क्या इंदिरा गांधी ने भी नेशनल हेराल्ड चलाने के लिए किया था सत्ता का दुरुपयोग?
बात 1955 के आखिरी दिनों की है। उस वक्त नेशनल हेराल्ड एक बार फिर से आर्थिक संकट से जूझ रहा था। इसलिए समाचार-पत्र की मूल कंपनी, एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर और इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी ने उसे बेचने का मन बना लिया। इसके लिए फिरोज ने अपने ससुर और देश के प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू को भी राजी कर लिया।
जब यह बात इंदिरा गांधी को मालूम पड़ी तो वे एकदम ग़ुस्से से भर गयी और सीधे प्रधानमंत्री नेहरू के निजी सचिव, एमओ मथाई के कमरे में दाखिल हुई। उन्होंने मथाई को बताया कि फिरोज और अजित प्रसाद जैन दोनों मिलकर नेशनल हेराल्ड और अन्य सम्बंधित समाचार-पत्रों को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेता, चंद्रभानु गुप्त को बेचने की तैयारी कर रहे है।
इंदिरा ने मथाई को यह भी बताया कि हमारे पास समय बहुत कम है, क्योंकि दोनों लखनऊ जाने के लिए रेलवे स्टेशन भी पहुँच गए होंगे। उन्होंने मथाई से कहा कि हमें नेशनल हेराल्ड को किसी भी कीमत पर बिकने से रोकना होगा। मथाई ने तुरंत दिल्ली रेलवे स्टेशन के किसी अधिकारी को फोन लगाकर कहा कि फिरोज और अजित प्रसाद का पता लगाकर मुझे बताओ।
कुछ देर बार मथाई के पास एक फोन आया। फोन के दूसरी तरफ फिरोज और अजित थे। मथाई ने फोन का रिसीवर तुरंत इंदिरा को पकड़ा दिया। अब दोनों पति-पत्नी के बीच क्या बातचीत हुई, इसकी तो जानकारी उपलब्ध नहीं है। मगर नेशनल हेराल्ड का स्वामित्व नेहरू गांधी परिवार के हाथों से निकलने से बच गया।
एक तो पहले से ही नेशनल हेराल्ड वित्तीय संकट से निकल नहीं पा रहा था, ऊपर से जब से फिरोज उसके मैनेजिंग डायरेक्टर बने, तो वहां पैसे को लेकर संकट बिलकुल गहरा गया। ऐसा क्यों होता था, इसे समझाने के लिए मथाई ने अपनी पुस्तक, 'Reminiscences of the Nehru Age' में एक घटना का जिक्र किया है, "एक दिन फिरोज गांधी ने वित्त मंत्री, टीटी कृष्णामचारी को संसद में कुछ उल्टा बोल दिया। नेहरू ने इस घटना पर लाल बहादुर और मेरे सामने फिरोज के व्यवहार की घोर निंदा की और कहा कि यह फिरोज एकदम झूठा आदमी है।"
मथाई आगे लिखते है, "एक बार वीके कृष्णा मेनन ने भी मुझे बताया कि मैं फिरोज को लन्दन में स्कूल के दिनों से जानता हूँ। उसने वहां क्या पढाई की, यह तो मुझे नहीं पता लेकिन मेरा अपना अनुभव यह है कि फिरोज जन्मजात झूठा इंसान है।"
फिरोज के क्रियाकलापों के कारण ही नेशनल हेराल्ड उन दिनों वित्तीय संकट में आया था। फिर भी नेहरू ने उन पर कोई सख्त कार्यवाही नहीं की। उपरोक्त घटना के बाद समाचार-पत्र की जिम्मेदारी इंदिरा गांधी ने उठा ली और वित्तीय जुगाड़ के लिए मथाई को आगे कर दिया। मथाई ने तत्कालीन एटोर्नी जनरल, एमसी सीतलवाड़ से सहायता मांगी। सीतलवाड़ ने उन्हें एक ट्रस्ट बनाने को कहा और उससे सम्बंधित दस्तावेजी काम कांग्रेस के लोकसभा सांसद, सीसी शाह को सौपें गए।
इसके बाद ट्रस्ट का नाम क्या रखा जाये, इस पर विचार हुआ। इंदिरा ने 'जनहित ट्रस्ट' नाम सुझाया। हिंदी और अंग्रेजी के मिश्रण वाला यह नाम मथाई को पसंद नहीं आया और उन्होंने 'जनहित निधि' रखने का प्रस्ताव पेश किया जोकि सभी ने स्वीकार कर लिया। यह 'जनहित निधि' 1956 के शुरूआती महीनों में ही रजिस्टर्ड हो गयी। इंदिरा गाँधी, पीएन सप्रू और पद्मजा नायडू उसके ट्रस्टी बनाये गए।
मथाई ने देश भर के उद्योगपतियों से संपर्क कर नेशनल हेराल्ड को बचाने की गुहार लगायी। परिणामस्वरूप, इंडियन एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका ने 1 लाख 75 हजार की छपाई मशीन उपहार में दे दी। इसी प्रकार 'विशेष दरों' वाले विज्ञापनों के माध्यम से पैसा जुटाया गया। वर्ष 1955 और 1957 में इन 'विशेष दरों' वाले विज्ञापनों के द्वारा 8 लाख 42 हजार रुपए कंपनी को मिले। समाचार-पत्र को 'विशेष दरों' वाले विज्ञापन देने वालों में उस दौर के बड़े उद्योगपति जैसे मफतलाल, कस्तूरीभाई लालभाई, टाटा, और बिरला सहित कई नाम शामिल थे।
उधर जनहित निधि के माध्यम से भी एसोसिएट जर्नल लिमिटेड के लिए पैसा इकट्ठा करना शुरू किया गया। वर्ष 1956 से 1963 के बीच निधि को कुल 24 लाख 57 हजार से अधिक की आय हुई। इसी बीच निधि ने 25 लाख से अधिक की संपत्ति भी बना ली थी। यानि जितना पैसा जनता से इकट्ठा किया, उससे जमीनें खरीद ली गयी। अतः एक बार फिर नेशनल हेराल्ड को चलाने के लिए पैसे की कमी हो गयी।
