देवानंदः ज़िंदगी से रोमांस करने वाला अभिनेता, जिस पर फिदा थीं महिलाओं की तीन पीढ़ियां
हिंदी सिनेमा के दिग्गज अभिनेता देव आनंद बीते ज़माने के सबसे सफल अभिनेताओं में से एक हैं. उनकी 98 वीं जयंती पर उनके जीवन से जुड़े कुछ पहलुओं को याद कर रहे हैं रेहान फ़ज़ल विवेचना में
हिंदी सिनेमा में अगर किसी एक शख़्स के लिए स्टाइल आइकन शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता था तो वो थे देवानंद.
एक ख़ास अंदाज़ में बोलना, झुक कर लहराते हुए चलना, तंग पतलून, गले में स्कार्फ़, सिर पर बैगी कैप और आप की आँखों में देखती आँखें- ये थे एवरग्रीन देवानंद, 88 साल के नौजवान.
उन्होंने एक बार कहा था कि वो सिनेमा के लिए ताउम्र जवान रहेंगे. वो इसे साबित भी कर गए. 1923 में गुरदासपुर में जन्मे देवानंद ने जुलाई, 1943 में अपनी जेब में 30 रुपए लिए फ़्रंटियर मेल से लाहौर से बंबई का सफ़र तय किया था.
उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि चार साल के अंदर भारत का विभाजन हो जाएगा और उन्हें फिर लाहौर जाने के लिए 56 सालों का इंतज़ार करना पड़ेगा.
अपने बारे में बात करते हुए देवानंद ने बीबीसी को एक बार बताया था. 'मैंने लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज से अंग्रेज़ी में बीए ऑनर्स किया था. मैं मास्टर्स करना चाह रहा था लेकिन मेरे पिता की माली हालत ठीक नहीं थी. वो चाहते थे कि बैंक वगैरह में नौकरी कर लूँ. मैंने फ़्रंटियर मेल का थर्ड क्लास का टिकट ख़रीदा और बंबई पहुँच गया. मैं दो साल संघर्ष किया. 1945 में मैंने पहली फ़िल्म साइन की, जिसका नाम था हम एक हैं. मैं बिल्कुल ही नया था, लेकिन मेरे पास अक्ल थी, कॉलेज की पढ़ाई थी. मैं बहुत अच्छा बोलता था. लोग मुझसे मिल कर बहुत ख़ुश होते थे. हँसता था तो लोग पागल हो जाते थे. जब मुझे ब्रेक मिला तो फिर मैंने मुड़ कर नहीं देखा.''
गुरुदत्त से किया गया वादा
अपने गवर्नमेंट कॉलेज के दिनों में देवानंद हफ़ीज़ जलंधरी की ग़ज़ल अभी तो मैं जवान हूँ बहुत गुनगुनाया करते थे. देवानंद के निकट सहयोगी रहे मोहन चूड़ीवाला याद करते हैं, ''जब उन्होंने 1961 में फ़िल्म हम दोनों बनाई तो उन्होंने गीतकार साहिर लुधियानवी से फ़रमाइश की कि वो 'अभी तो मैं जवान हूँ' की तर्ज़ पर एक गीत लिखें. साहिर ने उसी मीटर में गाना लिखा 'अभी न जाओं छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं', जो बहुत लोकप्रिय हुआ.'
चूड़ीवाला बताते हैं, 'फ़िल्म जगत में देवानंद के सबसे शुरुआती और नज़दीकी दोस्त थे गुरुदत्त. एक दिन उन्होंने देव से वादा किया अगर मैं निर्देशक बनता हूँ तो तुम मेरे पहले हीरो होगे. देवानंद ने भी उतनी ही शिद्दत से जवाब दिया कि अगर मैं कोई फ़िल्म प्रोड्यूस करूँगा तो उसके डायरेक्टर आप ही होंगें. देवानंद को अपना ये वादा याद रहा और जब नवकेतन फ़िल्म्स ने बाज़ी बनाने का फ़ैसला किया तो निर्देशन की ज़िम्मेदारी उन्होंने गुरुदत्त को दी. '
ललितमोहन जोशी बताते हैं, अगर आप बाज़ी देखें तो आपको अंदाज़ा होगा कि उन्होंने उस फ़िल्म के लिए कैसे लोगों को चुना. गुरुदत्त का ये पहला डायरेक्शन था. बलराज साहनी ने उसकी स्क्रिप्ट लिखी थी. उसमें साहिर लुधियानवी आए. एस डी बर्मन आए, ज़ोहरा सहगल आईं. देवानंद का एक विजन था. वो कल्पना कर सकते थे कि एक बड़ी फ़िल्म किस तरह बनाई जा सकती है.'
