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लगान के लिए आमिर ख़ान ने ऐसे बसाया गाँव, अंग्रेज़ों को सिखाई हिंदी

लगान दर्शकों के बीच लोकप्रिय तो हुई ही थी उसे ऑस्कर पुरस्कार में भारत की एंट्री के रूप में भी चुना गया था. पिक्चर अभी बाक़ी है में रेहान फ़ज़ल बता रहे हैं लगान फ़िल्म बनने की कहानी.

By BBC News हिन्दी
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लगान फ़िल्म का पोस्टर
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लगान फ़िल्म का पोस्टर

जब आशुतोष गोवारिकर ने 'लगान' बनाने का फ़ैसला किया तो तीन चीज़ें उनके ख़िलाफ़ थीं. सबसे पहले एक निर्देशक के रूप में उनका ट्रैक रिकॉर्ड बहुत ख़राब था. इससे पहले उन्होंने सिर्फ़ दो फ़िल्में बनाईं थीं 'पहला नशा' और 'बाज़ी' और दोनों ही फ़िल्में कुछ ख़ास असर नहीं डाल पाई थीं.

उनकी स्क्रिप्ट हिंदी फ़िल्म बाज़ार के उस समय के अलिखित नियम को तोड़ रही थी कि आप 'पीरियड' फ़िल्म नहीं बनाएंगे और न ही आप ग्रामीण कहानी पर अपना पैसा लगाएंगे. खेल क्लाइमेक्स पर बनने वाली फ़िल्में भी फ़ैशन में नहीं थीं और न ही धोती-बंडी पहनने वाला हीरो.

एक प्रोड्यूसर ने आशुतोष से माँग कर दी कि वो फ़िल्म के क्लाइमेक्स को ऐक्शन पैक्ड बनाते हुए भुवन को कैप्टन रसेल के पेट में स्टंप भोंकते हुए दिखाएं. उस ज़माने में मुंबई फ़िल्म बाज़ार की स्क्रिप्ट में दिलचस्पी ही नहीं थी. उनकी पूरी दुनिया फ़िल्मी सितारों के इर्द-गिर्द घूमती थी.

आमिर ख़ान
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आमिर ख़ान

पहली नज़र में आमिर ख़ान ने लगान की कहानी को रिजेक्ट किया

चंपानेर गाँव की कहानी एक कल्पित कहानी थी जो 1893 के ग्रामीण भारत की कहानी बयान करती थी. गाँव के नाम की प्रेरणा बिहार के चंपारण से ली गई थी जहाँ 1917 में महात्मा गाँधी ने नील मज़दूरों के अधिकारों के लिए आंदोलन शुरू किया था.

जब गोवारिकर ने सबसे पहले ये कहानी आमिर ख़ान को सुनाई थी तो उन्होंने ये कहकर इस कहानी को रिजेक्ट कर दिया था कि 1893 में लगान से बचने के लिए गाँव वालों के क्रिकेट खेलने का विचार पहली नज़र में उनको पच नहीं रहा है. लेकिन इसके बावजूद गोवारिकर ने उस कहानी को कागज़ पर लिखने का फ़ैसला किया था.

दूसरी बार जब वो ये कहानी लेकर आमिर ख़ान के पास गए थे तो आमिर उसको नज़रअंदाज़ नहीं कर पाए थे. लेकिन कोई भी इस फ़िल्म के 25 करोड़ रुपए के बजट पर पैसा लगाने के लिए तैयार नहीं था.

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अशोक अमृतराज, शाहरुख़ ख़ान और कई दूसरे प्रोड्यूसर 'लगान' की स्क्रिप्ट से प्रभावित ज़रूर हुए थे, लेकिन किसी न किसी कारण से इन लोगों ने फ़िल्म से अपना हाथ खींच लिया था.

जब आख़िर में कोई नहीं मिला तो आमिर ख़ान ने ख़ुद इस फ़िल्म को प्रोड्यूस करने का फ़ैसला किया था. लेकिन जब गोवारिकर और आमिर ने 'लगान' की कहानी मशहूर कहानीकार और गीतकार जावेद अख़्तर को सुनाई थी तो वो भी इस कहानी से बहुत अधिक प्रभावित नहीं दिखे थे.

