Lok Sabha Elections 2019 : भाजपा और कांग्रेस की मजबूरी है, क्षेत्रीय दल जरूरी हैं
नई दिल्ली। एक बार फिर आम चुनाव है और फिर यह साबित होने जा रहा है कि दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां कांग्रेस और भाजपा क्षेत्रीय दलों और छोटी-छोटी पार्टियों के भरोसे ही हैं। दोनों को यह मजबूरी पता है कि बिना क्षेत्रीय दलों के सहयोग के वे केंद्र में सरकार बनाने की स्थिति नहीं हैं। यह स्थिति तब है जब बीते कई दशकों से राजनीतिक हलकों में दो दलीय शासन व्यवस्था को लेकर बहसें होती रही हैं। दो दलीय शासन व्यवस्था के पक्ष में बहुत सारे तर्क दिए जाते रहे हैं। इसका सर्वाधिक लाभ आजादी के बाद के कुछ दशकों तक कांग्रेस उठाती रही है जब उसका एकछत्र राज हुआ करता था। बाद में जैसे-जैसे भाजपा की ताकत बढ़ती गई और जब वह सरकार बनाने की स्थिति आती गई, तब उसकी ओर से दो दलीय व्यवस्था की मांग ज्यादा मजबूती के साथ उठाई जाने लगी। लेकिन वैसे हालात अभी तक नहीं बन पाए। तब भी नहीं जब बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत भी मिल गया।
केंद्र में भाजपा की सरकार पहले भी बन चुकी थी लेकिन यह 2014 में पहली बार हुआ था कि उसे बहुमत मिला था। इसके बाद भाजपा यह विश्वास कर सकती थी कि अब मतदाता परिपक्व हो चुका है और वह राष्ट्रीय पार्टियों को ही सत्ता सौंपना चाहता है। लेकिन यह स्वीकार कर पाना इसलिए आसान नहीं हो सकता था कि उस चुनाव पर दूसरे नंबर पर आई सबसे पुरानी वह राष्ट्रीय पार्टी जिसने देश में लंबे समय तक राज किया था पहली बार दो अंकों पर आकर सिमट गई थी। इसके विपरीत कई क्षेत्रीय दलों को अच्छी-खासी सफलता मिली थी।
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इसके साथ ही एक तरह से यह स्पष्ट हो गया था कि अभी देश में ऐसे हालात नहीं बने हैं कि दो दलीय व्यवस्था को लेकर किसी तरह का मोह पाला जा सके। शायद भाजपा को भी यह समझ में आ गया था कि उसे बहुमत भले ही मिल गया है, लेकिन बिना क्षेत्रीय दलों के अभी भी उसकी नैया पार होने वाली नहीं है। यही कारण रहा होगा कि भाजपा ने अपनी सरकार में सभी गठबंधन सहयोगियों को उनकी हैसियत के हिसाब से सत्ता में हिस्सेदारी दी। यह अलग बात है कि क्षेत्रीय दल आरोप लगाते रहे कि उन्हें इज्जत नहीं दी जा रही है और एक-एक कर वे भाजपा का साथ छोड़ते भी रहे जो क्रम अभी भी जारी है।
अब जबकि चुनावों की घोषणा की जा चुकी है दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां गठबंधन सहयोगी के तौर क्षेत्रीय दलों को अपने साथ लाने की हरसंभव कोशिश में लगी हैं क्योंकि उन्हें पता है कि बिना उनके केंद्र में सरकार बन पाना आसान नहीं होगा। हालांकि इसकी कोशिशें चुनाव की घोषणा के पहले से ही शुरू हो चुकी हैं। अब उसमें तेजी आ रही है। लेकिन इसी के साथ एक सच्चाई यह भी कि कई क्षेत्रीय दल आसानी से इन दोनों में से किसी एक के साथ आसानी से जुड़ने को तैयार नहीं है। सत्ताधारी भाजपा के सामने तो यह संकट इस तरह का रहा है कि उसके अपने ही मजबूत और पुराने सहयोगी तक आंख दिखाते रहे हैं। इसलिए उन्हें ही मनाकर अपने पाले में बनाए रखना उसके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती रही है। यह अलग बात है कि इसमें उसे काफी हद तक सफलता भी मिली है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में शिवसेना बीते पांच सालों तक लगातार भाजपा के खिलाफ खड़ी होती रही है। कई बार ऐसे हालात भी बनते दिखे लोगों में यह चर्चा रही कि वह भाजपा का साथ छोड़ सकती है। आखिर भाजपा को उसे मनाना पड़ा और किसी तरह समझौता बरकरार रहा।
