सर्पदंश के भय से मुक्त कराती हैं नागनी माता, इस जगह लगता है सबसे बड़ा मेला
शिमला। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिला की देव भूमि, वीर भूमि और ऋषि-मुनियों की तपोस्थली पर साल भर कई मेलों का आयोजन होता है। इन मेलों में सबसे लंबे वक्त यानि दो महीने तक मनाए जाने वाला प्रदेश का एक मात्र मेला है 'नागनी माता मेला'। यह मेला हर साल सावन और भाद्रपद महीने के हर शनिवार को नागनी माता के मन्दिर, कोढ़ी-टीका में परम्परागत ढंग और धूमधान के साथ मनाया जाता है। लोगों की मान्यता है कि मेले में नागनी माता का आशीर्वाद प्राप्त करने से सांप आदि विषैले कीड़ों के दंश का भय नहीं रहता है।
मनसा
माता
के
रुप
में
भी
मानी
जाती
हैं
नागनी
माता
का
प्राचीन
और
ऐतिहासिक
मन्दिर
नूरपुर
से
लगभग
10
किलोमीटर
दूर
मण्डी-पठानकोट
राष्ट्रीय
उच्च
मार्ग
पर
गांव
भड़वार
के
पास
कोढ़ी-टीका
गांव
में
स्थित
है।
नागनी
माता
जो
मनसा
माता
का
रूप
मानी
जाती
हैं,
के
नाम
पर
हर
साल
सावन
और
भाद्रपद
महीने
में
मेले
लगते
हैं।
बीते
शनिवार
से
सावन
महीने
के
नागनी
मेले
शुरू
हो
गए
हैं।
नूरपुर
रियासत
के
वंशज
राजा
दुर्गेशवर
सिंह
ने
सालों
पुरानी
परंपरा
को
निभाते
हुए
अपने
परिवार
के
सभी
सदस्यों
सहित
नागनी
माता
की
पूजा
अर्चना
की।
सर्पदंष
के
इलाज
के
लिए
आते
है
लोग
उन्होंने
बताया,
'नागनी
माता
के
कारण
आज
नूरपुर
क्षेत्र
की
अपनी
एक
अलग
पहचान
है,
और
यह
मंदिर
हिमाचल
के
अलावा
पंजाब,
हरियाणा
और
जम्मू
कश्मीर
सहित
अन्य
राज्यों
के
लोगों
की
आस्था
का
प्रमुख
केंद्र
है।'
इस
मंदिर
के
इतिहास
बारे
कई
मान्यताएं
प्रचलित
हैं
और
इस
मन्दिर
की
विशेषता
है
कि
इसके
पुजारी
राजपूत
घराने
से
संबंध
रखते
हैं।
इस
मंदिर
को
लेकर
जो
भी
दंत
कथाएं
और
सत्य
जो
भी
हो,
परंतु
लोग
श्रद्धाभाव
से
जहरीले
जीवों,
कीटों
और
सर्पदंष
के
इलाज
के
लिए
आज
भी
बड़ी
संख्या
में
इस
मन्दिर
में
पहुंचते
हैं।
कोढ़
से
मिलती
है
मुक्ती
मंदिर
की
स्थापना
को
लेकर
प्रचलित
एक
दंतकथा
के
मुताबिक,
वर्तमान
में
कोढ़ी
टीका
में
स्थित
माता
नागनी
मन्दिर,
जो
बीते
जमाने
में
घने
जंगलों
से
घिरा
हुआ
स्थान
हुआ
करता
था।
बताया
जाता
है
कि
इस
जंगल
में
कोढ़
से
ग्रसित
एक
वृद्ध
रहा
करता
था
और
कुष्ठ
रोग
से
मुक्ति
के
लिए
भगवान
से
निरंतर
प्रार्थना
करता
था।
उसकी
साधना
सफल
होने
पर
उसे
नागनी
माता
के
दर्शन
हुए
और
उसे
नाले
में
दूध
की
धारा
बहती
दिखाई
दी।
स्वप्न
टूटने
पर
उसने
दूध
की
धारा
वास्तविक
रूप
में
बहती
देखी
जो
वर्तमान
में
मन्दिर
के
साथ
बहते
नाले
के
रूप
में
है।
माता
के
केहने
पर
उसने
अपने
शरीर
पर
मिट्टी
सहित
दूध
का
लेप
किया
और
वह
कोढ़
मुक्त
हो
गया।
आज
भी
यह
परिवार
माता
की
सेवा
करता
है
और
माना
जाता
है
कि
उसके
परिवार
को
माता
की
दिव्य
शक्तियां
प्राप्त
हैं।
दंत
कथा
है
प्रचलित
इसी
तरह
एक
और
अन्य
कथा
के
मुताबिक,
एक
नामी
सपेरे
ने
मंदिर
में
आकर
धोखे
से
नागनी
माता
को
अपने
पिटारे
में
डालकर
बंदी
बना
लिया।
नागनी
माता
ने
क्षेत्रीय
राजा
को
दर्शन
देकर
अपनी
मुक्ति
के
लिए
प्रार्थना
की।
जब
वह
सपेरा
कंडवाल
के
पास
आकर
जैसे
ही
इस
स्थल
पर
रूका
तो
राजा
ने
नागनी
माता
को
सपेरे
से
मुक्त
करवाया।
तब
से
इस
स्थल
को
विषमुक्त
होने
की
मान्यता
मिली
और
सर्पदंष
से
पीड़ित
लोग
अपने
इलाज
के
लिए
यहां
आने
लगे।
इसी
तरह
कुछ
अन्य
कथाएं
भी
इस
मंदिर
की
मान्यता
को
लेकर
प्रचलित
हैं।
मन्दिर
के
पुजारी
प्रेम
सिंह
के
मुताबिक,
माता
कई
बार
सुनहरी
रंग
के
सर्परूप
में
मन्दिर
परिसर
में
दर्शन
देती
हैं,
जिसे
देखकर
बड़े
आनन्द
की
अनुभूति
महसूस
होती
है
और
वह
क्षण
सालों
तक
याद
की
जाती
है।
मंदिर
की
मिट्टी
से
सांप
घर
में
नहीं
करता
प्रवेश
श्रद्धालु
माता
के
मन्दिर
की
मिट्टी
जिसे
शक्कर
कहा
जाता
है,
को
बड़ी
श्रद्धा
और
विश्वास
के
साथ
घर
ले
जाते
हैं
ताकि
घर
में
सांप
और
अन्य
विषैले
जन्तुओं
के
प्रवेश
डर
न
रहे।
इसके
अलावा
इस
मिट्टी
का
उपयोग
चर्म
रोग
के
लिए
औषधी
के
रूप
में
भी
किया
जाता
है।
मेले
के
दौरान
श्रद्धालु
नागिनी
माता
को
दूध,
खीर,
फल
इत्यादि
व्यंजन
अर्पित
करके
इसकी
पूजा
अराधना
करते
है।
आदिकाल
से
यह
मेला
बदलते
परिवेश
के
बावजूद
भी
लोगों
की
श्रद्धा
और
आस्था
का
परिचायक
बना
रहा
है,
जिसमें
प्रदेश
की
समृद्ध
संस्कृति
और
सभ्यता
की
साक्षात
झलक
देखने
को
मिलती
है।