आशुतोष और आमिर ख़ान दोनों को इस बात से बहुत धक्का पहुंचा था कि फ़िल्म की शूटिंग से सिर्फ़ तीन महीने पहले भारतीय फ़िल्मों का सबसे सफल कहानीकार उन्हें बता रहा है कि ये फ़िल्म चल नहीं पाएगी.

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आमिर ख़ान के साथ आशुतोष गोवारिकर
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आमिर ख़ान के साथ आशुतोष गोवारिकर

3000 लोगों ने लगातार छह महीनों तक काम कर 'लगान' को बनाया

फिर भी आमिर ने इस फ़िल्म को बनाने का विचार त्यागा नहीं. मशहूर फ़िल्म समीक्षक शीला रावल लिखती हैं, 'नतीजा ये रहा कि उस समय तक भारत की सबसे मँहगी फ़िल्मों में से एक 'लगान' की नींव रखी गई. क़रीब 3000 लोगों ने छह महीने लगातार काम कर 100 एकड़ की खेतिहर ज़मीन पर चंपानेर गाँव बसा डाला.

गोवारिकर और कला निर्देशक नितिन देसाई ने गुजरात में भुज के पास कुनारिया को इस फ़िल्म की शूटिंग के लिए चुना.

आमिर चाहते थे कि भुवन के रोल के लिए वो बाक़ायदा मूछें रखें क्योंकि आमतौर से भारतीय गाँवों के लोग मूछें रखते हैं, लेकिन आशुतोष इस विचार से क़तई सहमत नहीं थे.

उन्होंने आमिर के सामने तर्क रखा, 'कल्पना कीजिए चंपानेर में सदी का सबसे भयानक सूखा पड़ा है. पानी का नामोनिशान नहीं है और भुवन हर सुबह दाढ़ी बनाने में पानी बर्बाद कर रहा है.'

आशुतोष ने फ़िल्म की शूटिंग में भाग लेने वाले गाँव के लोगों को भी सलाह दी कि वो कुछ दिनों के लिए न तो अपने बाल काटें और न ही अपनी दाढ़ी बनाएं.

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40 से अधिक अभिनेताओं को इंग्लैंड से भारत लाया गया

आशुतोष और आमिर दोनों का मानना था कि अगर फ़िल्म में असलियत का पुट देना है तो अंग्रेज़ कलाकार ब्रिटेन से बुलवाने पड़ेंगे. कहानी की ज़रूरत थी कि 11 ब्रिटिश खिलाड़ी, तीन वरिष्ठ अभिनेता और क़रीब 30 जूनियर कलाकार ब्रिटेन से भारत लाए जाएं. इन सबका लंदन-मुंबई का हवाई किराया और पाउंड में इनकी फ़ीस देने ने फ़िल्म के बजट को आसमान पर पहुंचा दिया था.

आमिर इसके लिए ख़ासतौर से लंदन गए. सत्यजीत भटकल अपनी किताब 'द स्पिरिट ऑफ़ लगान' में लिखते हैं, 'सबसे बड़ा मुद्दा था ब्रिटिश कलाकारों को भारतीय फ़िल्म में काम करने के लिए तैयार करना. ब्रिटिश स्तर से 'लगान' का बजट बहुत कम था और उसे एक तीसरी दुनिया के देश में फ़िल्माया जा रहा था. वहाँ के कास्टिंग डायरेक्टर सवाल पूछ रहे थे, क्या आपके प्रोडक्शन ने पहले कोई फ़िल्म बनाई है ? आमिर का जवाब होता था, 'नहीं, प्रोड्यूसर के तौर पर मेरी ये पहली फ़िल्म है.' फिर वो पूछते थे, आप किस भाषा में फ़िल्म बना रहे हैं? आमिर का जवाब होता था हिंदी में. उनका अगला सवाल होता था- ब्रिटिश अभिनेता किस भाषा में बात करेंगें? जब आमिर कहते थे हिंदी तो वो और नर्वस हो जाते थे.'

