Inspirational Story: राजा दशरथ को शनिदेव पर क्यों खींचना पड़ा तीर?
नई दिल्ली, 12 मार्च। शनिदेव को ग्रहों में न्यायाधिपति की संज्ञा प्राप्त है। वे समस्त चराचर जगत के जीवों को उनके कर्मो के अनुसार अच्छा-बुरा फल देते हैं। इसलिए एक ओर वे यदि कठोर हैं तो दूसरी ओर दयालु भी हैं। एक बार अयोध्या के राजा दशरथ ने तो शनिदेव की ओर तीर चलाने का प्रयास भी कर लिया था। आइए जानते हैं क्या है इसके पीछे की कथा।
पद्मपुराण में आई एक कथा के अनुसार एक बार जब शनि कृतिका नक्षत्र के अंत में थे, तब ज्योतिषियों ने राजा दशरथ को बताया किअब शनिदेव रोहिणी नक्षत्र को भेदकर जाने वाले हैं जिसका फल देव-दानवों सभी को भंयकर रूप से भोगना होगा। इस कारण पृथ्वी पर भी बारह वर्षो का भयंकर अकाल पड़ने वाला है। समस्त प्रजा भूख-प्यास से व्याकुल होकर प्राण त्यागने लगेगी। यह सुनकर राजा दशरथ व्याकुल हो गए। राजा दशरथ ने वशिष्ठ सहित अन्य ऋषियों को बुलाकर इस संकट से रक्षा का उपाय पूछा। वशिष्ठजी ने कहा यह योग स्वयं ब्रह्मा भी नहीं टाल सकते। इसका परिहार कोई नहीं कर सकता। यह सुनकर राजा साहस करते हुए अपने दिव्य रथ में सवार होकर दिव्यास्त्रों सहित सूर्य के सवालक्ष योजन ऊपर नक्षत्र मंडल में गए और वहां रोहिणी नक्षत्र के पृष्ठभाग में स्थित होकर उन्होंने शनि को लक्षित करते हुए धनुष पर संहारास्त्र चढ़ाकर खींचा।
यह देख शनि हंसते हुए बोले राजन! मैं तुम्हारे पौरुष और सराहनीय तप से प्रसन्न हूं। मैं जिसकी ओर दृष्टि भी डाल लूं वह भस्म हो जाता है। तुम वर मांगो। राज ने कहा जब तक पृथ्वी, सूर्य, चंद्र आदि है। तब तक आप रोहिणी का भेदन न करें। शनि ने एवमस्तु कहा। इसके बाद शनि ने और वर मांगने को कहा। राजा ने कहा अब कभी बारह वर्ष का दुर्भिक्ष न पड़े। शनि ने यह वर भी दे दिया। इसके बाद राजा दशरथ ने धनुष नीचे रख दिया और शनिदेव की स्तुति करने लगे। स्तोत्र सुनकर शनिदेव प्रसन्न हुए और पुन: वर मांगने को कहा। राजा ने मांगा किआप किसी को पीड़ा न पहुंचाएं।
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शनि ने कहा यह वर देना असंभव है क्योंकिमैं जीवों को उनके कर्मो के अनुसार सुख-दुख देने के लिए नियुक्त हूं। किंतु तुम्हें यह वर देता हूं किजो कोई भी तुम्हारे द्वारा की गई इस स्तुति का पाठ करेगा वह पीड़ा से मुक्त हो जाएगा। शनि ने कहा मैं किसी भी प्राणी के मृत्यु स्थान, जन्म स्थान या चतुर्थ स्थान में रहूं तो उसे मृत्यु तुल्य कष्ट दे सकता हूं किंतु जो श्रद्धा से युक्त पवित्र मन से मेरी लौहमयी प्रतिमा को शमी पत्रों से पूजन करके तिल मिश्रित उड़द-भात, लोहा, काली गौ या काला वृषभ ब्राह्मण को दान करता है और पूजन के पश्चात हाथ जोड़कर इस स्तोत्र का पाठ करता है उसे कभी पीड़ा नहीं दूंगा। तीनों वर पाकर राजा दशरथ पुन: रथ पर आरूढ़ होकर अयोध्या लौट आए।