पितृ-पक्ष में क्यों जरूरी है श्राद्ध-कर्म, क्या कहते हैं शास्त्र?
मनुष्य इस पृथ्वी पर जब जन्म लेता है, तभी उस पर तीन ऋण चढ़ जाते हैं, जिन्हें देव ऋण, ऋणि ऋण और पितृ ऋण कहा जाता है। इनमें पितृ ऋण के निवारण के लिए पितृ तर्पण किया जाना आवश्यक होता है। जिसे सरल शब्दों में श्राद्ध कर्म कहा जाता है।
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जो भी मनुष्य जीवात्मा पृथ्वी पर जन्म लेती है, वह अपने पूर्णजों, माता-पिता, बुजुर्गों के कर्मों और स्वयं के पूर्व जन्मों के संचित कर्मों के अनुसार जन्म लेती है। जीवात्मा को पृथ्वी पर लाने के निमित्त जो ऋण जीवात्मा पर चढ़ता है उसे ही पितृ ऋण कहा जाता है। इसीलिए बुजुर्गों, माता-पिता या परिजनों का यह ऋण चुकाने के लिए श्राद्ध कर्म का विधान है।
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श्राद्ध के भेद
शास्त्रीय ग्रंथों में कुल 12 प्रकार के श्राद्ध बताए गए हैं
- नित्य श्राद्ध
- नैमित्तिक श्राद्ध
- काम्य श्राद्ध
- वृद्धि श्राद्ध
- सपिण्डन श्राद्ध
- पार्वण श्राद्ध
- गोष्ठण श्राद्ध
- शुद्धयर्थ श्राद्ध
- कर्मांग श्राद्ध
- दैविक श्राद्ध
- औपचारिक श्राद्ध
- सांवत्सरिक श्राद्ध
इन सभी श्राद्धों में सांवत्सरिक श्राद्ध को श्रेष्ठ कहा गया है।
आगे की बात तस्वीरों में...
मान्यता के मुताबिक
हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार मृत्यु के पश्चात मनुष्य का पंचभूतों से बना स्थूल शरीर तो यहीं रह जाता है, किंतु सूक्ष्म शरीर यानी आत्मा उसके द्वारा किए गए अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार ईश्वर के बनाए 14 लोकों में से किसी एक लोक में निवास के लिए जाती है। यदि मनुष्य ने अपने जीवन में अच्छे कर्म किए हैं तो आत्मा स्वर्ग लोक, ब्रह्म लोक, विष्णु लोक जैसे उच्च लोकों में निवास करती है, लेकिन यदि मनुष्य ने पाप कर्म किए हैं तो आत्मा पितृलोक में चली जाती है और इस लोक में रहने के लिए उन्हें पर्याप्त शक्ति की आवश्यकता होती है जो वे अपनी संतानों द्वारा पितृ पक्ष में किए जाने वाले श्राद्ध के भोजन और जल तर्पण से प्राप्त करती हैं।
गरूण पुराण
गरूड़ पुराण के अनुसार पितृ पक्ष में समस्त आत्माएं अपने परिजनों से भोजन और जल प्राप्त करने के लिए पृथ्वी पर आती हैं। इसलिए उनकी संतुष्टि के लिए मनुष्यों को श्राद्ध कर्म का विधान अपनाना चाहिए। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों को संतुष्ट करना चाहिए।
पितृ पक्ष का महत्व
ज्योतिष के अनुसार भी जन्म कुंडली में पितृ दोष को सबसे जटिल दोष माना गया है। क्योंकि जिस व्यक्ति की कुंडली में पितृ दोष होता है उसका जीवन कष्टमय व्यतीत होता है। उसे किसी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती और वह पूरा जीवन अभावों में बिताता है। ऐसे व्यक्ति की संतानों का जीवन भी रोग ग्रस्त रहता है। इस दोष के निवारण के लिए भाद्रपक्ष शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के सोलह दिन तक चलने वाले पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष में विधि विनम्रतापूर्वक पितरों का तर्पण करना चाहिए।
इस साल 2016 के श्राद्ध पक्ष की तिथियां
- 16 सितंबर- पूर्णिमा का श्राद्ध
- 17 सितंबर- प्रतिपदा का श्राद्ध
- 18 सितंबर- द्वितीया का श्राद्ध
- 19 सितंबर- तृतीया का श्राद्ध
- 20 सितंबर- चतुर्थी का श्राद्ध
- 21 सितंबर- पंचमी का श्राद्ध
- 22 सितंबर- षष्ठी और सप्तमी का श्राद्ध एक साथ
- 23 सितंबर- अष्टमी का श्राद्ध
- 24 सितंबर- नवमी का श्राद्ध
- 25 सितंबर- दशमी का श्राद्ध
- 26 सितंबर- एकादशी का श्राद्ध
- 27 सितंबर- द्वादशी का श्राद्ध
- 28 सितंबर- त्रयोदशी का श्राद्ध
- 29 सितंबर- चतुर्दशी का श्राद्ध
- 30 सितंबर- सर्व पितृ अमावस्या का श्राद्ध
अपने पितरों का श्राद्ध उसी तिथि को किया जाता है, जिस तिथि पर उनकी मृत्यु हुई हो। यदि पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं है तो श्राद्ध पक्ष के अंतिम दिन यानी सर्वपितृ अमावस्या के लिए श्राद्ध कर्म करना चाहिए।
कैसे किया जाता है श्राद्ध
श्राद्ध के मूलतः चार भाग कहे गए हैं। तर्पण, पिंडदान, भोजन और वस्त्रदान या दक्षिणा दान। शास्त्रों में गयाजी को श्राद्ध करने का सबसे उत्तम स्थान कहा गया है। इस वारे में तो यहां तक कहा गया है कि जो मनुष्य एक बार अपने पितरों का श्राद्ध कर्म, पिंडदान, गयाजी में आकर करता है उसे फिर कभी श्राद्ध कर्म करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। श्राद्ध में चावल, जौ, तिल का अधिक महत्व है। इस चीजों से तर्पण किया जाता है। यह कोई भी योग्य ब्राह्मण करवा सकता है। तर्पण, पिंडदान के बाद यथाशक्ति गौ, श्वान, कौवा, ब्राह्मणों, जरूरतमंदों और पितरों का भाग निकाला जाता है। जरूरतमंदों, गरीबों, भिखारियों को दान-दक्षिणा देना चाहिए। भोजन करवाना चाहिए।