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एंटीक दुकानों से क्रिकेट खेलने का सामान ख़रीदा गया

आमिर लंदन में सेंटर फ़ॉर ओरियंटल स्टडीज़ (सोआस) गए जहाँ उनकी दोस्त रशेल ड्वायर भारतीय सिनेमा की कक्षा ले रही थीं. उनकी एक पाकिस्तानी छात्रा समीन ने चुने गए दो मुख्य ब्रिटिश कलाकारों को एक महीने के अंदर हिंदी सिखाने का बीड़ा उठाया. जब रशेल और पॉल भारत जाने के लिए तैयार हुए तब तक उन्होंने अपने द्वारा बोली जाने वाली लाइनों पर महारत हासिल कर ली थी.

ब्रिटेन में आमिर ने पुस्तकालय, म्यूज़ियम और पुरानी चीज़ें बेचने वाली दुकानें खंगाल कर उन सब चीज़ों का इंतज़ाम किया जिससे फ़िल्म को अंग्रेज़ी राज के ज़माने का टच दिया जा सके. यहाँ तक कि क्रिकेट खेलने वाले बल्ले भी 1893 के ज़माने के थे और उन्हें लंदन की एक एंटीक शॉप से ख़रीदा गया था. जब आमिर उस दुकान में घुसे तो उन्होंने एक बास्केट में पुराने ज़माने की गेंदें पड़ी देखीं. इन गेंदों पर उन्हें बनाने वाली कंपनियों का कोई निशान नहीं था, जैसा कि आजकल की गेंदों पर दिखाई देता है.

आमिर ने दुकान के मालिक शॉन आरनोल्ड को सभी पुरानी चीज़ें बल्ले से लेकर विकेट, पैड, ग्लव्स सब कुछ उन्हें बेचने के लिए राज़ी कर लिया.

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निजी ज़िंदगी में भी आमिर ख़ान का क्रिकेट के प्रति एक जुनून था. कई विशेषज्ञों से सलाह के बाद वहाँ एक पिच बिछाई गई. आमिर ने पूरे दृश्य को फ़िल्माने के लिए एक समझौता किया और वो ये था कि उन्होंने पिच की 22 गज़ की लंबाई को कम कर साढ़े 13 गज़ कर दिया.

कुनारिया गाँव की बलुई मिट्टी पर नदी के कीचड़ का लेप किया गया जिन्हें 25 ट्रकों में भरकर वहाँ लाया गया.

आमिर के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी चंपानेर गाँव को बसाना. लगान के कला निर्देशक नितिन देसाई जिन्होंने कई पीरियड फ़िल्मों जैसे 'देवदास' और '1942 अ लव स्टोरी' के सेट बनाए थे, कहते हैं, एक बंजर ज़मीन पर एक गाँव की रचना करना एक स्टूडियों में गाँव का सेट बनाने से कहीं अधिक मुश्किल काम था. आख़िर में चंपानेर गाँव कुनारिया गाँव से भी अधिक असली होने का आभास देता था.

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दो हज़ार धोती कुर्तों का इंतज़ाम किया गया

फ़िल्म की शूटिंग शुरू होने से पहले सभी कलाकार चंपानेर गाँव में बनाए गए नकली घरों में रहे थे ताकि वो वहाँ के माहौल में अपनेआप को ढाल सकें. लेकिन इस बीच एक और समस्या आ खड़ी हुई, हालांकि आमिर और आशुतोष ने फ़िल्म की शूटिंग में भाग लेने वाले लोगों के लिए दो हज़ार धोती कुर्ते का इंतज़ाम किया था, लेकिन वो कम पड़ गए और रोज़ सेट पर कई लोग पैंट और कमीज़ पहन कर आने लगे.

प्रोडक्शन टीम ने जब ये समस्या आमिर को बताई तो तय किया गया कि पैंट पहनने वाले लोगों को धोती कुर्ता पहनने वाले लोगों की कतार के पीछे छिपा दिया जाएगा. जब क्लाइमेक्स का सीन फ़िल्माया गया तो भुवन की टीम के जीतते ही हज़ारों दर्शक मैदान में दौड़ पड़े. लेकिन तभी कैमरे के सामने काली पैंट और बैंगनी कमीज़ पहने एक शख़्स आ गया. नतीजा ये हुआ कि इतनी अच्छी तरह से फ़िल्माए गए शॉट को दोबारा लेना पड़ा.