सुरैया से इश्क़
देवानंद और सुरैया का इश्क़ बॉलिवुड की सबसे शानदार प्रेम कहानियों में से एक है. देवानंद ने इसे याद करते हुए बीबीसी को बताया था, 'पहले ही दिन से हम दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे थे. वो बहुत बड़ी स्टार थीं. उनके पास बड़ी बड़ी गाड़ियाँ थीं ... कैडलक थी, लिंकन थी और मैं पैदल जाता था. मैं युवा था. बहुत प्रेजेंटेबिल था और मुझमें बहुत आत्मविश्वास था. हमारी दोस्ती बढ़ती चली गई.'
लेकिन ये दोस्ती शादी के मुक़ाम तक नहीं पहुँच सकी. देवानंद ने बंबई के ज़वेरी बाज़ार से सुरैया के लिए हीरे की एक अंगूठी ख़रीदी. लेकिन सुरैया की नानी बादशाह बेगम को ये रिश्ता रास नहीं आया.
मशहूर फ़िल्म इतिहासकार राजू भारतन अपनी किताब 'अ जर्नी डाउन मेलोडी लेन' में लिखते हैं, 'सुरैया मुझे मरीन ड्राइव पर अपने घर कृष्ण महल की बालकनी पर ले गईं और मुझे उन्होंने बताया कि किस तरह उनकी नानी ने देवानंद की दी गई अंगूठी को मेरीन ड्राइव के समुद्र में फेंक दिया था.'
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लेकिन देवानंद ने अपनी आत्मकथा 'रोमाँसिंग विद लाइफ़' में इसका कुछ दूसरा ही विवरण देते हुए लिखा, 'सुरैया मेरी भेजी हुई अंगूठी समुद्र के सामने ले गईं. उसे आख़िरी बार प्यार से देखा और उसे दूर समुद्र की लहरों में फेंक दिया.'
समय से कहीं आगे थी गाइड
देवानंद के करियर का पीक था गाइड फ़िल्म. आरके नारायण के उपन्यास पर बनाई गई इस फ़िल्म को पूरी दुनिया में क्रिटिकल एक्लेम मिला और उसे ऑस्कर पुरस्कार के लिए भारत की तरफ़ से भेजा गया.
मोहन चूड़ीवाला बताते हैं, 'गाइड को देव साहब ने दो भाषाओं में बनाया था. पहले उन्होंने इसे निर्देशित करने की ज़िम्मेदारी अपने बड़े भाई चेतन आनंद को देनी चाही. लेकिन वो उन दिनों हक़ीक़त बना रहे थे. फिर उन्होंने राज खोसला को बतौर डायरेक्टर लेना चाहा. लेकिन उनके और वहीदा रहमान के बीच कुछ समस्या थी इसलिए वो विचार भी त्यागना पड़ा.'
चूड़ीवाला बताते हैं, ''आख़िर में उन्होंने इसके लिए अपने छोटे भाई गोल्डी आनंद को चुना. उन्होंने कहा कि इस कहानी को फिर से लिखना पड़ेगा, क्योंकि इस फ़िल्म का विषय विवाहेत्तर संबंध था. उन्होंने इस स्क्रिप्ट को नए सिरे से लिखा. उसको बनाया, जिसका अंत नारायण की किताब से भिन्न था. वो पिक्चर अपने समय से कहीं आगे थी. बार-बार देखने के बाद लोगों की समझ में आया कि देव साब इस फ़िल्म में कहना क्या चाहते हैं.'
