मजीठिया मामले में सरकार की नापसंद बने दि ट्रिब्यून के एडिटर हरीश खरे की गई नौकरी
शिमला।
आखिरकार
एक
और
पत्रकार
नेताओं
की
धमक
के
आगे
अपनी
प्रतिभा
का
खुद
ही
गला
घोंटने
को
मजबूर
हो
गया
और
इस
संपादक
की
अपने
संस्थान
से
विदाई
तय
हो
गई।
यह
सब
उस
समय
हुआ
जब
पंजाब
में
अपने
नशे
के
व्यापार
व
नशा
माफिया
से
रिश्तों
के
लिए
कुख्यात
अकाली
नेता
से
दिल्ली
के
मुख्यमंत्री
की
तरह
संपादक
माफी
नहीं
मांग
पाया।
यह सब उस मीडिया संस्थान में हुआ, जो कभी अपनी निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए भारत में एक अलग स्थान रखता था। यहां बात हो रही है चंडीगढ़ से छपने वाले दि ट्रिब्यून के संपादक हरीश खरे की, जिन्होंने गुरूवार को अपना इस्तीफा मैनेजमेंट को सौंप दिया। इसके बाद ट्रिब्यून में नए संपादक के तौर पर दिल्ली ब्यूरो के वी प्रसाद की तैनाती हो गई। यह सब ऐसे में समय हुआ जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने नशे के कारोबार में कथित तौर पर अपने संबन्धों के लिए मशहूर अकाली नेता व केद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर के भाई विक्रम सिंह मजिठिया से माफी मांग ली। अरविंद केजरीवाल के इस माफीनामे को लेकर जहां राजनिति में तूफान खड़ा हो गया, वहीं मीडिया जगत भी हैरान है।
दूसरे शब्दों में कहें तो अरविंद केजरीवाल ने पंजाब चुनाव में मजिठिया को क्लीन चिट देते हुए उन पर जो आरोप लगाये थे, उन्हें खुद ही वापिस ले लिया। हालांकि ट्रिब्यून ने कुछ समय पहले ही मजिठिया से माफी मांग ली थी। दरअसल इस अखबार ने पंजाब में चल रहे नशे के कारोबार से जुड़े लोगों को बेनकाब करते हुए कई सनसनीखेज स्टोरी छापी थी। जिनमें ड्रग सिंडिकेट में मजिठिया की भागीदारी भी उजागर की गई थी। उस समय भी खरे ने अपने स्टाफ को बताया था कि उन्हें माफी छापने के लिए मजबूर किया गया है, लेकिन पत्रकार अपने तरीके से काम करते रहें।
समय की नजाकत देखिए कि छह माह बाद अरविंद केजरीवाल ने भी मजिठिया के खिलाफ तमाम आरोपों पर अदालत में माफी मांग ली व मजिठिया अब पाक साफ हो गए हैं। यह भी एक संयोग ही है कि जिस समय दिल्ली में अरविंद केजरीवाल से अदालत में माफी मांग ल। उसी शाम चंडीगढ़ में हरीश खरे की भी विदाई हो गई।
हरीश खरे की विदाई से साफ संदेश है कि ट्रिब्यून प्रबंधन उनसे खुश नहीं था। इसमें अकेले मजीठिया ही कारण नहीं बने बल्कि पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह के साथ खरे की चल रही खटपट भी एक कारण रहा है। दरअसल खरे की तैनाती के बाद कैप्टन अमरेन्दर सिंह सरकार भी खबरों को लेकर असहज महसूस कर रही थी।
इससे पहले मोदी सरकार को भी खरे उस समय अखरे जब ट्रिब्यून ने आधार के डेटाबेस के चोरी होने की खबर को प्रमुखता से छापा था। इस मामले में खरे की एडिटोरियल टीम पर केन्द्र की ओर से दवाब भी बनाया गया लेकिन खरे ने किसी की बात नहीं मानी अपनी टीम के जरिए आधार की खामियों को एक-एक करके उजागर किया।
बताया जा रहा है कि हरीश खरे ट्रिब्यून समूह के वर्तमान चैयरमेन जम्मू कश्मीर के राज्यपाल एन एन वोहरा के लिये सिरदर्द साबित हो रहे थे। वोहरा ने जस्टिस सोढ़ी के बाद कार्यभार संभला था। हरीश खरे 2015 में तीन साल के अनुबंध पर ट्रिब्यून में आये थे व अभी उनका कार्यकाल बचा था। लेकिन दवाब के आगे उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा। उन्होंने यह कदम उठाने के लिये कोई कारण तो नहीं बताया है लेकिन आंतरिक सूत्र बताते हैं कि आधार से लेकर मजिठिया के मामले तक खरे सत्ता व प्रबंधन की आंख के किरकिरी बन रहे और अंत में उनकी विदाई तय हो गई। अंदरूनी तौर पर ट्रिब्यून समूह चाह रहा था कि खरे यहां रहकर ही अपना कार्यकाल पूरा करें लेकिन गुरूवार को हालात ही ऐसे बने कि उन्होंने पद छोडना ही बेहतर समझा।
राजनिति शास्त्र के पीएचडी हरीश खरे येल यूनिवर्सिटी के छात्र रहे हैं। वे द हिन्दू के दिल्ली संपादक बनने से पहले कई सालों तक हिन्दू में राजनैतिक संपादक रहे। 2009 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार में प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार बने। वह हिन्दुस्तान टाइम्स व टाइम्स आफ इंडिया में भी काम कर चुके हैं। अहमादाबाद में स्थानीय संपादक के तौर पर अपनी सेवायें दे चुके हैं। 2012 में उन्होंने पीएमओ छोड़ा व 2015 में ट्रिब्यून ज्वाइन करने से पहले उन्होंने अपनी रिसर्च व शोध कार्य किया लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्दर मोदी से लेकर अमित शाह व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की वह नापसंद ही रहे। खरे की यह विदाई आने वाले आम चुनावों से पहले मीडिया पर सत्तारूढ़ दल की ओर से अपना दबदबा कायम करने के रूप में भी देखा जा रहा है।
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