इंडिया गेट से: मार्गरेट अल्वा पर सोनिया गांधी का एक और अहसान
सोनिया गांधी ने उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए एक ईसाई महिला ढूंढ ली है। कर्नाटक में मारग्रेट अल्वा कट्टर ईसाई के रूप में, तो नयी दिल्ली में वह कट्टर संघ विरोधी के रूप में जानी जाती हैं। उत्तराखंड में राज्यपाल के रूप में वह खुद को संविधान से बड़ी हस्ती मान कर चलती थीं। जब वह राज्यपाल थीं, तब उत्तराखंड में भाजपा की सरकार थी। अल्वा सरकारी फाईलों को कई-कई दिन दबा कर रखने और मीन-मेख निकालने में माहिर थीं।
उन्हें विपक्ष की ओर से उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने की घोषणा करते हुए बताया गया है कि वह संविधान के मामलों की जानकार हैं। इस संबंध में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक बेहतर बता सकते हैं कि वह किस तरह केबिनेट के फैसलों और संवैधानिक नियुक्तियों की फाईलों पर बेजा सवाल उठा कर और अनावश्यक मीन-मेख निकाल कर लौटाया करती थी।
एक हारने वाली उम्मीदवार के बारे में ज्यादा लिखने का कोई फायदा नहीं। लोकसभा में राजग के 353 सदस्य हैं, बीजू जनता दल, वाईएसआर कांग्रेस, शिवसेना और अकाली दल के समर्थन से यह आंकड़ा 545 में से 407 बनता है। राज्यसभा में 237 के प्रभावी सदन में राजग के 102 सदस्य हैं, 5 मनोनीत, बीजू जनता दल, वाईएसआर कांग्रेस, शिवसेना को मिला कर यह आंकड़ा 128 बनता है। यानि 782 सांसदों में से राजग के उम्मीदवार को 535 सांसदों का समर्थन है। बसपा भी समर्थन कर दे तो 11 सांसद और बढ़ जाएंगे। शिवसेना सांसदों में फूट पड़ जाए, तो एक दो वोट घट जाएंगे।
इस लिए यह कोई मुकाबला ही नहीं है। जैसे वोटिंग से एक दिन पहले राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी यशवंत सिन्हा ने कहा है कि यह व्यक्तियों की नहीं, बल्कि विचारधारा की लड़ाई है, तो उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी यह विचारधारा की लड़ाई है। भाजपा की विचारधारा दो तिहाई बहुमत से जीतेगी और कांग्रेस की विचारधारा दो तिहाई बहुमत से हारेगी, लगभग यही अनुपात राष्ट्रपति पद के चुनाव में भी रहेगा।
मारग्रेट अल्वा 24 साल राज्यसभा की सांसद और पांच साल लोकसभा की सदस्य रही हैं। वह 2004 का लोकसभा चुनाव हार गईं थी, तो उन्हें कांग्रेस का महासचिव बनाया गया। लेकिन उनके अब उपराष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनने से कई कच्चे चिठ्ठे खुलना स्वाभाविक है।
नवम्बर 2008 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के मौके पर कर्नाटक के प्रभारी महासचिव पृथ्वीराज चव्हाण और स्क्रीनिंग कमेटी के चेयरमैन दिग्विजय सिंह ने मारग्रेट अल्वा के बेटे को टिकट देने से इंकार कर दिया था। तो कांग्रेस महासचिव और चार राज्यों की प्रभारी रहते हुए उन्होंने पृथ्वी राज चव्हाण और दिग्विजय सिंह पर आरोप लगाया कि वे पैसे लेकर टिकट बेच रहे हैं। कांग्रेस की बदनामी हुई और मारग्रेट अल्वा को सभी पदों से इस्तीफा देना पड़ा था। इस्तीफा देने के बाद वह कांग्रेस से अलग-थलग हो गई थीं। लेकिन सोनिया गांधी ने ईसाई सहधर्मिता के चलते उन्हें राज्यपाल बना दिया। वह गोवा, गुजरात, उत्तराखंड और राजस्थान की राज्यपाल रही।
राज्यपाल पद से मुक्त होने के बाद एक बार फिर वह राजनीतिक बियाबान में चली गईं थी। असल में राज्यपाल पद से हटने के बाद 2016 में उन्होंने "करेज एंड कमिटमेंट" नाम से लिखी अपनी आत्मकथा में कई विवादों को जन्म दे दिया था। इसमें उन्होंने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव और सोनिया गांधी के साथ काम करने के अनुभव के बारे में लिखा है।
ईसाई होने के कारण वह सोनिया गांधी के बहुत करीब थीं। किताब में अल्वा ने लिखा कि जब राजीव गांधी की सरकार शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नजरअंदाज करने पर विचार कर रही थी तो उन्होंने राजीव गांधी को सलाह दी थी वह मौलवियों के सामने न झुके, लेकिन इस पर राजीव गांधी चिल्लाए, "तलाक लो और फिर मेरे पास आओ। मैं तुम्हे बताऊंगा कहां जाना है।" अल्वा ने बताया कि कांग्रेस को उम्मीद थी कि इस मुद्दे पर राजीव गांधी स्टैंड लेंगे लेकिन वह झुक गए।
प्रधानमंत्री रहते हुए नरसिम्हा राव पर आरोप लगा था कि वह सोनिया गांधी समेत कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं की जासूसी करवाते हैं। इस खुलासे पर अल्वा ने लिखा है, "मुझे इस बात का पता नहीं था। मैंने उनके साथ काम किया। हो सकता है, इसीलिए उन्होंने मुझे कैबिनेट रैंक नहीं दी।"
यह जगजाहिर है कि व्यक्तिगत खुन्नस के कारण सोनिया गांधी ने नरसिंह राव के देहांत के बाद उनके शव को कांग्रेस मुख्यालय में दर्शनार्थ रखने नहीं दिया था। हालांकि शव यात्रा कांग्रेस मुख्यालय के गेट पर पहुंच गई थी, लेकिन गेट नहीं खोला गया। इस पर अल्वा ने लिखा है कि जिस तरह से कांग्रेस ने नरसिम्हा राव के साथ बर्ताव किया वह दुखद था। वह कांग्रेस अध्यक्ष थे और उनकी मृत्यु पर उन्हें सम्मान मिलना चाहिए था।
मार्गरेट अल्वा की किताब में लिखा है कि राव सरकार ने जब बोफोर्स मामले में दिल्ली सरकार के फैसले के खिलाफ अपील करने का निर्णय लिया था तब सोनिया ने उनसे पूछा था, "प्रधानमंत्री क्या करना चाहते हैं? क्या वे मुझे जेल भेजना चाहते हैं?"
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