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जाना रंगमंच के दरवेश का

By सबीहा बानो
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Habib Tanveer
पिछले तीन दिनों से भारत भवन में खामोशी है, वहां के लोग ग़मज़दा हैं। रंगकर्म की दुनिया से जुड़े तमाम लोगों के साथ ही बेशुमार ऐसे लोग भी हैं जो हबीब तनवीर के काम और कौशल के कायल हैं। वह चले गए और पीछे छोड़ गए हैं- थिएटर की ऐसी समरद्ध विरासत जिसे सदियों तक याद रखा जायेगा।

रंगमंच का नाम आते ही दिमाग में जो चेहरा सबसे पहले आता है वह है हबीब साहब का। मैं खुद को उन खुशनसीब लोगों में एक मानती हूं जिसे इस युगपुरुष से मिलने का मौका मिला। भोपाल में पढ़ाई के दौरान जब मैं अपने दोस्तों के साथ पहली बार भारत भवन पहुंची तो मुझे कतई यह अहसास नहीं था कि मैं एक ऐसे इंसान से मिलने जा रही हूं जो न केवल रंगमंच का बादशाह है। बल्कि इंसानों में भी अज़ीम है।

हालांकि मैंने उनके बारे में पढ़ा और सुना तो था लेकिन कहते हैं न कि जब तक आप किसी इंसान से मिलते नहीं तब तक आप उसके बारे में सिर्फ कयास ही लगा सकते हैं। जब हम भारत भवन पहुंचे तो वहां काफी गहमा गहमी थी. बाहर पुलिस का पहरा था लोगों को चेकिंग के बाद ही अंदर जाने दिया जा रहा था. मेरी समझ में यह नहीं आया कि नाटक देखने के लिए इतनी चेकिंग क्यों, हमने सोचा कि शायद कोई वीआईपी आया हो इसलिए यह सब हो रहा है।

पहले नाटक जित लाहौर नईं देख्या... का मंचन हुआ, हबीब साहब ख़ुद मंच पर मौजूद थे। पहले नाटक के मंचन के बाद हबीब साहब स्टेज पर आए और अगले नाटक के बारे में एक छोटी सी तकरीर दी और कहा कि यह नाटक किसी जाति या धर्म के खिलाफ नहीं है बल्कि धार्मिक आडंबरों के खिलाफ है। तब तक सबके समझ में आ चुका था कि अगला नाटक कौन सा होगा।

पोंगा पंडित वही नाटक था जिसने धर्म के कुछ ठेकेदारों की नींद उड़ा दी थी और 'इसके बाद इसे साम्प्रदायिकता का रंग दे दिया गया था और इसे लेकर कौमी दंगा तक भड़क गया था। मुंबई सहित कई शहरों में इसके मंचन पर पाबंदी लगा दी गई थी। लेकिन भोपाल के कलाप्रेमियों में इतनी तमीज़ जरुर है कि वे कला और साम्प्रदायिकता में फर्क कर सकें।

नाटक के मंचन के दौरान पूरे सभागार में गहरी खामोशी छाई रही और मंचन के बाद तालियों की गड़गड़ाहट ने उस खामोशी को खुशी में तब्दील कर दिया। मैं यह बात यकीन से कह सकती हूं कि नाटक देखने के बाद मुझे तो क्या वहां मौजूद किसी भी शख्स को किसी हाल में नाटक सांप्रदायिक नहीं लगा बल्कि यह जरुर हुआ कि कई सिर हबीब साहब के लिए श्रद्धा से झुक गए।

पत्रकारिता की स्टूडेंट होने के लिहाज से मुझे इस मामले में कुछ ज्यादा दी दिलचस्पी हुई और मैने इस मुतल्लिक हबीब साहब से बात करने की ठानी। वह चारों ओर से लोगों से घिरे थे मुझे लगा कि जहां इतने बड़े-बड़े लोग उनसे मिल रहे हैं तो शायद वह एक स्टूडेंट से मिलने के इच्छुक न हों इसलिए एक कोने में खड़ी होकर सबके जाने का इंतजार करने लगी।

बाद में मैने उन्हें बताया कि मैं एक छात्रा हूं और उनसे बात करना चाहती हूं तो वह बेहद प्यार और खुलूस से मिले। मैने उनसे पूछा कि आखिर लोग उनके इस नाटक को सांप्रदायिक क्यों कह रहे हैं जबकि मुझे तो इसमें ऐसी कोई बात नज़र नहीं आई? मेरे इस सवाल पर वह बेहद खुश हो गए और कहा कि यह तो देखने वालों का नज़रिया है, बीबी। उन्होंने कहा कि कुछ लोग खुद को समाज का ठेकेदार मान बैठे हैं और वे हर चीज़ को अपने चश्में से देखते हैं, जब कोई चीज़ उनके अहम को ठेस लगाती है तो वह तिलमिला जाते हैं। "मैं बेहद खुश हूं कि आप जैसे नौजवानों के पास दुनिया देखने के लिए अपना चश्मा है।"

उनसे मिलने के बाद मुझे लगा कि दुनिया में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सिर्फ दूसरों के लिए जीते हैं । जितना बड़ा नाम उतनी ही सादगी चेहरे पर, बातों में, एक पाक रुह जिसके करीब होना भी आपको एक रुमानी एहसास देता है। उनसे मिलने के बाद तो जैसे भारत भवन से अपनी भी दोस्ती हो गई और साथ ही जुड़ गया रंगमंच से कभी न टूटने वाला रिश्ता। यहां मैने हबीब साहब के आगरा बाज़ार, चरणदास चोर, ज़हरीली हवा और मिट्टी की गाड़ी सहित कई अन्य लोगों के नाटक देखे।

उनके जाने पर दुख तो सभी को हुआ, लेकिन मुझे ऐसा लग रहा जैसे मेरे साथ-साथ आनेवाली पीढ़ियां भी अनाथ हो गईं। कोई रहनुमा साथ रहे तो बेफिक्री रहती है।

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