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नीतीश कुमार की राजनीति के आगे बेबस भाजपा

By अंकुर शर्मा
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पिछले कुछ महीने से बिहार और झारखंड में भाजपा की हर चाल उल्टी पड़ गई है। उसका अपने आप को सर्वे सर्वा समझना उसे खुद भारी पड़ गया है। झारंखंड में शोरेन की जिद के आगे भाजपा की अकड़ किसी काम नहीं आयी तो वहीं बिहार में भी नीतीश के आगे भी वो बेबस ही नजर आ रही है।

मोदी और वरूण के सहारे भाजपा की आगे बढ़ने की ख्वाहिश को लगता है अब सेंध लगने वाली है क्योंकि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो कि इन दिनों भाजपा से बेहद खफा चल रहे हैं उन्होंने भाजपा के आगे ये शर्त रखकर की बिहार में गठबंधन बचाया जा सकता है, अगर नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी जैसे नेता को विधानसभा चुनाव के प्रचार से दूर रखा जाये ,जिस के बाद बीजेपी खेमे में खामोशी का माहौल है क्योंकि इन्ही दो चेहरों के बूते ही भाजपा अपने अस्तित्व को बचाने में जुटी हैं।

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नीतीश की से शर्त बेवजह नहीं है। वो एक कुशल राजनीतिज्ञ हैं, उन्हें ये पता है कि राजनीति में कौन सी चाल उन पर भारी पड़ सकती हैं। इसलिए वो नहीं चाहते कि बिहार के मुसलमानों को रिझाने की उनकी कोशिश पर प्रखर हिंदुत्व छवि वाले मोदी और वरुण जैसे नेताओं के प्रचार का उलटा असर पड़े। ऐसे में भाजपा नेतृत्व एक तरफ नीतीश कुमार की सेक्युलर छवि की कोशिश, तो दूसरी ओर अपने लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी का साथ देने की दुविधा के बीच फंसी है।

भाजपा न तो अपने लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी से दूरी बना सकती है और न ही बिहार में लालू यादव को दोबारा सत्ता में आने का मौका देना चाहती हैं ऐसे में भाजपा के सामने कोई विकल्प नहीं बचता है इसलिए उसे बेबस होकर नीतीश के आगे झुकना ही पड़ेगा। क्योंकि मरता क्या नहीं करता है, उसी तर्ज पर भाजपा को ये विष का धूंट पीना पड़ेगा। गडकरी से कोई करिश्माई उम्मीद तो की नहीं जा सकती है, और बीजेपी भले ही मीडिया के सामने नीतीश की बात पर पर्दा डाले पर हकीकत यही है कि नीतीश का पलड़ा भारी है। फिलहाल आसार और हालात दोनों ये ही कह रहे कि भाजपा नीतीश के आगे बेबस है।

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राजनीति के मंच पर अगर आपको सत्ता की चाहत है तो कुछ फैसले आपको समझौतों के तहत करने ही पड़ते हैं और भाजपा वो ही कर रही है। विधान सभा चुनाव में अगर भाजपा सफलता चाहती है तो उसे ऐसा ही कुछ समझौता करना पड़ेगा। फिलहाल समीकरण ये ही दर्शा रहे हैं, ऐसे में कहा जा सकता है कि दिल मिले न मिले, हाथ मिलाना पड़ेगा।

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