क्या UP विधानसभा चुनाव में जाट और मुस्लिम साथ आएंगे, जानिए क्या कह रहे हैं ?
लखनऊ: दिल्ली की सीमाओं पर पिछले साल नवंबर से जारी किसान आंदोलन ने पश्चिम उत्तर के जाटों और मुसलमानों को फिर से करीब आने की वजह दे दी है। खासकर 26 जनवरी की घटना के बाद भारतीय किसान यूनियन के राकेश टिकैत के तौर पर जिस तरह से जाटों का नया नेता पैदा हुआ है, उसमें 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद मुसलमानों को भी एक नई उम्मीद दिखने लगी है। उन्हें लग रहा है कि अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा को साधना है तो एकबार फिर से जाटों के साथ दोस्ती कर लेने में ही भलाई है। लेकिन, बड़ा सवाल है कि किसान आंदोलन के नाम पर जिस तरह से टिकैत की अगुवाई में जाट केंद्र की बीजेपी सरकार से सीधी जंग छेड़ते दिख रहे हैं और उन्हें मुसलमानों का भरपूर साथ भी मिल रहा है, वह दोस्ती अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी अटूट रह पाएगी?
किसान आंदोलन से बढ़ने लगी हैं नजदीकियां
तीन कृषि कानूनों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों और मुसलमानों को एकबार फिर से करीब लाना शुरू कर दिया है। 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों ने दोनों के संबंधों में इतनी कड़वाहट घोल दी थी, जिसमें मिठास घुलना नामुकिन सा लग रहा था। लेकिन, दिल्ली से सटे गाजीपुर बॉर्डर पर आंदोलनकारी किसानों के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के घरों से आने वाले मट्ठों के स्वाद ने फिर से पुराने दिन जैसी परिस्थितियां पैदा करने की संभावनाएं जगा दी हैं। इसका श्रेय भारतीय किसान यूनियन को दिया जा सकता है, जिसमें जाटों के अलावा मुस्लिम समुदायों के भी नेता शामिल हैं और कृषि कानूनों की वापसी की मांग को लेकर लगातार डटे हुए हैं।
क्या सोच रहे हैं उत्तर प्रदेश के जाट?
उदाहरण के लिए शामली के भैंसवाल गांव के लोग करीब 100 लीटर दूध गाजीपुर बॉर्डर पर रोजाना आंदोलनकारियों तक पहुंचा रहे हैं। इलाके में कृषि कानूनों के विरोध में जाटों और मुसलमानों में बढ़ रही नजदीकियों को लेकर इसी गांव के हरेंदर सिंह कहते हैं, 'जाटों और मुसलमानों में आपसी भरोसा विकसित करने की जरूरत है। इसमें महापंचायत से मदद मिलती है।' लेकिन, मौजूदा नजदीकियां क्या आगे चलकर सियासी गठबंधन में भी बदलेगी तो इसको लेकर अभी कोई भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। मसलन, इकोनॉमिक टाइम्स ने इस बारे कई किसानों से बात की है, जिनमें से ज्यादतर जाटों ने यही कहा है कि यह अनुमान लगाना अभी बहुत ही जल्दाबाजी है कि अलगे विधानसभा चुनावों तक भी ये दोनों समुदाय ऐसे ही एक साथ रहेंगे।
पश्चिमी यूपी के मुसलमानों की रणनीति क्या है?
भैंसवाल गांव के ही योगेंद्र कादियान कहते हैं, 'केंद्र के कृषि कानूनों को लेकर जाटों में नाराजगी है। अच्छा संकेत ये है कि मुसलमान महापंचायतों में पहुंच रहे हैं।' पास के ही बुंटा गांव के तफरूज नाम के किसान की राय कादियान से अलग नहीं है, लेकिन राजनीतिक दूरियां भी मिट जाएंगी इसको लेकर वह भी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हैं। उन्होंने कहा, 'किसानों के मौजूदा मुद्दे को लेकर हम लोग एकजुट हैं। हमारी राजनीतिक एकता भविष्य का विषय है।' असल में जो बात सामने नहीं आ रही है, वो ये है कि चौधरी अजित सिंह का परिवार राजनीतिक तौर पर इलाके के जाटों का नेतृत्व करता रहा है। राष्ट्रीय लोकदल नेता जयंत चौधरी इस आंदोन को खुलकर समर्थन भी दे रहे हैं। लेकिन, जब चुनाव आएंगे तो क्या वह टिकैत के लिए मैदान छोड़ने को तैयार होंगे? क्योंकि राकेश टिकैत पहले भी राजनीति में भाग्य आजमा चुके हैं।
क्या भाजपा यूं ही हथियार डाल देगी?
2013 में मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जब से जाटों और मुसलमानों में छत्तीस का आंकड़ा हुआ है, भाजपा को यहां अपनी जमीन के विस्तार का अच्छा मौका हाथ लगा है। भाजपा को भी जाटों की नाराजगी का अंदाजा है और वह उनकी अहमियत भी सझती है। इसलिए पार्टी ने भी स्थानीय किसानों खासकर जाटों को समझानें की कोशिशें शुरू भी कर रखी हैं। उदाहरण के लिए शामली में बीजेपी के जिलाध्यक्ष सतेंद्र तोमर ने कहा है, 'हम उन्हें कानूनों के फायदे के बारे में समझाने की कोशिशें कर रहे हैं।'
कब से शुरू है जाट-मुस्लिम किसानों में एकता का प्रयास?
दरअसल, जाट और मुसलमान इलाके के बड़े किसानों में शामिल हैं। किसानों के नाम पर मुजफ्फरनगर दंगों के दर्द को भुलाने की कोशिशें 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले ही शुरू हो गई थीं। तब 82 वर्षीय किसान नेता गुलाम मोहम्मद जौला ने खासकर मुजफ्फरनगर, बागपत, कैराना और मथुरा में बीजेपी उम्मीदवारों को हराने की मुहिम छेड़ी थी। तब भी इसके लिए उन्होंने जाट युवाओं को मोदी के खिलाफ साधने के लिए पूरा दम लगा दिया था। इस काम में उनके पुराने साथी तेजिंदर सिंह ने भी साथ दिया था और जाट युवाओं को यह समझाने की खूब कोशिशें की थी कि 'जब वोट डालना तो बागपत याद रखना, बालाकोट नहीं।' लेकिन, जाट महासभा की लाइन पिछले कुछ महीने तक अलग थी। मसलन, योगी आदित्याथ सरकार ने आगरा के मुगल म्यूजियम का नाम शिवाजी म्यूजियम करने का प्रस्ताव रखा तो उसने इसका विरोध किया, इसलिए नहीं कि उन्हें मुगल हटाने पर आपत्ति थी। इसलिए कि उनका कहना था कि ब्रज भूमि से मुगलों का शासन का खात्मा जाट शासक महाराजा सूरजमल और उनके महान बेटे राजा जवाहर सिह ने किया था। इसलिए नाम रखना है तो उन्हीं के नाम पर होना चाहिए।