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वहीदा रहमान ने हमेशा कहा कि इससे बढ़िया उनको कोई फ़िल्म नहीं है. शुरू में आर के नारायण साहब भी इस फ़िल्म के फ़िल्माँकन को लेकर नाराज़ थे लेकिन जब उन्हें ये फ़िल्म दिखाई गई तो वो बहुत गदगद हुए. उन्होंने कहा तुमने मेरी कहानी को बदला ज़रूर है लेकिन ये भी अपनेआप में एक कृति है.
देव साहब कहने पर आपत्ति
वहीदा रहमान ने अपनी पहली फ़िल्म सीआईडी में देवानंद के साथ काम किया था. दोनों ने कुल सात फ़िल्मों में काम किया. वहीदा रहमान ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था. 'उन्होंने मुझसे कहा वहीदा तुम मुझे सिर्फ़ देव कहोगी. मैंने कहा ऐसे कैसे हो सकता है?''
''आप मुझसे बड़े हैं, इतने सीनियर हैं, इतने बड़े स्टार हैं. उन्होंने कहा मैं अपनी लीडिंग लेडीज़ के साथ काम नहीं कर सकता अगर वो मुझे साहब, मिस्टर आनंद कह कर पुकारें. लेकिन मेरी आदत थी कि जब भी मैं सेट पर जाती थी उनसे गुड मॉर्निंग मिस्टर आनंद कहती थी. वो इधरउधर देखने लगते थे और पूछते थे कौन है वो ? मैं कहती थी मैं आपसे बात कर रही हूँ. वो कहते थे कि मैं तो देव हूँ. कुछ दिनों बाद मुझे भी उन्हें देव कहने की आदत पड़ गई.''
अनेक प्रतिभाओं की खोज
देवानंद ने भारतीय फ़िल्म उद्योग को बेमिसाल टैलेंट दिए. शत्रुघ्न सिन्हा, जैकी श्रॉफ़, टीना मुनीम, तब्बू और ज़ीनत अमान सबको देवानंद ने ही इंट्रोड्यूस किया.
ललितमोहन जोशी कहते हैं, 'इसके लिए ज़िम्मेदार था उनके अंदर प्रयोग करने और लीक से हटकर चलने का माद्दा. वो ड्रग्स पर एक फ़िल्म बनाना चाहते थे हरे रामा हरे कृष्णा. उसके लिए वो कभी लंदन जाते थे तो कभी नेपाल तो कभी दिल्ली. उनमें एक जिज्ञासा थी. वो अपने विषय पर अपना वक्त बहुत ज़ाया करते थे. पहली बार उन्होंने जब ज़ीनत को किसी पार्टी में देखा तो वो सिगरेट पी रही थीं. जब देव साहब ने उन्हें जा कर हलो कहा तो उन्होंने भी हलो कहा और उन्हें सिगरेट ऑफ़र की. देव साहब ने बताया कि जब उन्होंने ज़ीनत अमान को पहली बार देखा तभी उन्हें लग गया कि ये लड़की उनकी फ़िल्म में काम करेगी.'
ज़ीनत अमान पर भी दिल आया
बाद में देवानंद का ज़ीनत अमान पर दिल आ गया था. उन्होंने अपनी आत्मकथा 'रोमाँसिंग विद लाइफ़' में लिखा था, 'एक दिन मैंने महसूस किया कि मुझे ज़ीनत से इश्क हो गया है. मैंने उसे ये बताने के लिए ताजहोटल के 'रेनडावू' रेस्तराँ में एक टेबिल बुक कराई. उससे पहले हमें साथ साथ एक पार्टी में जाना था. वहाँ सबसे पहले ज़ीनत का स्वागत किया शराब के नशे में चूर राज कपूर ने.
ज़ीनत ने झुक कर उनके पैर छूने की कोशिश की. लेकिन मुझे लग गया कि उन दोनों के बीच कुछ ज़्यादा ही नज़दीकियाँ हैं. राज ने मेरे ही सामने ज़ीनत को उलाहना दिया, 'तुमने हमेशा सफ़ेद कपड़े पहनने का अपना वादा नहीं निभाया.'
