बिहार चुनाव: मुसलमान क्या लालू को छोड़ ओवैसी के साथ आएंगे?
ओवैसी उपेंद्र कुशवाहा और मायावती की बीएसपी के साथ बिहार विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से मैदान में हैं.
बिहार में मुसलमान 16.87 फ़ीसदी हैं. इस लिहाज़ से बिहार की चुनावी राजनीति में मुस्लिम समुदाय की ख़ासी अहमियत है.
हालांकि, बिहार में मुसलमानों की आबादी बिखरी हुई है. लेकिन कुछ ऐसे इलाक़े भी हैं जहां इनका मत तय करता है कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा.
भारत की चुनावी राजनीति में धर्म के नाम पर गोलबंदी चुनाव जीतने का कारगर हथियार माना जाता है लेकिन इसे लोकतंत्र की बुराई के तौर पर भी देखा जाता है.
मु्सलमानों के बारे में कहा जाता है कि दक्षिणपंथी पार्टी बीजेपी के कारण वो अपनी सुरक्षा और प्रतिनिधित्व को लेकर चिंतित रहते हैं इसलिए मतदान मुख्य तौर पर किसी एक पार्टी के पक्ष में करते हैं.
हैदराबाद के लोकसभा सांसद असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) बिहार विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से मैदान में है.
इस बार ओवैसी ने उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, मायावती की बहुजन समाज पार्टी, सामाजिक जनता दल (डेमोक्रेटिक), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और जनतांत्रिक पार्टी (समाजवादी) के साथ 'महागठबंधन धर्मनिरपेक्ष मोर्चा' बनाया है. सबसे दिलचस्प है कि ओवैसी ने उपेंद्र कुशवाहा को अपने गठबंधन का मुख्यमंत्री उम्मीदवार स्वीकार किया है.
कुशवाहा 2014 की मोदी सरकार में मंत्री थे और उन्होंने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था.
कुशवाहा सीएम उम्मीदवार क्यों?
मोदी कैबिनेट के पूर्व मंत्री को आपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश किया है क्या अब वो सेक्युलर हो गए? असदउद्दीन ओवैसी से ये सवाल पूछने पर उन्होंने कहा, ''हमारे गठबंधन ने तय किया है कि कुशवाहा साहब उम्मीदवार होंगे. जहां तक सेक्युलर होने की बात है तो कल तक तो वो आरजेडी में थे. आरजेडी में थे तो क्या थे वो?''
''जब वो आरजेडी में थे और लोकसभा का चुनाव लड़े तब तो यह सवाल नहीं उठा. अब मुझसे सवाल पूछ रहे हैं. जब वो आरजेडी में थे तो दूध के धुले हुए थे और अब जब मेरे साथ हैं तो सेक्युलर पॉलिटिक्स के सारे सवाल मेरे पाले में आ जाते हैं. हम अपनी धर्मनिरेपक्षता की लाइन ख़ुद तय करेंगे. हमारे गठबंधन के वो उम्मीदवार हैं.''
बिहार में यादव 14 फ़ीसदी के आसपास हैं और कुर्मी चार फ़ीसदी के क़रीब. लालू यादव और उनके परिवार का बिहार में 15 सालों तक शासन रहा और नीतीश कुमार पिछले 15 सालों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं. नीतीश कुमार जाति से कुर्मी हैं.
14 फ़ीसदी और चार फ़ीसदी वाले बिहार की सत्ता में 30 सालों तक शासन कर सकते हैं और उससे पहले सामान्य वर्ग की जातियों का भी दबदबा रहा, तो आपने बिहार में लगभग 17 फ़ीसदी वाले मुसलमानों में से किसी को सीएम उम्मीदवार न बनाकर छह फ़ीसदी वाले कुशवाहा को उम्मीदवार क्यों बनाया?
इस सवाल के जवाब में ओवैसी कहते हैं, ''वो दिन भी आएगा जब मुसलमान को सीएम उम्मीदवार बनाएंगे. अभी तो नेतृत्व पैदा करने की ज़रूरत है. जब हमारी पार्टी के नेता जीतेंगे तो एक प्लेटफ़ॉर्म मिलेगा और यहीं से सफ़र शुरू होगा. हम वही कर रहे हैं. ग्रासरूट से हम नेतृत्व पैदा करने जा रहे हैं. बिहार में हम प्रयोग कर रहे हैं. हम सबने बैठकर अभी तय किया है कि कुशवाहा साहब सीएम कैंडिडेट होंगे.''
