Mandal Politics: क्या विपक्ष ओबीसी को भाजपा से तोड़ पाएगा?
बिहार में 2014 के लोकसभा चुनाव में जब मंडल राजनीति करने वाले दल बिखरे हुए थे, तो भाजपा को फायदा हुआ था। 2015 के विधानसभा चुनाव में मंडल राजनीति करने वाले दल एकजुट हुए तो उन्होंने भाजपा को हरा दिया।
Mandal Politics: विपक्ष बिहार के मंडल प्रयोग को सारे देश में दोहराने की रणनीति पर चल रहा है| 2015 में मंडल राजनीति की बदौलत ही नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे, 2022 में भी वह मंडल राजनीति की बदौलत मुख्यमंत्री हैं| मंडल राजनीति का मतलब है ओबीसी की राजनीति| क्या बिहार में मंडल राजनीति के सफल प्रयोग को सारे देश में दोहराने के लिए ही कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सारे देश में जाति आधारित जनगनणा की मांग रखी है|
मोदी सरकार ने दो साल पहले संसद से बिल पास करवा कर ओबीसी में नई जातियों को जोड़ने और उनकी जनगणना करवाने का अधिकार राज्यों को दिया था| नीतीश कुमार बिहार में राज्य के खर्चे पर जाति आधारित जनगणना करवा रहे हैं| मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस अधिवेशन के पहले ही दिन अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि एक दो प्रदेशों में जाति आधारित जनगणना का कोई फायदा नहीं, सारे देश में जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए|
अखिलेश यादव हों, लालू यादव हों, या नीतीश कुमार, तीनों ही जाति आधारित जनगणना की मांग इसलिए करते हैं, ताकि ओबीसी का सही आंकड़ा सामने आ जाए और फिर उसी आधार पर आरक्षण बढाने की मांग की जाए| सुप्रीमकोर्ट की ओर से लगाई गई 50 प्रतिशत की सीमा के कारण अभी ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है| ओबीसी जातियों का दावा है कि उनकी आबादी 50 प्रतिशत है, इसलिए उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण मिलना चाहिए| संसद में जब ओबीसी बिल पास हो रहा था, तब भी इन दलों ने आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग रखी थी| यही मंडल राजनीति है|
अब कांग्रेस का इतिहास देखिए, 2004 से लेकर 2014 तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी| 2008 के बाद जाति आधारित जनगनणा की मांग बड़े जोर शोर से उठी थी| मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी ने जाति आधारित जनगणना का वायदा किया था कि 2011 की जनगणना में ओबीसी की गणना कराई जाएगी, लेकिन वे बाद में मुकर गए| उन्होंने जाति आधारित जनगणना के बजाय सामाजिक आर्थिक जाति सर्वेक्षण (एसईसीसी) कराया, लेकिन इसके आंकड़े भी जारी नहीं किए गए| बाद में बताया गया कि डेटा करप्ट हो गया था|
असल में डेटा करप्ट नहीं हुआ था, कांग्रेस की नियत करप्ट हो गई थी, क्योंकि तब उसे लगता था कि जैसे 2004 के बाद 2009 में उसकी सीटें बढी हैं, 2014 में भी बढ़ोतरी जारी रहेगी और उसे मंडल राजनीति करने वालों की बैसाखियों का सहारा नहीं लेना पड़ेगा| लेकिन 2014 से कमंडल राजनीति हावी हो गई, तो अब कांग्रेस को मंडल राजनीति फिर से याद आई है, क्योंकि 2014 के बाद बिहार ने दो बार मंडल राजनीति को उभरते हुए देखा|
बिहार में वह फर्क क्या है, जिस कारण भाजपा को हराने के लिए सारे देश में मंडल राजनीति को दोहराने की रणनीति बन रही है| हां, अब एक बड़ा फर्क आ रहा है, वह यह कि 2014 में जदयू, राजद और कांग्रेस का गठबंधन नहीं था| लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन 40 में से 31 सीटें जीत गया था| मंडल राजनीति वाले जदयू और राजद अलग अलग चुनाव लड़े थे| कांग्रेस और राजद का गठबंधन जरुर था, राजद 27 और कांग्रेस 12 सीटों पर चुनाव लड़ी थी| राजद चार सीटों पर जीती और कांग्रेस दो सीटों पर| 38 सीटें लड़ कर जदयू सिर्फ दो सीट जीत पाई थी| एनसीपी एक सीट जीती थी|
लोकसभा चुनाव के तीन महीने बाद ही विधानसभा की 10 सीटों पर उपचुनाव था| लोकसभा चुनावों में करारी हार के बाद कमंडल के खिलाफ मंडल की दुहाई देते हुए लालू और नीतीश गले मिल गए थे, कांग्रेस को भी साथ ले लिया था| नतीजतन मंडल गठबंधन 10 में से 6 सीटें जीत गया था| फिर इसी मंडल गठबंधन ने 2015 का विधानसभा चुनाव मिल कर लड़ा और भाजपा के कमंडल गठबंधन को हरा दिया|