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हीरोइन के लिए ग्रेसी सिंह को बड़ी अभिनेत्रियों पर तरजीह दी गई

फ़िल्म की हीरोइन के लिए आमिर ख़ान ने नम्रता शिरोडकर, अमीशा पटेल और नंदिता दास का ऑडीशन किया. हर अभिनेत्री के अपने गुण थे, लेकिन आशुतोष के मन में गौरी के रोल के लिए एक ख़ास लड़की की छवि थी. उनका और आमिर दोनों का मानना था कि इस रोल के लिए हीरोइन की स्टार वैल्यू उतनी ज़रूरी नहीं है जितना उसका इस रोल के लिए उपयुक्त होना.

सत्यजीत भटकल लिखते हैं, 'उन्हीं दिनों एक नई अभिनेत्री ग्रेसी सिंह आशुतोष से मिलने आई. उस दिन उसका जन्मदिन था. ग्रेसी ग्लैमरस नहीं थी लेकिन आशुतोष से उनकी आंतरिक सुंदरता छिपी नहीं रह सकी. उन्होंने उन्हें ऑडिशन के लिए बुला लिया. आमिर ने नोट किया कि ऑडिशन के दिन ग्रेसी ज़रूरत से ज़्यादा चुप हैं. उनके चेहरे पर न तो कोई घबराहट थी और ना ही कोई उत्साह. ग्रेसी ने कैमरे के सामने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और उन्हें इस रोल के लिए चुन लिया गया.'

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ग्रेसी सिंह
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ग्रेसी सिंह

अभिनेताओं के सामने क्रिकेट खेलने की मुश्किल

भुवन की टीम के 11 सदस्यों के लिए आमिर ने कलाकारों का बाक़ायदा ऑडिशन लिया. 11 पात्रों के लिए क़रीब 200 अभिनेताओं का ऑडिशन लिया गया. जब आशुतोष ने पहली बार 'लगान' की स्क्रिप्ट लिखी थी तो उन्होंने दो इनिंग्स के मैच की कल्पना की थी.

लेकिन बाद में लोगों की सलाह पर उन्होंने इसे एक इनिंग का मैच बना दिया. मैच के एक से एक बारीक पक्ष को स्क्रिप्ट में जगह दी गई थी.

सत्यजीत भटकल लिखते हैं, 'ये पहले से तय था कि हर खिलाड़ी कितने रन स्कोर करेगा और उसको किस तरह से आउट किया जाएगा. ये भी तय था कि खिलाड़ी का स्ट्रोक ऑफ़ साइड की तरफ़ जाएगा या लेग साइड की तरफ़, इसको फ़ील्ड किया जाएगा या गेंद बाउंड्री के लिए निकल जाएगी. ये सारे विवरण कागज़ पर लिखे हुए थे. इस मैच के कुल 1200 शॉट्स लिए जाने थे. क्रिकेट पक्ष की शूटिंग के लिए 20 दिन निर्धारित किए गए थे. इसका मतलब ये हुआ कि हर दिन 60 शॉट्स का लक्ष्य. इस लक्ष्य को पूरा कर पाना किसी के लिए भी असंभव था.'

एक शॉट में देवा को स्मिथ के लेग साइड की तरफ़ गेंद करनी थी और स्मिथ को स्क्वेयर लेग पर खड़े लाखा की तरफ़ गेंद उछालनी थी और उसे जान-बूझ कर कैच ड्रॉप कर देना था. लेकिन देवा का रोल कर रहे प्रदीप सिंह रावत एक अभिनेता थे, क्रिकेटर नहीं.