हालत इस कदर बदतर हो गए थे कि इंदिरा गांधी सरकार नेशनल हेराल्ड में क्या हो रहा है, उसकी जानकरी संसद को देने से बचती थी। 28 नवम्बर 1969 को राज्यसभा में, भाई महावीर ने केंद्र सरकार से पूछा, "वर्ष 1968 में नेशनल हेराल्ड ने विभिन्न बैंकों से कितना ऋण लिया है? ऋण के बदले में जमानत के तौर पर क्या दिया गया है?" जवाब में, सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने कहा, "नेशनल हेराल्ड एक निजी संस्था है, इसलिए उसके बारे में जो जानकारी मांगी गयी है, वह सरकार के पास नहीं है।"
जिस समाचार-पत्र का स्वामित्व देश के दो प्रधानमंत्री - जवाहरलाल एवं इंदिरा और उनके परिवारजनों के पास हो, उसकी जानकारी संसद को देने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए थी। बल्कि यह तो स्वयं प्रधानमंत्रियों का दायित्व था, जिस संस्था से वे जुड़े है अथवा उनके नाम पर पैसा इकट्ठा हो रहा है, उसकी वित्तीय जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रहनी चाहिए। यह देश का दुर्भाग्य था कि ऐसा जानबूझकर नहीं किया गया।
वर्ष 1971 में, एकबार फिर नेशनल हेराल्ड लेनदेन में गड़बड़ियों को लेकर सुर्खियों था। इस बार उस पर आरोप था कि उसका पीटीआई और बीबीसी से क्रमशः 1 लाख 20 हजार और एक लाख रुपए का बकाया चल रहा है। मगर केंद्र की इंदिरा सरकार तय कर चुकी थी कि नेशनल हेराल्ड सम्बन्धी कोई जानकारी बाहर नहीं जाएगी। इसलिए राज्य सभा में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री नंदनी सत्पथी ने इस आरोप पर जवाब दिया, "पैसे का यह लेनदेन दो निजी संस्थाओं के बीच का है। इसमें सरकार की कोई जिम्मेदारी नही बनती है।"
पहली बात तो यह थी कि केंद्र सरकार की जवाबदेही हर हाल में बनती थी क्योंकि मामला सीधे प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से जुड़ा हुआ था। दूसरी बात, सरकार के बयान के अनुसार देश में कोई भी निजी कंपनी कितना भी पैसे का हेरफेर अथवा गबन करेगी तो उसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। अब इससे बड़ा कानून अथवा संविधान का क्या मजाक हो सकता है?
जब तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी तो किसी की हिम्मत नहीं थी कि वह नेशनल हेराल्ड को बंद करवा सके। क्योंकि अभी तक उसे सरकारी तंत्रों के माध्यम से गैर-कानूनी रूप से पैसा आसानी से मिल जाता था। नहीं तो, सरकारी विज्ञापनों की उसके लिए कोई कमी नहीं रहती थी। जैसे इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री रहते हुए पंजाब नेशनल बैंक ने एक बार कंपनी को 8 लाख रुपए का बिना किसी शर्त के ओवरड्राफ्ट दे दिया था। जबकि कंपनी पर वित्तीय हेरफेर के कई आरोप पहले से लगे हुए थे।
आपातकाल के दौर में, नेशनल हेराल्ड के लाभांश में एकाएक बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी। यह लाभ, वर्ष 1975 में 1 करोड़ 41 लाख, 1976 में 1 करोड़ 76 लाख, और 1977 में 2 करोड़ 45 लाख पहुँच गया था। जिस दिन देश में आपातकाल हटा, तो सामने आया कि कंपनी की कुल आय घटकर मात्र 25 हजार रुपए रह गयी है। यह सही है कि कंपनी को मोरारजी देसाई सरकार ने विज्ञापन देना बंद कर दिए थे। मगर इस समय तक नेशनल हेराल्ड ने करोड़ों रुपए की चल-अचल संपत्तियां बना ली थी। जिनसे कंपनी को किराया एवं अन्य माध्यमों से आय लगातार होती रहती थी। जैसे एसोसिएट जर्नल ने सालाना एक लाख रुपए के किराये पर अपना एक भवन आइबीएम को दिया हुआ था।
हालाँकि, जैसा फिरोज के समय होता था कि कंपनी का पैसा समाचार-पत्र को मिलता ही नहीं था। वैसा ही इंदिरा गाँधी के समय होने लगा था। इसलिए लाखों-करोड़ों रुपए उद्योगपतियों से, उपहार के माध्यम से, सरकारी विज्ञापन से, बैंकों से ऋण, चल-अचल संपत्तियां और उनके किराये से प्राप्त होने के बावजूद भी वर्ष 1977 में कंपनी ने अपने 500 कर्मचारियों को वेतन देना भी बंद कर दिया था। आये दिन कंपनी के खिलाफ हड़तालें होने लगी थी। अतः अपने काले कारनामों को छुपाने के लिए नेशनल हेराल्ड के एक बार फिर बंद होने की खबरें देश भर की सुर्खियाँ बन गयी।
यह भी पढ़ेंः लोकाचार में बढते भ्रष्टाचार पर मारक प्रहार का इंतजार
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)