शुक्र है शुरु तो हुई भारत-पाक वार्ता!
7 सितंबर के आतंकवादी हमले
पाकिस्तानी चिंता का कारण यह था कि सभी आतंकी पाकिस्तानी थे और उन संगठनों का हिस्सा थे जिनको कभी न कभी पाकिस्तानी सरकार का आशीर्वाद प्राप्त था। अमरीकी प्रशासन में 7 सितंबर के आतंकवादी हमलों की याद की वजह से दहशत फैल गई क्योंकि अलकायदा, तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा आदि तरह-तरह के नामों से चलाए जा रहे संगठनों को शुरू करने में पाकिस्तानी जमीन और अमरीकी पैसे का इस्तेमाल हुआ है।
अफगानिस्तान से रूसियों को भगाने के नाम पर पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल ज़िया-उल-हक़ ने भारी रक़म ऐंठी थी। यह सिलसिला वर्षों चला और अफगानिस्तान के लिए जो संगठन बनाए गए थे, उनका इस्तेमाल जनरल जिया, बेनजीर भुट्टो, नवाज शरीफ और परवेज मुशर्रफ ने भारत के खिलाफ भी किया। अब यह जग-जाहिर है कि आतंक को सरकारी नीति बना कर पाकिस्तान ने अपने ही उपसंहार की शुरूआत कर दिया है। पाकिस्तान की जमीन से आतंकवाद की राजनीति कर रही जमातों पर अब पाकिस्तानी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का कोई कंट्रोल नहीं है। हो सकता है कि पाकिस्तानी आतंकवादी आईएसआई और फौज की कुछ बातें मानते हों, लेकिन उनकी गतिविधियों पर काबू करने के लिए फौज को वही करना पड़ेगा। जो स्वात घाटी और सूबा सरहद में करना पड़ रहा है।
मुंबई हमलों के बाद की तस्वीर
26 नवंबर के पहले भारत और पाकिस्तान के बीच शांति स्थापित करने के लिए बाकायदा बातचीत चल रही थी। राजकाज के हर पहलू व्यापार, संस्कृति, साहित्य आदि के ज़रिए दोनों ही देशों के बीच सरकारी बात चल रही थी और गैर सरकारी स्तर पर भी प्रतिनिधि मंडलों का आना-जाना लगा हुआ था। 26 नवंबर के मुंबई हमले के बाद सब कुछ तबाह होता नजर आने लगा। भारत सरकार ने साफ कह दिया कि जब तक पाकिस्तान सरकार इस बात का बंदोबस्त नहीं कर लेती कि उसकी जमीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ हमला करने के लिए नहीं होगा, तब तक आगे की कोई बातचीत नहीं होगी। इसके बाद कंपोजिट डायलाग बंद कर दिया गया।
जहां तक भारत का सवाल है उसकी सोच बिल्कुल सही थी। जब पाकिस्तानी नागरिक, पाकिस्तानी जमीन से और संभवतया पाकिस्तानी हुकूमत के आशीर्वाद से भारत की आर्थिक राजधानी पर हमला करेंगे तो भारत को अपनी हिफाजत के लिए कुछ जरूरी कदम तो उठाने ही पड़ेंगे। जब आप पर हमला हो रहा हो तो आप बातचीत जारी नहीं रख सकते। हमले के साथ-साथ उसके कारणों को खत्म करना सबसे बड़ी प्राथमिकता रहेगी।
शांतिवार्ता रोकने में सफल रहे आतंकी
लेकिन इसका नतीजा ऐसा हुआ जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। पाकिस्तान में रहकर काम करने वाले आतंकवादियों का उद्देश्य था कि भारत और पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता को हर हाल में रोका जाय जिसमें वे सफल रहे। अजीब बात यह है कि इस मामले में भारत भी उसी पाले में खड़ा पाया गया जहां आतंकवादी खड़े थे।
भारत के राजनयिक बार-बार मांग कर रहे थे कि पाकिस्तान अपनी जमीन से आतंकवाद के बुनियादी ढांचे को खत्म करे तभी बात होगी। यह एक असंभव काम था। भारत समेत सारी दुनिया को मालूम है कि पाकिस्तान में आतंक इतना बड़ा हो चुका है कि उसको खत्म कर पाना बहुत ही मुश्किल है, कम से कम बिना अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के पाकिस्तान के लिए तो लगभग असंभव ही है।
दोबारा कैसे शुरु हई बातचीत
सबको मालूम है कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए बातचीत का रास्ता अनिवार्य है और भारत की मर्जी के खिलाफ कोई भी देश आतंकवाद के खात्मे के मसले पर पाकिस्तान का सहयोग नहीं कर सकता। इसलिए जरूरी था कि भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत की प्रक्रिया शुरू हो। भारत में भी यही सोचा जा रहा था कि बातचीत शुरू करने का कोई मौका मिले। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है उनकी तो मजबूरी है कि वह भारत के साथ शांति के विषय पर बात करते रहें तभी अमरीका से उनको खर्चा-पानी मिलेगा और अगर अमरीकी मदद बंद हो गई तो पाकिस्तान तबाह हो जायेगा।
भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत की प्रक्रिया को दुबारा शुरू करने का अवसर रूस के एकातरीनबर्ग शहर में मिला जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी शंघाई सहयोग संगठन की शिविर बैठक में शामिल होने के लिए पहुंचे। बातचीत की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, दोनों नेताओं के बीच मुलाकात हो चुकी है। जुलाई में मिस्र के शहर में फिर मुलाकात होगी, इस बीच दोनों ही देशों के विदेश सचिव मिलकर यह तय कर चुके होंगे कि बातचीत का एजेंडा क्या होगा। शुक्र है कि दोनों पड़ोसियों के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हो चुका है।
लीक से हटकर और दो-टूक
एक दिलचस्प बात और भारत के विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने कहा कि कहीं कोई डायलाग नहीं शुरू हुआ है। मेनन ने इस बारे में भविष्य की संभावनाओं पर बातचीत करने से भी इनकार कर दिया। भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को साफ बता दिया है कि आतंकवाद के अलावा किसी मुद्दे पर बातचीत नहीं होगी।
एकातरीनबर्ग में बहुत कुछ लीक से हटकर भी हुआ। रिवायत यह है कि जब दो देशों के बीच शिविर बैठक होती है तो दोनों नेताओं के बीच बातचीत शुरू होने के पहले मीडिया को अंदर आने दिया जाता है। इसे फोटो-ऑप कहते हैं। हाथ मिलाते, गले मिलते हंसते-मुस्कराते तस्वीरें खींची जाती हैं और फिर मीडिया के लोगों को बाहर कर दिया जाता है। लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ। डा. मनमोहन सिंह ने मीडिया के सामने ही बातचीत शुरू कर दी। बोले, 'मैं आपसे साफ बता देना चाहता हूं कि मैं आपसे केवल इस विषय पर बात करूंगा कि पाकिस्तान अपने उस वायदे को कैसे पूरा करेगा जिसमें कहा गया था कि वह भारत के खिलाफ आतंकवादी हमलों के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा।'
पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल सन्न रह गया क्योंकि वापस लौटने पर भारत की इस साफगोई का राजनीतिक वजन पाकिस्तानी शासकों पर बहुत भारी पड़ने वाला है। ऐसा इसलिए भी पाकिस्तानी कूटनीति में मुंगेरी लाल के हसीन सपनाऐं का काफी मिश्रण है। उनके विदेश मंत्री महमूद कुरैशी यह बताते नहीं अघाते कि पाकिस्तान भी आतंकवाद का शिकार है। जब इस तरह की बातचीत वे भारतीय नेताओं के साथ करते हैं तो उन्हें अपने देश की जनता को गुमराह करना बहुत आसान रहता है। वे यह समझाने की कोशिश करते हैं कि पाकिस्तान में जारी आतंकवाद में कहीं न कहीं भारत का हाथ है। कोशिश रहती है कि आतंकवाद के मोर्चे पर भारत और पाकिस्तान की एक जैसी हालत है लेकिन पूरी दुनिया की मीडिया के सामने बात शुरू करके भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तानी विदेश नीति के इस गुब्बारे की हवा निकाल दी है।
बहरहाल संतोष की बात यह है कि दोनों देशों के बीच सर्वोच्च स्तर पर बातचीत शुरू हो गई है। शिव शंकर मेनन की बात ठीक हो सकती है कि यह कंपोजिट डायलाग नहीं है। कोई बात नहीं। जहां सब कुछ बंद था वहां कोई बातचीत तो शुरू हुई और इस बात में कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि भारत और पाकिस्तान के बीच शांति की स्थापना बातचीत से ही होगी। पाकिस्तान को यह मुगालता भी खत्म कर देना चाहिए कि वह भारत से बराबरी का स्वांग रखकर अपने नागरिकों को बेवकूफ बना सकता है। उसे ऐसी नीति बनानी चाहिए कि दोनों देशों के नागरिकों के बीच ज्यादा से ज्यादा संपर्क हो। इससे बहुत फायदा होगा और दक्षिण एशिया की पहचान एक शांति के क्षेत्र के रूप में होने लगेगी।
[शेष नारायण सिंह वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार हैं।]