तीन तलाक़ पर रोक के 5 साल: महिलाएँ जो अब 'न शादीशुदा हैं, न पूरी तरह तलाक़शुदा'
2017 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक़ को असंवैधानिक क़रार दिया था. मगर पांच साल बाद कई ऐसी महिलाएँ हैं जिन्हें मालूम नहीं कि उनकी शादी क़ायम है या वो तलाक़शुदा हैं.
साल 2017 में जब सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल एक साथ तीन तलाक़ देने को असंवैधानिक क़रार दिया, तब इस केस की याचिकाकर्ताओं में से एक, आफ़रीन रहमान काफ़ी खुश थीं क्योंकि कुछ महीने पहले उनके शौहर की तरफ़ से एकतरफ़ा और तत्काल दिए गए तीन तलाक़ अब स्पष्ट रूप से अवैध थे.
लेकिन उनकी उम्मीदों के विपरीत हालात ज़्यादा नहीं बदले. उनके शौहर ने उनसे सुलह करने से इनकार कर दिया. पांच साल बाद, आज उन्हें मालूम नहीं कि उनकी शादी क़ायम है या वो तलाक़शुदा हैं.
ऐसी सूरत-ए-हाल का सामना करने वाली आफ़रीन रहमान भारत में अकेली मुस्लिम महिला नहीं. महिलाओं के अधिकार के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि प्रचलित तीन तलाक़ के मुक़दमे की पांचों याचिकाकर्ता अब भी 'तलाक़शुदा' हैं.
इन कार्यकर्ताओं का कहना है कि अतीत में तीन तलाक़ों के विपरीत, पिछले पांच साल के दौरान मर्दों द्वारा अपनी बीवियों को बिना तलाक़ दिए छोड़ने के मामलों में भी इज़ाफ़ा हुआ है.
हैदराबाद में शाहीन विमेंस रिसोर्स एंड वेलफ़ेयर एसोसिएशन चलाने वाली जमीला निशात कहती हैं कि उनके कार्यकर्ताओं ने इस अदालती फ़ैसले के बाद शहर की 20 झुग्गियों में कई मामलों का अध्ययन किया और उन्हें चौंका देने वाले आंकड़े मिले.
उन्होंने बताया कि 'हमने जिन 2106 घरों का सर्वे किया, उनमें 683 घरों में शौहरों ने महिलाओं को बिना तलाक़ के छोड़ दिया था.'
बिना तलाक़ दिए महिलाओं को छोड़ना
महिला अधिकारों पर काम करने वाले कार्यकर्ता बताते हैं कि जिस चीज़ ने सूरत-ए-हाल को और अधिक पेचीदा बना दिया है, वह मुस्लिम महिलाओं के लिए 'मुस्लिम महिला (विवाह संरक्षण) अधिनियम-2019' है.
सरकार ने इस अधिनियम को 2017 के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद बनाया था जब अदालत के फ़ैसले ने तत्काल एक साथ तीन तलाक़ की प्रथा को रद्द कर दिया.
इस नए क़ानून ने तीन तलाक़ को एक अपराध क़रार दिया, जिसके तहत शौहर को तीन साल क़ैद की सज़ा है, लेकिन जेल के ख़ौफ़ ने बहुत से मर्दों के लिए औरतों को बिना तलाक़ छोड़कर क़ानून को नज़रअंदाज़ करने का मौक़ा दिया है, जिससे उन्हें अपने काम के लिए किसी भी प्रकार की ज़िम्मेदारी से आज़ादी मिलती है.
यह महिलाओं के लिए एक तरह से क़ानूनी और सामाजिक चुनौती है.
जमीला कहती हैं कि 'हमारे पास शुरुआती दिनों में बिना तलाक़ के शौहरों के ग़ायब होने के दो से तीन मामले आते थे, लेकिन साल 2019 में क़ानून बनने के बाद इन मामलों में अचानक से इज़ाफ़ा हुआ है.'
महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था 'भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन' की सह-संस्थापक ज़किया सोमन तीन तलाक़ मामले में याचिकाकर्ताओं में से एक थीं. वो कहती हैं कि अदालत के फ़ैसले और उसके बाद आने वाले क़ानून के मिश्रित परिणाम मिले हैं.
ज़किया सोमन कहती हैं,"यह एक मिला-जुला नतीजा है. ख़ास तौर पर जब अदालत में इन याचिकाकर्ताओं की बात आती है, क्योंकि इनमें से किसी को भी उनके शौहर ने वापस नहीं लिया.
"इन पांच में से कम से कम चार मामलों में तो शौहरों ने दुबारा शादी कर ली है और उनके बच्चे भी हैं, जबकि ये महिलाएं अभी भी अकेली हैं.