उसके बाद से ही मेरे लिए ज़ीनत पहले वाली ज़ीनत नहीं रह गईं. मैंने ज़ीनत से कहा तुम एनजॉय करो. मैं निकल रहा हूँ. ज़ीनत ने कहा, हमें तो कहीं और जाना था. मैंने कहा कोई बात नहीं. मैं वहाँ से उठा और बाहर निकल आया.' इसके बाद देवानंद ने ज़ीनत अमान की तरफ़ कभी नहीं देखा.
देवानंद की नेहरू से मुलाक़ात
1947 के बाद हिंदी फ़िल्मों पर तीन अभिनेता छाए रहे. राज कपूर, ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार और रोमाँस और लोगों के दिल पर राज करने वाले देवानंद. दिलचस्प बात ये थी कि उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक बार तीनों को अपने यहाँ बुलाया.
देवानंद ने अपनी आत्मकथा रोमाँसिंग विद लाइफ़ में लिखा, 'जब हम उनकी स्टडी में पहुंचे तो नेहरू ने हम तीनों को गले लगाया. वो बीमार चल रहे थे लेकिन थोड़ी ही देर में मूड में आ गए. राज कपूर ने इसका फ़ायदा उठाते हुए सवाल दागा, 'पंडितजी हमने सुना है आप जहाँ भी जाते थे औरतें आपके पीछे भागा करती थीं.'
नेहरू ने अपनी मशहूर मुस्कान बिखेरते हुए कहा 'मैं इतना लोकप्रिय नहीं था जितने तुम लोग हो.' मैंने भी पूछ ही डाला 'आपकी ग़ज़ब की मुस्कान ने लेडी माउंटबेटन का दिल जीत लिया था. क्या यह सही बात है?'
नेहरू का चेहरा लाल हो गया लेकिन उन्होंने मेरे सवाल का आनंद उठाया और हँसते हुए कहा, 'अपने बारे में कही गई इन कहानियों को सुन कर मुझे मज़ा आता है.'
बीच में दिलीप बोले, 'लेकिन लेडी माउंटबेटन ने खुद स्वीकार किया था कि आप उनकी कमज़ोरी थे.' नेहरू ने ठहाका लगाते हुए कहा कि 'लोग चाहते हैं कि मैं इन कहानियों पर यकीन कर लूँ.''
देव पसंद करते थे 4711 कोलोन
भारत के मशहूर शेयर मार्केट विशेषज्ञ मोहन चूड़ीवाला देवानंद के बहुत करीब थे. मोहन चूड़ीवाला बताते हैं, 'मैंने अपने शयनकक्ष में देवानंद की एक बड़ी तस्वीर लगा रखी है. मैं इसके सामने मत्था टेक कर अपने काम पर निकलता हूँ. मेरे शयनकक्ष में रखे कुशन पर भी देवानंद की तस्वीर बनी हुई है. देवानंद के देहाँत से कुछ दिनों पहले मैंने उनके लिए उनका पसंदीदा पर्फ़्यूम 4711 ख़रीदा था. वो कोलोन उन्हें बेहद पसंद था.'
चूड़ीवाला याद करते हैं, 'एक बार हम दोनों किंगफ़िशर एयरलाइंस से लंदन जा रहे थे. उनके फ़र्स्ट क्लास के टॉयलेट में 4711 कोलोन रखा हुआ था. देव साहब उसे देख कर बहुत खुश हुए. मैंने उनसे कहा कि क्या मैं एयरहोस्टेस से पूछूँ कि क्या हम वो कोलोन खरीद सकते हैं?
देव आनंद ने कहा नहीं नहीं बुरा लगेगा. हम इसे खरीद लेंगे लंदन में. लेकिन लंदन में वो कोलोन बहुत ढ़ूढ़ने पर भी नहीं मिला. मैंने मुंबई आने के बाद उनके लिए वो कोलोन किसी से मँगवाया था. इससे पहले कि मैं उसे उन्हें दे पाता, वो इस दुनिया से चल बसे. मैंने आज तक वो कोलोन उनकी याद में अपने पास रखा हुआ है. उसका ढ़क्कन तक मैंने नहीं खोला है आज तक.'