यादव और मुस्लिम गठजोड़ की कोशिश
ओवैसी ने उपेंद्र कुशवाहा को मुख्यमंत्री उम्मीदवार क्यों स्वीकार किया? आख़िर इसके पीछे की रणनीति क्या है? पटना में प्रभात ख़बर के स्थानीय संपादक अजय कुमार कहते हैं, ''पहला टारगेट तो यही है कि मुसलमानों और यादवों के राजनीतिक गठजोड़ को तोड़ा जाए. बिना इसे तोड़े कोई तीसरा खिलाड़ी आ नहीं सकता है. बिहार में लालू की राजनीति की एक निरंतरता है कि उन्होंने बीजेपी से गठबंधन नहीं किया.''
अजय कुमार कहते हैं, ''लालू की जो बीजेपी विरोधी राजनीति है उसके सामने कोई टिक नहीं पाता है. ओवैसी को पता है कि उन्होंने एमवाई समीकरण नहीं तोड़ा तो अपनी मौजूदगी सुनिश्चित नहीं कर पाएंगे. बिहार के मुसलमान ओवैसी को जगह दे पाएंगे, यह भी सबसे बड़ा सवाल है. बिहार के मुसलमानों ने मुस्लिम लीग की राजनीति को ख़ारिज कर दिया था. ओवैसी की राजनीति को शायद ही बिहार के मुसलमान स्वीकार कर पाएंगे.''
बिहार की राजनीति अभी तक दो ध्रुवीय है. एक लालू प्रसाद की पार्टी आरजेडी के नेतृत्व वाला गठबंधन और दूसरा नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला एनडीए. बीजेपी के लिए नीतीश के बिना चुनाव जीतना अब भी आसान नहीं है. 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार लालू यादव के साथ चले गए तो बीजेपी और उसके सहयोगी दल 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में महज़ 58 सीटों पर सिमटकर रह गए.
वहीं, आरजेडी-जेडीयू और कांग्रेस के गठजोड़ को 41.9 फ़ीसद मतों के साथ 178 सीटों पर जीत मिली. वहीं भाजपा और सहयोगी दलों को 34.1 फ़ीसद ही वोट मिले. ऐसा तब हुआ जब बीजेपी ने बिहार में एक साल पहले ही लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन किया था और वो भी बिना नीतीश कुमार के साथ आए.
तब पीएम मोदी की लोकप्रियता भी चरम पर थी. बीजेपी को ये हक़ीक़त पता है कि बिना नीतीश कुमार के बिहार विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करना टेढ़ी खीर है.
क्या ओवैसी जगह बना पाएंगे
बिहार की दो ध्रुवीय राजनीति में क्या ओवैसी जगह बना पाएंगे? पटना के वरिष्ठ पत्रकार फ़ैज़ान अहमद कहते हैं, ''बीजेपी विरोधी वोट को ओवैसी धर्म के नाम पर लामबंद नहीं कर सकते हैं. उनके साथ सेक्युलर वोट नहीं जाएगा क्योंकि वो सेक्युलर राजनीति करते भी नहीं हैं. ये ज़रूर है कि मुस्लिम युवाओं में ओवैसी को लेकर हलचल है लेकिन यह हलचल ओवैसी के मुसलमान होने के कारण ही है न कि उनकी कोई सेक्युलर विश्वसनीयता है. कुशवाहा को सीएम उम्मीदवार बनाने से बहुत कुछ हासिल नहीं होगा. एमवाई समीकरण अब भी उतना कमज़ोर नहीं हुआ है कि ओवैसी उसमें सेंध लगा दें.''
ओवैसी के निशाने पर बिहार के मुसलमानों की घनी आबादी वाले ज़िले हैं. इसीलिए उनका पूरा ध्यान सीमांचल पर ही है. हालांकि, कुछ लोग ये भी कहते हैं कि ओवौसी की पार्टी किशनगंज में पिछले साल अक्टूबर में विधानसभा सीट के उपचुनाव में इसलिए एक सीट जीत पाई क्योंकि वहां सुरजापुरी मुसलमान बड़ी तादाद में हैं.