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योजना के अनुसार, गेंद करना उनके बस में ही नहीं था. या तो वो गेंद को स्टंप के काफ़ी बाहर फेंक रहे थे या फिर उनकी गेंद ऑफ़ स्टंप की तरफ़ जा रही थी. ये शॉट इतनी बार लिया गया कि आशुतोष को चिंता होने लगी कि वो समय पर शूटिंग पूरी कर पाएंगे भी या नहीं. लंच के बाद अर्जन सिंह को स्क्रिप्ट के अनुसार अपनी छोटी इनिंग में दो चौके लगा कर आउट हो जाना था, लेकिन उन्होंने अपनी असल ज़िंदगी में कभी क्रिकेट खेला ही नहीं था.

जैसे ही स्मिथ ने गेंद फेंकी, कैमरा रोल करने लगा. उनके मिडिल स्टंप पर गेंद आई, लेकिन अर्जन उसे कनेक्ट ही नहीं कर सके. जब सारे प्रयास विफल हो गए तो आशुतोष ने तय किया कि इस शॉट में कोई गेंदबाज़ नहीं रहेगा. कैमरे के पास से उनकी तरफ़ धीमे से गेंद उछाली जाएगी और उन्हें गेंद को छू भर देना होगा. लेकिन गेंद अर्जन के पास से निकल गई. वो इस बार भी अपने बल्ले से उसे छू भर नहीं सके.

आख़िर आशुतोष को फ़्रेम से गेंद को हटाना ही पड़ा. अर्जन से कहा गया कि वो बस ज़ोर से बल्ले को घुमाएं ताकि उनके चेहरे के भाव का शॉट लिया जा सके.

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कान पर गेंद लगने का शॉट लेना बना मुसीबत

लंच के बाद का शॉट था कि यार्डली का एक बाउंसर आमिर के कान में लगता है. ये ज़रूरी था कि गेंद आमिर के कान में ही लगे क्योंकि कान से बहते हुए ख़ून का शॉट पहले ही ले लिया गया था.

टेस्ट स्तर के गेंदबाज़ के लिए भी ठीक कान पर बाउंसर मारकर बैट्समैन को घायल कर पाना बहुत मुश्किल काम था.

यहाँ यार्डली की भूमिका निभा रहे क्रिस इंग्लैंड ने अपनी ज़िदगी में कभी गेंद पकड़ी ही नहीं थी. इसका यही इलाज निकाला गया कि कोई पास से आमिर के कान पर गेंद फेंके जिसे कैमरा न पकड़ सके. आमतौर से ये मुश्किल काम नहीं था, लेकिन इस शॉट में आमिर को गेंद से बचने के लिए डक भी करना था. गेंद कभी आमिर के गाल पर लगती. कभी उनके सिर पर तो कभी उनके सीने पर लेकिन उनके कान हमेशा गेंद से बच जाते.

हालांकि वहाँ इस्तेमाल की जाने वाली गेंद असली गेंद नहीं थी फिर भी गेंद को पास से बहुत तेज़ी से फेंका जा रहा था जिससे आमिर को काफ़ी चोट भी लग रही थी.

शूटिंग के दौरान निर्देशक आशुतोष गोवारिकर की पीठ में स्लिप डिस्क हो गया और वो खड़े होने की स्थिति में ही नहीं रहे. लेकिन आशुतोष ने तब भी हार नहीं मानी और लकड़ी की पलंग पर लेटे-लेटे ही फ़िल्म का निर्देशन किया.

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आमिर ख़ान
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आमिर ख़ान

अंग्रेज़ अभिनेताओं को हिंदी बोलने का अभ्यास कराया गया

गोवारिकर ने ब्रिटिश कलाकारों के प्रति कोई रियायत नहीं बरती थी. 'लगान' के खलनायक कैप्टन रसेल की भूमिका करने वाले पॉल ब्लैकथौर्न कहते हैं, 'शुरुआती तैयारी के लिए तीन महीने तक मुझसे हिंदी और घुड़सवारी सीखने के लिए कहा गया. मैंने बार-बार हिंदी की अपनी लाइनों का अभ्यास किया. वो मेरे लिए इतना मुश्किल था कि एक बार मैंने सोचा कि ये सब छोड़ कर वापस इंग्लैंड चला जाए. चार महीने में कहीं जाकर मैं स्क्रिप्ट के हर शब्द के प्रति अपनी समझ विकसित कर पाया.'