कुछ इसी तरह बिहार में लोकजनशक्ति पार्टी के साथ हुआ। एक समय ऐसा लगने लगा था कि लोकजनशक्ति पार्टी भी एनडीए से अलग हो सकती है। लेकिन समय रहते भाजपा ने उसके भी असंतोष को सुलझाने की कोशिश की और वह इसके लिए तैयार भी हो गई। लेकिन उसी बिहार में भाजपा की एक और गठबंधन सहयोगी रही रालोसपा न केवल खुद को एनडीए से अलग हो गई बल्कि महागठबंधन के साथ चली गई। जम्मू कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में भाजपा को अगर सफलता मिली थी तो वह गठबंधन सहयोगियों के बल पर ही मिली थी, लेकिन उनमें भी पीडीपी और असम गण परिषद जैसे कितने ही सहयोगी साथ छोड़ चुके हैं। तमिलनाडु में उसे एआईडीएमके का सहारा है तो दक्षिण में तेलंगाना में टीआरएस और आंध्र में जगन मोहन रेड्डी का। मतलब साफ है कि बिना क्षेत्रीय दलों के सहयोग के भाजपा की नैया पार लगना मुश्किल ही लगती है।
कांग्रेस की हालत भी कुछ इसी तरह की मानी जा सकती है। उसके भी कुछ गठबंधन सहयोगी उसके साथ खड़े हैं तो कई अलग भी हुए हैं। कई क्षेत्रीय दलों के बारे में माना जा रहा था कि वे कांग्रेस के साथ जुड़ सकते हैं, लेकिन अब एक तरह से साफ हो चुका है कि वे अपने बल पर ही लड़ेंगे या छोटे दलों के साथ गठबंधन में जाएंगे। देश के सबसे बड़े और ज्यादा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में माना जा रहा था कि सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस का गठबंधन हो जाएगा। लेकिन अंतिम समय में ऐसा नहीं हो पाया। हालांकि अभी भी इस आशय की खबरें आती रहती हैं कि अंदरखाने बातचीत चल रही है और किसी समझौते पर पहुंचा जा सकता है। लेकिन उसकी संभावना धूमिल ही ज्यादा लगती है। यह अलग बात है कि राज्य की तीनों पार्टियां किसी न किसी रूप में पहले साथ रही हैं। कम से कम इस चुनाव में लग रहा था कि ये साथ रहेंगी।
पश्चिम बंगाल और दिल्ली में कांग्रेस का आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन न हो पाना एक तरह से तय ही माना जा रहा है। हालांकि तमिलनाडु में डीएमके, महाराष्ट् में एनसीपी, कर्नाटक में जेडीएस और बिहार में आरजेडी के साथ उसका गठबंधन है। पूर्वोत्तर के राज्यों में उसे अभी भी उम्मीद है कि कुछ क्षेत्रीय दलों के साथ उसका गठबंधन हो सकता है। कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ कांग्रेस की कुछ समझदारी बन सकती है। लेकिन इसका रूप क्या होगा, यह भविष्य में ही तय हो पाएगा। मतलब साफ है कि दोनों ही दलों की क्षेत्रीय दलों पर अभी भी निर्भरता ज्यादा है। तो क्या मान लिया जाए कि देश में दो दलीय शासन व्यवस्था की स्थितियां अभी नहीं बनी हैं और क्षेत्रीय दलों पर निर्भरता बनी रहेगी।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
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