ओवैसी की पार्टी के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अख़्तरुल ईमान इसी बिरादरी के मुसलमान हैं और किशनगंज में इनकी तादाद 45 फ़ीसद है. हालांकि, ओवैसी इस बात को ख़ारिज करते हैं और कहते हैं कि उनके साथ बाक़ी के बिरदारी के भी मुसलमान हैं.
2011 की जनगणना के अनुसार बिहार के किशनगंज में 67.98, पूर्णिया में 38.46, कटिहार में 44.47 और अररिया में 42.95 फ़ीसद मुसलमान हैं. ओवैसी का पूरा ध्यान इन्हीं इलाक़ों पर है.
ओवैसी कहते हैं कि वो सीमांचल से बाहर भी बिहार में पार्टी और संगठन पर ध्यान देंगे लेकिन वो अपनी जड़ें पहले इन्हीं इलाक़ों में मज़बूत करना चाहते हैं.
बिहार के मुसलमान और ओवैसी
क्या बिहार में ओवैसी मुसलमानों के बीच लालू की तरह लोकप्रिय हो पाएंगे? एनएन सिन्हा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, ''उपचुनाव में भले ही ओवैसी का उम्मीदवार जीत गया था लेकिन लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी बुरी तरह से नाकाम रही. बिहार में अल्पसंख्यक वोट एंटी बीजेपी के तौर पर लामबंद होता है और ये जीतने वाले के पक्ष में होता है. ऐसे में अल्पसंख्यकों का वोट ओवैसी के साथ क्यों जाएगा?''
डीएम दिवाकर कहते हैं, ''ओवैसी के साथ वो लोग हैं जिन्हें एनडीए या लालू के ख़ेमे में जगह नहीं मिली. देवेंद्र यादव समाजवादी पार्टी में थे और कुशवाहा एनडीए के अलावा आरजेडी के साथ भी रहे. यादव का मतलब होता है लालू यादव और ठीक उसी तरह मुसलमानों को भी लालू से बड़ा अपना कोई नेता नहीं दिखता क्योंकि नीतीश कुमार ने सीएए और बाबरी मस्जिद पर कोई स्टैंड नहीं लिया. उत्तर भारत में एंटी बीजेपी राजनीति में लालू से बड़ा कोई चेहरा अब भी नहीं है.''
एक बात यह भी कही जा रही है कि ओवैसी ने जिन लोगों से गठबंधन किया है उनके विधायक चुनाव के बाद कहीं भी पाला बदलकर जा सकते हैं.
आरजेडी के एक नेता ने कहा कि कुशवाहा और मुकेश सहनी की पार्टी से इसीलिए गठबंधन नहीं किया गया क्योंकि इस मामले में इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. उन्होंने कहा कि कम से कम कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के विधायकों को बीजेपी नहीं तोड़ पाएगी. आरजेडी का चुनावी गठबंधन प्री पोल से ज़्यादा पोस्ट पोल को ध्यान में रखकर किया गया है.
पिछले साल नवंबर में झारखंड में हुए विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी बुरी तरह से नाकाम रही थी. एआईएमआईएम ने झारखंड में 14 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे. इन 14 सीटों में डुमरी एकमात्र सीट थी जहां ओवैसी के उम्मीदवार को सबसे ज़्यादा 24 हज़ार 132 वोट मिले थे. दिलचस्प है कि जिस डुमरी सीट से ओवैसी के उम्मीदवार को सबसे ज़्यादा वोट मिले वहां जीत बीजेपी को नहीं बल्कि जेएमएम के जगन्नाथ महतो को जीत मिली थी.
झारखंड की कोई भी ऐसी सीट नहीं थी, जहां से जेएमएम, कांग्रेस और आरजेडी प्रत्याशी को ओवैसी की पार्टी के कारण हार का सामना करना पड़ा. झारखंड में भी मुसलमान 15 फ़ीसद हैं लेकिन ओवैसी मुसलमानों को कांग्रेस, जेएमएम और आरजेडी से अलग कर अपनी तरफ़ लाने में नाकाम रहे थे.