2015 के विधानसभा चुनाव में राजग के सभी घटक दलों के वोट भी कम हुए| मंडल गठबंधन में राजद को 80, जदयू को 71, कांग्रेस को 27 और सीपीआई को 3 सीटें मिलीं| जबकि राजग में भाजपा को सिर्फ 53 और लोजपा को दो सीटें मिलीं| 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले राजग का वोट भी 39 प्रतिशत से घटकर 29.25 प्रतिशत रह गया था| हालांकि अकेले भाजपा का वोट फिर भी सब से ज्यादा था। भाजपा को 29.4 से घट कर विधानसभा चुनाव में 24.42 प्रतिशत वोट मिला था, जबकि राजद को 18.35 और जदयू को 16.83 प्रतिशत वोट मिला था|
लेकिन राजद, जदयू और कांग्रेस को मंडल राजनीति का फायदा मिला। अब उस राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए हिन्दू वोट बैंक में अगड़ों पिछड़ों को अलग करना जरूरी है| 2014 से देश की राजनीति में फर्क यह आया है कि लगभग सभी स्वर्ण जातियां, ओबीसी, एससी और एसटी हिंदुत्व के नाम पर एकजुट हो गए हैं| लोकसभा में भाजपा के 303 सांसदों में से 113 सांसद ओबीसी हैं, जो कुल सांसदों का 37 प्रतिशत बनता है, इसी तरह अनुसूचित जाति वर्ग से 53 और अनुसूचित जनजाति के 43 भाजपा सांसद हैं|
विपक्षी दल यह समझते हैं कि हिंदुत्व की लहर ने मंडल राजनीति को बहुत नुकसान पहुंचाया है, इसलिए मंडल राजनीति को पुनर्जीवित करके सत्ता हासिल की जा सकती है| इसीलिए बिहार के उदाहरण को सामने रखा जा रहा है| 2014 में जब मंडल राजनीति करने वाले दल बिखरे हुए थे, तो भाजपा को फायदा हुआ था| 2015 में मंडल राजनीति करने वाले दल एकजुट हुए तो उन्होंने भाजपा को हरा दिया|
उसी आधार पर अब नीतीश कुमार का मानना है कि 2024 चुनाव में मंडल गठबंधन बिहार में राजग को 8-10 सीटों पर सिमट देगा| असल में वह देश की तस्वीर भी बिहार के नजरिए से देखते हैं, इसलिए भाजपा को सौ से कम सीटों पर निपटाने का दावा कर रहे हैं| नीतीश कुमार यहीं पर गलती कर रहे हैं, शायद वह उस कहावत को भूल गए हैं कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती, और हर जगह नहीं चढ़ती|
नीतीश कुमार और मल्लिकार्जुन खड़गे यह भूल जाते हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव का मुद्दा अलग होता है, नेतृत्व का करिश्मा भी होता है। लोकसभा चुनाव के समय वोटरों की प्रवृति भी बदलती है| वैसे हम बिहार की बात ही करें, तो बदल रहे समीकरण से चुनाव पर कितना असर पड़ेगा, इसके बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन जदयू के अलग होने के बाद अकेलापन झेल रही भाजपा ने भी ओबीसी में अपना आधार बढाने की कवायद शुरू कर दी है, ताकि मंडल राजनीति के दल और वोट उसके खिलाफ एकजुट नहीं हो सकें|
अति पिछड़ा कुशवाहा जाति का प्रतिनिधित्व करने वाले उपेंद्र कुशवाहा ने जदयू से अलग हो कर राष्ट्रीय लोक जनता दल का गठन किया है | औपचारिक घोषणा नहीं हुई है, लेकिन कुशवाहा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा कर बता दिया कि वे राजग के साथ रहेंगे| अचानक विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) से भी भाजपा की नजदीकी बढ़ गई है| माना जा रहा है कि वह भी देर सवेर राजग से जुड़ेगी| हालांकि 2014 में वीआइपी बनी नहीं थी, लेकिन इसके नेता मुकेश साहनी भाजपा के लिए वोट मांग रहे थे|
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वीआइपी के संस्थापक मुकेश साहनी को केंद्र सरकार ने वाई प्लस सुरक्षा दी है| इसे भाजपा के साथ दोस्ती का संकेत माना जा रहा है| लोजपा के दोनों गुट चिराग और पारस के नेतृत्व में पहले से राजग में सम्मिलित हैं| कुल मिलाकर आज की तस्वीर यह है कि बिहार में राजग 2014 के स्वरूप में तो आ रहा है, उसके ओबीसी बढ़ रहे हैं, लेकिन भाजपा का मुकाबला 2014 के विरोधियों से नहीं 2015 के गठबंधन से है, जहां विरोधी एकजुट हो कर खड़े हैं|
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)