वैसे उनको पोलो ग्रीन पर्फ़्यूम भी बहुत पसंद था. मेरे पास उनकी टोपी, स्कार्फ़, जैकेट, कलाई घड़ी, मोबाइल और उनका कलम सब सुरक्षित रखा हुआ है. मैंने उनकी पुरानी कार फ़ोर्ड आइकॉन 524 भी खरीद ली थी. वो बहुत पुरानी हो चुकी है लेकिन मेरे लिए उसका अभी भी भावनात्मक महत्व है.
मेरे पास वो कार अभी भी मिंट कंडीशन में रखी हुई है. वो गाड़ी मेरे लिए मंदिर है. मैं जब भी उसमें बैठता हूँ मुझे उसमें उनकी फ़ील आती है. जब मैंने अपनी नई मर्सिडीज़ कार ख़रीदी तो सबसे पहले मैंने उसके ग्लव बॉक्स में देवानंद की टोपी रखी. मेरी हर कार में उनकी आत्मकथा 'रोमाँसिंग विद लाइफ़' की एक प्रति रखी हुई है.'
फ़िटनेस फ़्रीक देवानंद
देवानंद अपने स्वास्थ्य का बहुत ध्यान रखते थे. एक ज़माने में बीबीसी के लिए काम कर चुके संजीव श्रीवास्तव ने मुझे बताया था कि एक बार देव साहब इंटरव्यू देने मुंबई के उनके घर पर आए थे और 76 साल की उम्र मे भी नवीँ मंज़िल पर उनके फ़्लैट तक पहुंचने के लिए उन्होंने लिफ़्ट नहीं बल्कि सीढ़ियों का इस्तेमाल किया था.
मोहन चूड़ीवाला बताते हैं, 'डॉक्टर कहा करते थे कि देवानंद की स्वास्थ्य रिपोर्ट को फ़्रेम में जड़वा कर रखना चाहिए. वो दिन भर में 11 गिलास कुनकुना पानी पिया करते थे. नाश्ता हैवी करते थे. उसमें दलिया होता था. चाय में थोड़ा शहद मिलाते थे. कभी ऑमलेट खा लेते थे. लेकिन लंच स्किप कर देते थे. डिनर के बाद वो थोड़ी देर टहला करते थे. वो वेजेटेरियन ज़्यादा पसंद करते थे और उन्हें बैंगन का भर्ता बहुत पसंद था. वो न तो शराब पीते थे और न ही सिगरेट.'
चूड़ीवाला बताते हैं, 'बंबई की टेलिफ़ोन डायरेक्टरी में अभिनेताओं के नाम और नंबर दर्ज नहीं होते थे. लेकिन देव साब का नाम ज़रूर होता था ए अक्षर की केटेगरी में, आनंद देव, 2 आएरिस पार्क जुहू, बंबई और उनका नंबर लिखा रहता था. वो अपना फ़ोन खुद उठाते थे.
कोई ऑपरेटर या सचिव ये सवाल नहीं करता था कि क्या काम है ? इसका कारण वो ये बताते थे कि वो ये जानना चाहते थे कि उनसे कौन कौन संपर्क करना चाहता है. वो सालगिरह पर उम्र बताने के सख्त ख़िलाफ़ थे और कहा करते थे 'एजिंग इज़ अ स्टेट ऑफ़ माइंड.' अपने जीवन के अंत तक उन्होंने रोज़ 18 घंटे काम किया.'
नवाज़ शरीफ़ से दोस्ती
नेपाल के महाराजा महेंद्र, भारत के पूर्व रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ देवानंद के करीबी दोस्त थे. उनसे उनकी पहली मुलाकात तब हुई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी उन्हें अपने साथ बस में बैठा कर लाहौर ले गए थे.
बस यात्रा शुरू होने से पहले वाजपेयी ने नवाज़ शरीफ़ से पूछा था कि वो उनके लिए भारत से क्या लाएं तो उन्होंने जवाब दिया था कि बस देवानंद को अपने साथ लेते आइए. बाद में जब देवानंद लंदन जाते थे तो नवाज़ शरीफ़ भी उनसे मिलने वहाँ पहुंच जाते थे.