"लोगों में जागरूकता आई है कि यह अल्लाह का क़ानून नहीं और इसकी वजह से तीन तलाक़ के मामलों में काफ़ी हद तक कमी आई है."
- 'तलाक़-ए-हसन' क्या है और ये तीन तलाक़ से कैसे अलग है
- हैदराबादः "मेरे पति ने 11 महिलाओं से शादी की...”
हालात बदल रहे हैं
लेकिन विशेषज्ञ और महिला अधिकारों पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता इस बात से सहमत हैं कि इस फ़ैसले और क़ानून का एक ख़ास नतीजा यह निकला कि पिछले पाँच सालों में तत्काल तीन तलाक़ के मामलों में कमी आई है.
ज़किया कहती हैं कि 'विभिन्न राज्यों में मौजूद हमारे वॉलंटियर्स रिपोर्ट कर रहे हैं कि तीन तलाक़ के मामलों की संख्या में निश्चित रूप से बहुत कमी आई है.'
मुसलमानों में सामाजिक स्तर पर भी हाल के वर्षों में तीन तलाक़ के बारे में ज़्यादा जागरूकता आई है और लोगों को यह एहसास हुआ है कि तत्काल तीन तलाक़ देने का तरीक़ा एक 'बिद्दत' है.
विशेषज्ञों का कहना है कि यह बात मुस्लिम मर्दों के साथ-साथ औरतों के लिए भी सही है.
वरिष्ठ पत्रकार और वैवाहिक मुद्दों पर एक किताब के लेखक ज़ियाउस्सलाम कहते हैं कि पिछले पांच सालों में चीज़ें इतनी बदली हैं कि महिलाएं अपने अधिकारों के बारे में जानने लगी हैं.
ज़ियाउस्सलाम कहते हैं, "इस फ़ैसले और ख़ास तौर पर शाहीन बाग़ आंदोलन के बाद मुस्लिम महिलाओं को अपनी आवाज़ मिली, लेकिन बदक़िस्मती से सबकुछ अच्छा भी नहीं है.
"अदालत ने शौहर को अपनी 'तलाक़शुदा' बीवी को वापस लेने के लिए नहीं कहा. वह न ही पूरी तरह से शादीशुदा थीं और न ही तलाक़शुदा. पांच साल बाद भी वह वहीं खड़ी हैं जहां पहली बार सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने के वक़्त थीं."
इसका मतलब यह भी है कि उन्हें शौहरों की तरफ़ से 'हक़-ए-मेहर' के तौर पर कोई मदद भी नहीं मिली.
हक़ीक़त क्या है?
कुछ शरिया क़ानूनों के अनुसार तलाक़-ए-अहसन और तलाक़-ए-हसन हैं और यह तीन महीने की मुद्दत में दी जाती हैं और मर्द की तरफ़ से एकतरफ़ा होते हैं.
इस्लाम में शौहर और बीवी के अलगाव के अन्य रूपों में ख़ुला (जो महिला के कहने पर होती है) और मुबारत (जिसमें आपसी रज़ामंदी की ज़रूरत होती है) शामिल हैं.
सुप्रीम कोर्ट की वकील शाहरुख़ आलम बताती हैं कि महिलाएं एकतरफ़ा तरीक़े से ख़ुला ले सकती हैं.
शाहरुख़ आलम कहती हैं,"अगर बीवी फ़ैसला करती है कि वह ख़ुला चाहती है, तो क़ाज़ी यह ज़रूर कह सकता है कि आपस में बातचीत से सुलझाने की कोशिश करें, लेकिन शौहर को आख़िरकार ख़ुला क़बूल करनी ही पड़ेगी, अगर औरत मेहर और दूसरे अधिकारों का त्याग कर दे."
लेकिन व्यावहारिक रूप से यह कहीं ज़्यादा पेचीदा है. शाहरुख़ आलम के मुताबिक़ 'इसलिए अक्सर जब क़ानूनी नोटिस आता है तो शौहर उस पर जवाब देने में देर करता है या जवाब देने से इनकार कर देता है.'
जमीला भी वैवाहिक संघर्ष के मुद्दे पर कई महिलाओं से बातचीत के बाद इसी नतीजे पर पहुंची हैं.
तीन तलाक़ पर प्रतिबंध और इससे संबंधित क़ानून ने मर्दों को यह एहसास दिलाया है कि ग़लत तरीक़े से तलाक़ देने पर वो मुजरिम बन जाएंगे, लेकिन अगर वो महिलाओं को बिना तलाक़ के छोड़ दें तो महिलाएं शौहर की शर्तों को मानने के लिए मजबूर हो जाएँगी.
