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पिछले स्कोर की बराबरी में भी क्यों चूक गयीं भाजपा –शिवसेना?

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नई दिल्ली। 2014 में भाजपा और शिवसेना ने अलग-अलग चुनाव लड़ कर 122 और 63 सीटें जीती थीं। इस बार साथ लड़े तो पहले से कम सीटें क्यों आ गयी ? भाजपा 105 तो शिवसेना 56 पर क्यों ठहर गयीं ? पिछले प्रदर्शन को भी दोहराते तो आंकड़ा 185 पर पहुंच जाता। फिर 161 पर ही उनकी गाड़ी क्यों अटक गयी ? महाराष्ट्र भाजपा के दिग्गज नेता रहे गेपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे मंत्री रहने के बाद भी चुनाव हार गयीं। ये नतीजे मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस की साख पर सवाल हैं। भाजपा- शिवसेना गठबंधन को बहुमत तो मिल गया लेकिन जनता ने दोनों को एक गंभीर चेतावनी दी है। संभल जाइए वर्ना मंजिलें और भी हैं। शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अब नम्बर दो की पार्टी बनने के करीब है। शिवसेना के 56 के मुकाबले राकांपा 54 पर पहुंच गयी है।

मुद्दे नहीं पकड़ पायी भाजपा

मुद्दे नहीं पकड़ पायी भाजपा

भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में 48 में से 23 सीटों पर जीत हासिल की थी। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि विधानसभा चुनाव में वह दमदार प्रदर्शन नहीं कर पायी। भाजपा महाराष्ट्र के मुद्दे नहीं पकड़ पायी। फडणवीस सरकार के कार्यकाल में किसानों के कई आंदोलन हुए। किसानों की आत्महत्या यहां के लिए बड़ा मसला था। अमित शाह ने महाराष्ट्र में धारा 370 को मुद्दा बना कर धुआंधार रैलियां की थीं। रोजगार भी अहम मुद्दा था। भाजपा ने स्थानीय समस्याओं को किस हद तक दूर किया, इस पर फोकस करने की बजाय वह राष्ट्रीय मुद्दों पर निर्भर रही। शरद पवार ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि धारा 370 का मुद्दा महाराष्ट्र चुनाव में नहीं चलेगा। उनका कहना एक हद तक ठीक रहा।

दलबदलुओं पर भरोसा काम न आया

दलबदलुओं पर भरोसा काम न आया

भाजपा ने दूसरे दल से आने वाले नेताओं को ज्यादा अहमियत दी जिसका उसे खामियाजा भुगतना पड़ा। उसने 19 दलबदलुओं को टिकट दिये थे जिसमें से 11 हार गये। दूसरे दलों से भाजपा में आने वाले नेताओं को तरजीह दिये दिये जाने से समर्पित कार्यकर्ता नाखुश हो गये। वे या तो निष्क्रिय हो गये या फिर बागियों के मददगार बन गये। जिस उदयनराजे को उसने शिवाजी का वंशज बता कर मराठा राजनीति में सेंध लगाने की कोशिश की, वह भी नाकाम साबित हुई। वे राकांपा से भाजपा में आये थे। सब कुछ होते हुए भी वे हार गये। पश्चिमी महाराष्ट्र की जनता ने और अधिक ताकत से शरद पवार का समर्थन किया। भाजपा ने अपने पिछड़ने के लिए बागियों को जिम्मेवार ठहराया है। इस नतीजों ने ये संदेश दिया कि भाजपा अगर अपने पुराने कार्यकर्ताओं की अनदेखी करेगी तो उसे कीमत चुकानी पड़ेगी। इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कहना पड़ा कि पार्टी पुराने कार्यकर्ताओं के अनुभव का लाभ उठाये।

क्यों कम हुई शिवसेना की ताकत

क्यों कम हुई शिवसेना की ताकत

शिवसेना अब बाल ठाकरे के जमाने वाली नहीं रही। आक्रमक राजनीति करने वाली शिवसेना अपने गिरते ग्राफ को ऊपर उठाने के लिए समझौतावादी हो गयी है। दिल पर पत्थर रख कर शिवसेना आधा से कम सीटें लेने पर राजी हुई थी। भाजपा और शिवसेना ने पूरे मन से एक दूसरे का सहयोग नहीं किया। अधिक सीटें जीतने के चक्कर में एक दूसरे का नुकसान भी किया। भाजपा के नितेश राणे को हराने के लिए शिवसेना ने नाकाम कोशिश की। शिवसेना ने चुनाव प्रचार में भाजपा नेताओं को अहमियत नहीं दी। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी शिवसेना के पोस्टरों में जगह नहीं मिली थी। शिवसेना के इस रवैये वोटरों में गलत संदेश गया। उग्र राष्ट्रवाद या मराठी मानुष का मुद्दा पहले की तरह प्रभावकारी नहीं रहा। चुनाव जीतने के लिए काम भी करना होगा। तभी तो राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को केवल एक सीट मिल सकी। उसने 110 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किये थे। कभी उसके 14 विधायक हुआ करते थे। इसलिए शिवसेना भी सिर्फ भावनात्मक मुद्दों के सहारे टिकाऊ राजनीति नहीं कर सकती।

(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)

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English summary
Why did the BJP-Shiv Sena even miss the previous score?
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