मोहन चूड़ीवाला याद करते हैं, ''नवाज़ शरीफ़ का हाइड पार्क में अपना एक विला हुआ करता था. वहाँ पर वो देवसाब को भोज पर बुलाते थे. वो मुझसे पूछते थे कि 'आज आप लोगों ने क्या किया?' जब मैं उन्हें बताता था कि हमने हैरड्स में हॉट चॉकलेट पी तो वो कहते थे, 'दोबारा मुझे वहाँ ले चलो देव साब के साथ.' जब हम उनके यहाँ खाना खाने गए तो उनकी पत्नी कुलसुम तब जीवित थीं. उन्होंने खाने की मेज़ पर नवाज साहब से पूछा क्या मैं देव साब को आपकी एक हरकत बताऊँ?
नवाज़ शरीफ़ ऐसा करने के लिए उन्हें मना करने लगे. जब मैंने इसरार किया तो उन्होंने बताया कि सीआईडी फ़िल्म का जो डीवीडी है हमारे पास उसे मियाँ साहब ने ख़राब कर दिया है. जब भी वो गाना आता है 'लेके पहला पहला प्यार' गाना आता है और जिस अंदाज़ में देव साब घूमते हैं, वो इसे स्लो मोशन में बार बार देखते हैं.'
हुसैन ने देव का चित्र बनाया
देव साहब एमएफ़ हुसैन को भी बहुत पसंद करते थे. एक बार उन्होंने 15 मिनट में दफ़्तर की कुर्सी पर पसरे हुए देवानंद का स्केच बनाकर उन्हें भेंट किया था. मोहन चूड़ीवाला याद करते हैं, एक बार फिल्मफ़ेयर अवार्ड्स समारोह के लिए देव साहब के पास एक निमंत्रण आया जिस पर हुसैन साहब द्वारा बनाया गया एक चित्र छपा हुआ था. उसको देख कर उन्हें हुसैन साहब की याद आ गई.
उन्होंने उन्हें उसी समय फ़ोन कर कहा कि हुसैन साब, आपकी याद आ रही है. आपके हाथ चूमने का जी चाह रहा है. हुसैन साब उसी रात इंदौर से सिर्फ़ देवानंद से मिलने मुंबई आए थे और उनसे मिल कर उसी रात इंदौर वापस चले गए थे.'
महिलाओं के बीच बहुत लोकप्रिय
देवानंद के भीतर की ज़िदादिली ने उन्हें कभी बूढ़ा नहीं होने दिया. ललित मोहन जोशी कहते हैं, 'दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद ये तीनों अपनेआप में अलगअलग शख़्सियत थीं. दिलीप कुमार के अभिनय में बड़ी गंभीरता थी, बड़ी गहराई थी. एक समय में एक ही फ़िल्म में काम करते थे. राजकपूर ने पहली बार भारतीय फ़िल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर दिया. पर घर घर में जो इंसान लोकप्रिय हुआ, वो देवानंद था.'
'मेरी जो बुआ थी जिनके यहाँ रह कर मैं लखनऊ में पढ़ा वो मेरी माँ के बराबर थीं लेकिन उन्होंने मुझसे स्वीकार किया था कि उन्होंने देवानंद को फ़ैंसी किया था. हमारी उम्र की लड़कियाँ भी देवानंद की मुरीद थीं और उसके बाद की पीढ़ी में भी उनके प्रशंसक कम नहीं थे. जो तादात्म देवानंद का था, मैं नहीं समझता कि वो दिलीप कुमार या राज कपूर में था. ये दोनों महान कलाकार थे लेकिन देवानंद का आडेंटिफ़िकेशन एक आम आदमी से था. इसीलिए एक पागलपन की हद तक लोग उन्हें पसंद करते थे, ख़ासतौर से महिलाएं.'
दूसरी चीज़ उनकी फ़िल्मों की थीम शहरी थीम होती थीं जैसे काला बाज़ार ब्लैक मार्केटिंग पर थी, तेरे मेरे सपने डॉक्टरी के पेशे पर थी कि डॉक्टर लोग गाँव में क्यों नहीं जाना चाहते. देस परदेस प्रवासी भारतियों की समस्या पर बनाई गई थी. वो हमेशा एक आइडिया ले कर चले. उनका जो आभामंडल था वो कम से कम चालीस साल तक छाया रहा सिनेमा प्रेमियों के बीच.
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