पाकिस्तान मूल की सानिया ने टिक टॉक पर सुनाई कहानी और पूर्व पति ने मार डाला
जमीला कहती हैं,"अब रवैया यह है कि इतना सताओ कि लड़की ख़ुद ख़ुला ले ले. इसीलिए अब हमारे पास तीन तलाक़ से ज़्यादा ख़ुला के मामले आ रहे हैं. इसका मतलब यह है कि महिला को अपने हक़ जैसे मेहर और नफ़्क़ा से महरूम होना पड़ेगा."
23 वर्षीय अर्शिया बेगम की अक्टूबर 2021 में शादी हुई, लेकिन ससुराल वालों की हिंसा ने उन्हें तलाक मांगने पर मजबूर कर दिया, हालांकि शौहर ने तलाक़ देने से इनकार कर दिया और कहा कि वो ख़ुला ले लें.
अर्शिया बताती हैं कि वह इसके लिए राज़ी हो गईं लेकिन शौहर से कहा कि वह एक शर्त पर ख़ुला लेंगी कि वह एक कागज़ पर लिखकर स्वीकार करें कि ख़ुला की वजह उनका और उनके परिवार की हिंसा है.
शौहर इस पर राज़ी नहीं हुआ. अर्शिया की मां ने उनसे हिंसा के बारे में लिखे बग़ैर ख़ुला लेने को कहा क्योंकि इससे उनके लिए यह प्रक्रिया आसान होगी.
अर्शिया कहती हैं,"लेकिन मैंने कहा मैं क्यों करूं? शौहर और उनके घर वालों ने जो किया उसका इल्ज़ाम मैं क्यों लूं? वो समाज में हिंसा करने के बावजूद भी अच्छे हैं, लेकिन मैं सब कुछ बर्दाश्त करने के बावजूद भी बुरी हूं."
हर-हर शंभू...वाली फ़रमानी नाज़ बोलीं- भजन गा दिया तो हिंदू नहीं हो गई
अर्शिया का संघर्ष अभी भी जारी है
जमीला कहती हैं कि 'एक लड़की नहीं चाहती कि तलाक़ हो. वह अपने परिवार के साथ रहना चाहती है. वह और कहां जाएगी क्योंकि अक्सर अपनी ज़िन्दगी को नए सिरे से शुरू करने के लिए उसके पास हुनर नहीं होता.'
लेकिन जब कोई महिला स्वतंत्र रूप से अपने फ़ैसले लेने की ताक़त रखती है तब भी समाज का दबाव और पितृसत्तात्मक व्यवस्था उसके लिए ज़िन्दगी मुश्किल बना देती है.
सभी कोशिशों के बाद शौहर से बात न बनने के बाद आफ़रीन दोबारा शादी करने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन क़िस्मत उनका साथ नहीं दे रही.
महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली एक कार्यकर्ता नसीम अख़्तर ने आफ़रीन को अपना केस सुप्रीम कोर्ट में ले जाने में मदद की थी. वो कहती हैं कि 'आफ़रीन का केस इतना मशहूर हो गया कि लोग आफ़रीन से डरने लगे हैं.'
नसीम अख़्तर कहती हैं,"जिस दिन तीन तलाक़ पर अदालत का फ़ैसला आया उस दिन आफ़रीन का चेहरा हर टीवी चैनल पर था. उसके बॉस ने देखा तो तुरंत यह कहते हुए नौकरी से निकाल दिया कि तुम इतनी चालाक औरत हो कि अपने शौहर के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट तक चली गई."
इस तरह के मामलों में ज़रूरी नहीं कि समाज में प्रभाव हर समय मददगार साबित हो.
नसीम कहती हैं कि 'उदाहरण के लिए आफ़रीन का ही मामला देख लें. उसका शौहर पढ़ा-लिखा था, एक बड़े संस्थान से क़ानून की शिक्षा हासिल की थी और उसके पिता एक सरकारी नौकरी में थे, और आफ़रीन भी मध्यमवर्गीय तबक़े से है और शिक्षित भी है.'
वो कहती हैं कि 'लेकिन यह निश्चित रूप से निचले तबक़े में ज़्यादा है. ज़्यादातर मामले वैसे बस्तियों, झुग्गियों से आते हैं, जहां शिक्षा और संसाधनों की भारी कमी है.'
न्यूयॉर्क में मंदीप कौर की मौत: माँ बाप चाह कर भी कुछ ना कर पाए..
क़ानून के बावजूद महिलाओं के लिए इतना मुश्किल क्यों?
शाहरुख़ आलम इसकी वजह सामाजिक और राजनीतिक बताती हैं.
