकाकर्ता
पर
होगी।
उसे
ये
साबित
करना
होगा
कि
प्रतिवादी
दोषी
है।
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ओवैसी
बोले
जब
विवाहेत्तर
संबंध
अपराध
नहीं
तो
तीन
तलाक
क्यों?
मुस्लिम कानून
मुस्लिम विवाह अधिनियम में व्यभिचार के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है। हालांकि मुस्लिम विवाह अधिनियम की धारा 2 (viii) का कहना है कि यदि कोई व्यक्ति किसी बुरी प्रतिष्ठा वाली महिला से संबंध रखता है या फिर इस तरह का जीवन जीता है तो ये उसके द्वारा अपनी पत्नी के खिलाफ क्रूरता करना होगा। कलीम उज़ जफर मामले में अदालत ने कहा था कि क्रूरता शब्द की व्यापक रूप से व्याख्या की जा सकता है और इसमें मानसिक और शारीरिक क्रूरता शामिल हो सकती है। इस्लामी कानूनों के तहत जब कोई व्यक्ति किसी महिला पर बिना सबूतों के व्यभिचार का आरोप का लगाता है तो पत्नी तलाक के लिए दावा लगा सकती है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा था कि केवल पत्नियां जो व्यभिचार की दोषी नहीं हैं वो इस प्रवाधान का इस्तेमाल कर सकती हैं न कि वो पत्नियां जो वास्तव में दोषी हैं। एक अन्य बात कहते हुए इसी हाईकोर्ट ने कहा था कि जहां एक आदमी ने खुद व्यभिचार किया हो और फिर उसने अपनी पत्नी पर व्यभिचार का मुकदमा चलाया हो तो ये क्रूरता के आधार पर तलाक लेने का एक पर्याप्त कारण हो सकता है।
ईसाई कानून
1869 का तलाक अधिनियम की धारा 10 (1) (i) में कहा गया है, "भारतीय विवाह (संशोधन) अधिनियम, 2001 के लागू होने से पहले या बाद में पति या पत्नी में से किसी एक के द्वारा जिला अदालत में दायर याचिका पर विवाह को इस आधार पर समाप्त किया जा सकता है कि शादी के बाद प्रतिवादी ने व्यभिचार किया है"। पहले केवल एक ईसाई पुरुष को ही व्यभिचार के आधार पर तलाक के लिए दावा फाइल करने का अधिकार था। एक ईसाई महिला सिर्फ इस आधार पर तलाक के लिए केस डाल सकती थी कि उसके साथ अत्याचार हुआ है या उसका परित्याग किया गया है।
पारसी कानून
पारसी विवाह और तलाक अधिनियम 1 936 के की धारा 32 (डी) के तहत, कोई भी विवाहित व्यक्ति तलाक के लिए केस फाइल कर सकता है अगर उसके पति या पत्नी ने व्यभिचार किया है। इस धारा के तहत दो साल की समय सीमा तय की गई है जब से याचिकाकर्ता को व्यभिचार के बारे में पता चला है। यानी विवाहेत्तर संबंधों के पता लगने के दो साल की भीतर तलाक मांगा जा सकता है। धारा 34 (डी) शादीशुदा व्यक्ति को अधिकार देती है कि वो अपने पति या पत्नी के खिलाफ व्यभिचार, बलात्कार या किसी अन्य अप्राकृतिक अपराध करने के चलते मुकदमा दायर कर सकता है।
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