Kerala Governor vs Govt: विश्वविद्यालय उपकुलपतियों की नियुक्ति पर बढ़ते राजनीतिक विवाद
Kerala Governor vs Govt: जब से केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने राज्य के विश्वविद्यालयों के राजनीतिकरण को रोकने के प्रयास शुरू किए हैं, मीडिया का एक वर्ग इसे सही परिपेक्ष में जनता के सामने रखने की बजाए केंद्र राज्य संबंधों में टकराव के रूप में पेश कर रहा है। अथवा इसे केंद्र सरकार की तरफ से गैर भाजपा सरकारों के खिलाफ राज्यपालों के दुरूपयोग के रूप में दिखाया जा रहा है।
सिर्फ केरल ही नहीं, बल्कि तमिलनाडु में भी विश्वविद्यालयों में उप-कुलपतियों की नियुक्ति पर राज्यपाल और मुख्यमंत्री में टकराव की नौबत है। इससे पहले पश्चिम बंगाल में भी राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच विश्वविद्यालयों को लेकर टकराव हुआ था। राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस द्वारा 2019 में जाधवपुर विश्वविद्यालय और 2020 में कोलकात्ता विश्वविद्यालय में राज्यपाल और कुलाधिपति जगदीप धनकड़ के खिलाफ प्रदर्शन करवाए गए।
2021 में जगदीप धनकड़ ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि राज्य के 24 विश्वविद्यालयों में उप-राज्यपालों की नियुक्ति अवैध तरीके से की गई। वहां राज्यपाल के हस्ताक्षरों के बिना ही उप-कुलपतियों की नियुक्ति कर दी गई। विश्वविद्यालयों में उप-कुलपतियों की नियुक्ति हमेशा से राज्य सरकारों का राजनीतिक एजेंडा रहा है। कम्युनिस्टों ने अपनी विचारधारा का विस्तार करने के लिए हमेशा इस पद को हथियार की तरह इस्तेमाल किया।
इंदिरा गांधी के साथ मिल कर उन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों में कम्युनिस्ट विचारधारा के उप-कुलपति बनवा कर शिक्षा के मन्दिरों को वामपंथी मठ बना दिया, जिससे भारतीय विचार और दर्शन न सिर्फ दब कर रह गए, बल्कि नई पीढी के मन में भारतीय संस्कृति के प्रति नफरत पैदा कर दी गई।
जहां जहां क्षेत्रीय दल सत्ता में आने लगे, वहां वहां कम्युनिस्टों ने उन क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल बिठा कर अपना खेल जारी रखा। वामपंथ का यह खेल मीडिया में भी इसी तरह चलता रहा। जब तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार चलती रही राज्यपालों के साथ मिल कर कांग्रेस-कम्युनिस्ट का यह घालमेल चलता रहा।
विश्वविद्यालयों का किस तरह राजनीतिकरण हुआ, जेएनयू और जाधवपुर यूनिवर्सिटी में हुई घटनाएं उसका उदाहरण हैं, जहां नक्सलियों के साथ मुठभेड़ में पुलिसकर्मियों की हत्याओं पर जश्न मनाया गया। संसद पर हमला करने वाले आतंकियों का महिमामंदन किया जाता रहा है।
जैसे ही केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ कम्युनिस्टों का खेल बिगड़ गया। मीडिया में चलती रही एकतरफा हवा पर भी रोक लगी है और विश्वविद्यालयों में भी शिक्षा के प्रति समर्पित, अनुभवी शिक्षाविदों की नियुक्तियां होने लगी। जिससे कम्युनिस्ट विचारधारा के शिक्षकों और छात्रों में केंद्र सरकार के खिलाफ छटपटाहट शुरू हुई। नागरिकता संशोधन क़ानून के खिलाफ विश्वविद्यालयों के राजनीतिक दुरूपयोग का उदाहरण सबके सामने है।
केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु इस के ताज़ा उदाहरण हैं, जहां गैर भाजपा सरकारों ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की नियमावली का उलंघन कर कुलपतियों की नियुक्तियां शुरू कर दी हैं।
