Ram and RJD: राजद क्यों कर रही है राम नाम से नफरत की राजनीति?
पहले पूर्व जल संसाधन मंत्री जगदानंद सिंह ने राम-जन्मभूमि को नफरत की जमीन पर निर्माण बताया अब शिक्षा मंत्री ने रामचरितमानस को नफरत की किताब बताया है। नेताओं के 'नफरत' वाले बयान से राजद की राजनीति पर क्या असर पड़ रहा है?
Ram and RJD: अगर आप हिन्दू हैं, तो संभवतः रामचरितमानस पर बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर के बयान से आपकी भावना भी आहत हुई होगी। बिहार के शिक्षा मंत्री ने बयान दिया था कि "रामचरितमानस के उत्तर कांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं। यह नफरत को बोने वाले ग्रंथ हैं। एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस, तीसरे युग में गुरु गोलवलकर का बंच ऑफ थॉट, ये सभी देश को, समाज को नफरत में बांटते हैं।"
प्रोफेसर चंद्रशेखर ने जब ये बयान दिया था तो वो अधिकारिक रूप से, शिक्षा मंत्री होने के कारण नालंदा विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में आमंत्रित थे। इस लिहाज से ये मानने में कोई हर्ज नहीं कि ये बिहार सरकार के मंत्री का अधिकारिक बयान था। वो राजद के नेता हैं इसलिए उनके बयान को राजद और उसके समर्थकों की अधिकारिक वैचारिक स्थापना मानने में भी कोई हर्ज नहीं है।
अब सवाल है कि इतने पर बात खत्म हो जाती है क्या? नहीं, असल में बात यहीं से शुरू होती है और बिहार की राजनीति की करवट को समझने के लिए हमें इसे अन्य घटनाओं से मिलाकर देखना होगा। सबसे पहली बात जो इस एक घटना में दिखती है, वो ये है कि यह कोई पहला विवादित बयान नहीं है।
थोड़े ही दिन पहले राजद के ही एक दूसरे बड़े नेता, जगदानंद सिंह ने बयान दिया था कि रामजन्मभूमि मंदिर तो नफरत की जमीन पर बन रहा है। उनके बयान के पीछे कारण ये माना जा सकता है कि उनके सुपुत्र सुधाकर सिंह जो हाल तक बिहार की सरकार में राजद की ओर से कृषि मंत्री थे, उन्होंने विभाग के भ्रष्टाचार को लेकर कई बयान दिए थे। उनका मंत्रिपद तो जाता रहा, लेकिन राजद पर भ्रष्टाचार के पुराने आरोप फिर से आ गए।
उनसे पीछा छुड़ाने के लिए पुराने समय में राजद की सरकार में जल संसाधन मंत्री रह चुके जगदानंद सिंह ने राम नाम का आश्रय लिया। इससे जो नया विवाद छिड़ा, उसके क्रम में लोगों का ध्यान राजद और भ्रष्टाचार के चोली-दामन के सम्बन्ध से हट गया।
आगे समस्या ये थी कि राजद की ओर से सरकार में शामिल उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने सरकार बनने से पहले बयान दिया था कि नयी सरकार पहली कलम से दस लाख युवाओं को नौकरियां देने का काम करेगी। ऐसा कुछ हुआ नहीं। उल्टा जो शिक्षक भर्ती परीक्षाओं में अनियमितताएं जारी थीं, उनके विरोध में प्रदर्शन कर रहे युवाओं पर पुलिस की लाठियां जमकर बरसीं।
इस पर जब सत्ता पक्ष से पत्रकारों ने सवाल किया तो जेडीयू के बड़े नेता ललन सिंह ने कहा कि कौन सा ये पहली बार हुआ है? पहले भी प्रदर्शन करने पर पुलिस की मार पड़ती रही है! चूंकि ये शिक्षा विभाग से जुड़ा मामला था और बिहार में शिक्षक पहले भी कभी अनियमित वेतन तो कभी संविदा के बदले स्थायी बहाली की मांग करते रहे हैं इसलिए जनता का ध्यान शिक्षा से हटाना आवश्यक था।