भारत में मुस्लिम और अन्य समुदायों में तलाक़ की दर का हवाला देते हुए शाहरुख़ आलम कहती हैं कि इस सुधार का समुदाय के अंदर की स्थिति से कोई संबंध नहीं है.
बहुत से मुसलमान इस तरह के उपायों को अपने निजी मामलों में घुसपैठ के रूप में देखते हैं, ख़ास तौर पर जब मुसलमानों और हिंदुओं में तलाक़ की दरों में बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है.
2011 की जनगणना के अनुसार प्रत्येक 1000 विवाहित हिंदुओं में से दो तलाक़शुदा हैं और प्रत्येक 1000 विवाहित मुसलमानों में से 3.7 तलाक़शुदा हैं.
रत्ना पाठक शाह ने करवा चौथ पर ऐसा क्या कह दिया कि ट्रोल्स पड़ गए पीछे
मुस्लिम विश्लेषक कहते हैं कि अक्सर इस नंबर को बढ़ा-चढ़ा कर अनुपातहीन तरीक़े से पेश किया जाता है.
लेकिन मुसलमानों में इन उपायों की लोकप्रियता इसलिए भी कम है क्योंकि उन्हें डर है कि इसका इस्तेमाल उनके व्यक्तिगत वैवाहिक विवादों को भी अपराध की शक्ल देने के लिए किया जा सकता है.
इस क़ानून की कट्टर समर्थक ज़किया कहती हैं,"यह क़ानून एक बेहतरीन क़ानून नहीं, लेकिन इसे और बेहतर बनाया जा सकता था. इसमें कुछ शर्तें होनी चाहिए थीं. इसमें तलाक़ की दो या तीन धाराएं रखी जा सकती थी, जो इस बात को सुनिश्चित करती कि समस्या जड़ से हल हो जाए."
वह आगे कहती हैं कि 'दूसरी समस्या यह थी कि क़ानून में यह कहना चाहिए था कि तलाक़ की सूरत में महिलाओं का क्या अधिकार है.'
वह कहती हैं कि क़ानून के तहत सब कुछ हासिल करना संभव नहीं है, लेकिन इसमें एक इशारा तो किया जा सकता था.
संघर्ष जारी है
भारत में सत्ताधारी बीजेपी मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के नाम पर इस मुद्दे को आगे बढ़ाने में सक्रिय रही है जिसकी वजह से कई मुस्लिम इसे एक राजनीतिक चाल के तौर पर देखते हैं.
लेकिन विश्लेषक कहते हैं कि आम लोगों की रूढ़िवादी सोच के बावजूद मुसलमान सक्रिय रूप से बदलाव की ख़्वाहिश रखते हैं.
2000 के दशक की शुरुआत से मुस्लिम महिलाओं के साथ काम कर रही ज़किया कहती हैं कि भारतीय मुसलमान न सिर्फ़ बदलाव के लिए तैयार हैं बल्कि वे सक्रिय रूप से बदलाव चाहते हैं.
ज़किया कहती हैं,"वह इस हक़ीक़त को स्वीकार करते हैं कि ग़लत चीज़ों पर अमल करने से इस्लामोफ़ोबिया में इज़ाफ़ा होता है और हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा मिलता है.
"आम मुसलमान को जब यह पता चलता है कि अल्लाह नहीं चाहता कि वे ऐसा करें, तो सोचते हैं कि मैं ऐसा क्यों करूं."
ज़ियाउस्सलाम परिवर्तन का एक और उदाहरण देते हुए बताते हैं कि ज़्यादातर लोग अभी भी इस तरक़्क़ी को नहीं समझ पाए हैं.
ज़ियाउस्सलाम कहते हैं, "पिछले साल महिलाओं का एक ग्रुप देश भर के 16 शहरों की मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने गया. उन्हें शायद ही किसी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. वो अपना हक़ लेने में कामयाब रहीं, जिसे अल्लाह ने उन्हें दिया है, जो उन्हें हक़ देता है कि वो जब चाहे मस्जिद में नमाज़ अदा कर सकें."
लेकिन ज़िया सवाल करते हैं कि 'किसी एक औरत को भी इसलिए क्यों तकलीफ़ उठानी पड़े कि एक मर्द ने जान-बूझ कर क़ुरआन के संदेश को तोड़-मरोड़ कर पेश किया?'
वो कहते हैं कि संघर्ष जारी है और "यह तो बस शुरुआत है."
https://m.youtube.com/watch?v=TM3qXW85hpM
ये भी पढ़ें:
- पीएफ़आई: केरल से पटना तक सक्रिय इस इस्लामी संगठन पर क्या हैं आरोप?
- हैदराबादः "मेरे पति ने 11 महिलाओं से शादी की...”
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)