आमिर और गावोरिकर के बीच कई दिनों तक इस बात की बहस चली कि फ़िल्म में किस भाषा का इस्तेमाल किया जाए खड़ी बोली या अवधी.

कॉस्ट्यूम डिज़ायनिंग की ज़िम्मेदारी 'गांधी' फ़िल्म के लिए ऑस्कर जीतने वाली भानु अथैया को दी गई.

भानु ने ब्रिटिश अभिनेत्री राशेल शेली के लिए सैकड़ों हैट डिज़ाइन कीं.

'लगान' के ड्रेस के लिए भी भानु ने उतनी ही रिसर्च की थी जितनी 'गांधी' फ़िल्म के लिए की थी. बाहर का तापमान चाहे जितना अधिक हो, हर कलाकार ने बंडी और धोती पहनी. शूटिंग की पहली शिफ़्ट सुबह 7 बजे शुरू होती थी. देर से उठने वालों के लिए वाहन की सुविधा नहीं उपलब्ध कराई जाती थी और उन्हें अपनेआप शूटिंग स्थल पर पहुंचना होता था.

एक बार ख़ुद आमिर ख़ान को छोड़कर सभी लोग शूटिंग के लिए चले गए थे. कई बार गोवारिकर को कलाकारों की नाराज़गी भी झेलनी पड़ती थी. जब-जब शेली के डॉयलॉग में हिंदी की अतिरिक्त पंक्ति जोड़ी जाती थी, वो नाराज़ हो जाती थीं. लेकिन आख़िर में उन्हें भी निर्देशक से कोई शिकायत नहीं थी.

आमिर ख़ान ने कुनारिया के गाँव वालों से किया अपना वादा निभाया था कि वो फ़िल्म के रिलीज़ से पहले शो उस गाँव में करेंगे.

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आमिर ख़ान फ़िल्म लगान के पोस्टर के साथ
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आमिर ख़ान फ़िल्म लगान के पोस्टर के साथ

'नया दौर' और 'स्केप टू विक्ट्री' से प्रभावित थी 'लगान'

'लगान' ने भारतीय सिनेमा पर वही प्रभाव डाला था जो 'स्टार वॉर' ने हॉलीवुड पर. मशहूर हॉलीवुड निर्देशक जेम्स गुन 'लगान' को अपनी पसंदीदा भारतीय फ़िल्म मानते हैं.

कुछ समीक्षकों के अनुसार 'लगान' फ़िल्म का मूल विचार 50 के दशक में आई फ़िल्म 'नया दौर' से लिया गया था.

लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि इस फ़िल्म का स्रोत बहुत हद तक हॉलीवुड फ़िल्म 'इस्केप टू विक्ट्री' से मिलता था जिसमें मशहूर फ़ुटबॉल खिलाड़ी पेले ने काम किया था.

इस फ़िल्म में मित्र देशों के युद्धबंदी फ़ुटबॉल के एक मैच में नाज़ी सैनिकों को हरा देते हैं.

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वास्तविक जीवन में लगान की तुलना मोहन बागान टीम के नंगे पैर खेलने वाले खिलाड़ियों से की जा सकती है जिन्होंने वर्ष 1911 में आईएफ़ए शील्ड के फ़ाइनल में ईस्ट यॉर्कशायर रेजिमेंट की टीम को हराया था.

फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद गली में क्रिकेट खेलने वाले बच्चों ने अपने नाम 'गोली' और 'गुरन' रख लिए. उस साल भारत में पैदा हुए बहुत से बच्चों के नाम 'भुवन' रखे गए.

यह भी एक सुखद संयोग था कि अवध के जिस क्षेत्र को दिखाने के लिए गुजरात के एक गाँव को चुना गया था, वो भारतीय क्रिकेट के महान खिलाड़ी रणजी का गृह राज्य भी था.

जब भुवन की टीम ने फ़िल्म के पर्दे पर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ वो ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी, स्वर्ग में बैठे भारतीय क्रिकेट के भीष्म पितामह नवानगर के जाम साहब रणजी के चेहरे पर मुस्कान ज़रूर आई होगी.

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English summary
Aamir Khan built such a village for the rent
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