तो क्या ऐसे ही अपनी पीठ थपथपा रहे हैं अखिलेश यादव
मुम्बई में दौड़ रही मोनोरेल ने विदेशी सपनों को देसी पटरियों पर दौड़ा दिया है। सुनने, देखने, समझने और समझाने में बहुत अच्छा लगता है, पर जब तक उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों का सड़क परिवहन व रोड-मैप-रूट व्यवस्थित नहीं होगा, बेहतर यातायात का सपना बीच नींद में टूटता रहेगा। शहरों के ढांचों-सांचों में आधुनिकता ढालने से पहले रोड-इन्फ्रास्ट्रक्चर की तस्वीर सुधारनी होगी। यातायात के नाम पर हुई लापरवाही से मुनाफे को मुश्किलों में बदलते देर नहीं लगेगी।
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मैट्रो ट्रैक का महंगा मेंटिनेंस, लाइन बिछाने में आने वाला मोटा खर्च पहले ही इस परियोजना को देश के विभिन्न राज्यों में आने से रोक रहा है। हाल में ही राजधानी लखनऊ में मैट्रो परियोजना को हरी झंडी मिली है। नजदीकी शहरों में कानपुर भी मैट्रो के सफर की राह देख रहा है। सरकारें इस परियोजना को विकास की मंशा की कसौटी पर कस रही हैं, तो जनता इसमें अपनी सहूलियत तलाश रही है।
गौर करने वाली बात है कि मुंबई में मोनोरेल नेटवर्क की कुल लंबाई 19.54 किमी. है, जिसमें से 8.93 किमी का हिस्सा, (वडाला से चैंबूर) चालू हो गया है। जापान के ओसाको मोनो रेल नेटवर्क के बाद यह दुनिया में दूसरा सबसे लंबा मोनो रेल नेटवर्क है। मोनोरेल परियोजना शुरु होने से पहले ही मुम्बई में बुनियादी-यातायात दुरुस्त था और बाकी सुधार के लिए मोनोरेल काॅर्पोरेशन व स्थानीय प्रशासन की मदद से इसे बेहतर बनाने का सफल अभियान चलाया गया था।
लखनऊ में हालात फिर भी काबू में हैं, पर कानपुर का यातायात खूबियों से दूर और खामियों से भरा है। कुछेक चैराहों को छोड़कर यहां टैªफिक-सिग्नल नज़र नहीं आते। पब्लिक ट्रांस्पोर्ट की तस्वीर भी इस 'महानगर' में बेहद सुस्त है। इन्हीं कमियों को लेकर सरकार व तकनीकी जानकार मोनो रेल-ट्राम-बस को मेट्रो के मुकाबले ज्यादा सस्ता और मुनाफे का सौदा मान रहे हैं।
पिछले साल ही केन्द्र सरकार साफ कर चुकी है कि वह राज्य सरकारों, नगर प्राधिकरणों और जनता की मांग के मुताबिक हर बड़े और मझोले शहर में मेट्रो रेल नेटवर्क नहीं बिछा सकती। दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में केन्द्रीय शहरी एवं विकास मंत्री जयराम रमेश का कहना था कि शहर प्राधिकरणों को मेट्रो के बजाय सस्ती ट्राम परियोजना के बारे में सोचना चाहिए। रोड-रूट-सिस्टम में जरूरी सुधार से पहले दूसरे विकल्प, जैसे मोनो रेल, ट्राम, स्काई बस जैसी परियोजनाएं बेहतरीन इन्फ्रास्ट्रक्चर की मिसाल बन सकती हैं।
दरअसल इन रूटों के कंस्ट्रक्शन में पहले से रचे-बसे सड़क-चैराहों की सूरत, यातायात-नियम-कायदे बेहद मायने रखते हैं। राजनैतिक-सामाजिक दबंगई के चलते अक्सर कई शहरों में यातायात व्यवस्था पटरी पर नहीं है। सीधे-सपाट नियमों की अनदेखी वक्त के साथ एक बड़ी मुश्किल बनकर सामने आती है। सत्तारूढ़ दल बेहद उतावले होकर इन माॅडर्न-तकनीकी योजनाओं का ऐलान तो कर देते हैं, पर वादों और ज़मीनी हकीक़त में फांसला बढ़ता चला जाता है।
फिलहाल 30 लाख से ज्यादा आबादी वाले 8 शहरों में मैट्रो रेल के दर्जन भर प्रोजेक्ट चल रहे हैं। लखनऊ, बंगलुरु और कोच्चि जैसे शहरों में मेट्रो रेल परियोजनाओं को प्राथमिकता मिली है। दिल्ली एनसीआर में मैट्रो रूट का दायरा 200 किमी. पार कर चुका है। विकास की इस नई सुबह के लिए कोशिशों का दौर जारी है। सड़क परिवहन से लेकर रोड-रूट-मैप पर सम्बंधित ऐक्सपर्ट्स काम कर रहे हैं।
पारंपरिक यातायात में फेरबदल न सिर्फ इस परियोजना की चुनौती है, बल्कि अहम ज़रूरत भी। आज की तारीख में हमारे देश में मेट्रो के लिए सिर्फ ट्रैक बिछाने का खर्च 267 करोड़ रुपए प्रतिकिलोमीटर आता है। इतनी भारी-भरकम रकम खर्चने से पहले, यातायात व निर्माण ढांचे को ज़रूरत के मुताबिक ढालना होगा। यहां न सिर्फ सरकार व प्रशासन की सतर्कता ज़रूरी है, बल्कि परियोजना से पहले ट्रैफिक, रोड-कंस्ट्रक्शन-डायवजऱ्न जैसे मुद्दों का समाधान भी प्राथमिकता में होना चाहिए।
इन आठ शहरों में मेट्रो के विस्तार पर लगभग 95 हजार करोड़ के खर्च का अनुमान है। ऐसे में ज़रूरी है, कि परियोजना की शुरुआत होने से पहले, यातायात के ज़रूरी नियम-कायदों के पूरे होने व खामियों को दूर करने की शुरुआत कर दी जाए। विकास की इस उम्मीद में प्रशासन को उन नकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देना होगा, जो इस आधुनिक सपने को पूरा होने से न रोकें।
बाकी शहरों की हालत बेहतर है, पर कानपुर, लखनउ जैसे 'महानगरों' में मेट्रोे परियोजना आने से पहले रोड-रूट-इन्फ्रास्ट्रक्चर को सुधारना ज़रूरी है। खामियों को खूबियों से ढका जा सकता है, पर समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए हमें बुनियादी कदम उठाने होंगे। तरक्की सिर्फ हवा-हवाई ही नहंी, बल्कि ज़मीनी होनी चाहिए।