फिलहाल बिहार में शिक्षा की दशा, अथवा दुर्दशा की बात की जाए तो उच्च शिक्षा में स्थिति ये है कि बिहार में अभी पंद्रह से अधिक विश्वविद्यालय हैं, मगर इनमें से पांच भी ऐसे नहीं हैं जो तीन वर्षों में स्नातक का पाठ्यक्रम पूरा करवाकर डिग्री देने में समर्थ हों। विद्यालय के स्तर पर प्रमोट करके पुराने समय के प्राथमिक विद्यालय को मध्य विद्यालय और मध्य विद्यालय को उच्च विद्यालय अवश्य बना दिया गया है।
इन प्रमोट किये गये विद्यालयों में स्थिति ये है कि शिक्षकों की भर्ती तो हुई नहीं इसलिए "राम भरोसे" ही पढ़ाई चल रही है। ड्राप-आउट रेट यानि पढ़ाई छोड़ने की दर देश की सबसे ऊंचे दरों में से है। लड़कियों को साइकिल और पोशाक देने के दावों के बाद भी बिहार में स्कूल छोड़ने की दर 20 प्रतिशत से ऊपर ही है। ऐसे में शिक्षा मंत्री भला शिक्षा पर क्या कहते? जिस "राम भरोसे" बिहार की शिक्षा व्यवस्था है, उसी राम की शरण ले ली!
चूँकि रामचरितमानस को बिना पढ़े उस पर अशोभनीय टिप्पणी करते समय वो शिक्षा मंत्री के रूप में नालंदा विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में आमंत्रित थे, इसलिए इसे उनका निजी विचार कहकर टरकाया भी नहीं जा सकता। बिहार की लुंज-पुंज स्थिति वाली भाजपा रामजन्मभूमि मंदिर और रामचरितमानस पर हो रही अशोभनीय टिप्पणियों का उतना मुखर विरोध नहीं कर पा रही है।
इसके बाद भी आम लोगों में जो इन बयानों को लेकर क्षोभ है, वो अब राजद स्वयं ही महसूस कर रही है। इसका एक बड़ा कारण राजद का वो जातीय समीकरण है, जिसे साधकर वो सत्ता में आने के इच्छुक होते हैं। यादव वोट बैंक पर निर्भर राजद के लिए नित्य रामचरितमानस का पाठ करने वाले यादवों के बीच जाना मुश्किल हो गया है। इसका नतीजा ये हुआ है कि राजद के दूसरे नेता अब प्रोफेसर चंद्रशेखर के बयानों से पल्ला झाड़ रहे हैं और उनका वोट बैंक अपना दबाव फिर भी कम नहीं कर रहा।
लालू यादव के नेपथ्य में जाने से कमजोर पड़ी राजद में पद और नेतृत्व को लेकर भी संघर्ष जारी है। ये संभव है कि जैसा दूसरे राज्यों में ऐसी परिवार आधारित पार्टियों का हश्र हुआ, कुछ वैसा ही बिहार में भी देखने को मिले। अगर बिहार में राजद किसी तरह शिवसेना गति को प्राप्त होती है तो निश्चित रूप से इसका फायदा बिहार भाजपा को होगा।
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दूसरी बड़ी पार्टी जदयू पहले ही कमजोर पड़ चुकी है और चुनावों का दौर (2024 का लोकसभा चुनाव और उसके तुरंत बाद विधानसभा) नजदीक आते ही सियासी मोहरे अपनी-अपनी चाल चलना शुरू कर चुके हैं। ऐसे में राजद के कुछ नेताओं को लगता है कि राम निंदा वाली नब्बे के दशक की सुनहरी राजनीति अभी भी सफल हो सकती है इसलिए अपनी निजी चुनौतियों को कम करने के लिए ऐसे बयान दे रहे हैं। लेकिन जिस तरह से राजद के भीतर से ऐसे बयानों को समर्थन नहीं मिला उससे संकेत साफ है कि राम नाम से नफरत करनेवाली राजनीति के दिन अब लद चुके हैं।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)