नियमावली के अनुसार राज्य सरकार एक सर्च कमेटी बनाएगी और सर्च कमेटी कम से कम तीन नाम सुझाएगी, जिन्हें राज्यपाल के पास भेजा जाएगा, जो राज्य में विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति होता है। राज्यपाल उनमें से एक उपयुक्त नाम का चयन कर के उप-कुलपति नियुक्त करेगा। जिन तीन राज्यों का जिक्र किया गया है, उन तीनों ही राज्यों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की नियमावली का उलंघन करके नियुक्तियां हुई।
केरल का ताज़ा टकराव सुप्रीमकोर्ट के एक फैसले से शुरू हुआ है, इसलिए इसे राज्यपाल का राज्य सरकार से या केंद्र का राज्य से टकराव बता कर पेश करना मीडिया की बेईमानी है।
केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने यूजीसी के नियमों की अवहेलना कर के एपीजे अब्दुल कलाम विश्वविद्यालय में मनमाने ढंग से एम.एस. राजश्री की उपकुलपति के तौर पर नियुक्ति कर दी थी। एक उम्मीदवार डा. पी.एस. श्रीजीत ने इस नियुक्ति को हाईकोर्ट में चुनौती दी, हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की नियुक्ति को ठीक ठहराया, जिसे पी.एस. श्रीजीत ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। जहां राज्य सरकार ने कहा कि उसने यूजीसी के 2013 के संशोधित नियमों को नोटिफाई नहीं किया, इसलिए उस पर संशोधित नियम लागू नहीं होते।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बैंच ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 254 के अनुसार केन्द्रीय क़ानून ही प्रभावी होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि यूजीसी के नियम ही लागू होंगे, अगर यूजीसी के नियमों के मुताबिक़ कुलाधिपति को 3 से 5 नामों की सिफारिश नहीं की गई, तो नियुक्ति अवैध होगी।
इस तरह केरल की कम्युनिस्ट सरकार की ओर से यूजीसी के नियमों और कुलाधिपति की अवहेलना करके एपीजे अब्दुल कलाम विश्वविद्यालय में मनमाने ढंग से की गई एम.एस. राजश्री की उपकुलपति के तौर पर नियुक्ति रद्द कर दी गई। अब यह अकेला मामला नहीं था, केरल सरकार ने 11 विश्वविद्यालयों में इसी तरह की नियुक्तियां की थीं। सुप्रीमकोर्ट के फैसले के आधार पर कुलाधिपति ने उन सभी उपकुलपतियों से भी इस्तीफे मांग लिए। यहीं से विवाद राजनीतिक हो गया।
केरल के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री अपने राज्यपाल से राजनीतिक लड़ाई नहीं लड रहे, बल्कि सुप्रीम कोर्ट से लड़ रहे हैं। 9 नवंबर को मुख्यमंत्री ने केबिनेट से एक ऐसा अध्यादेश पास करवाया है, जहां राज्यपाल को कुलाधिपति पद से हटा कर नई व्यवस्था बनाने का प्रावाधान है। हालांकि यह यूजीसी के नियमों और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी उल्लंघन है। सुप्रीमकोर्ट अपने इसी फैसले में कह चुका है कि राज्य सरकार का कोई क़ानून केंद्र के क़ानून पर प्रभावी नहीं हो सकता। राज्य के कानून और केंद्रीय कानून के बीच किसी भी तरह के विरोध की स्थिति में केंद्रीय कानून मान्य होगा, क्योंकि शिक्षा को संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची में रखा गया है।
इसलिए केबिनेट का पास किया हुआ कोई भी अध्यादेश क़ानून सम्मत होना चाहिए, इस मामले में केरल की केबिनेट का पास किए हुए अध्यादेश की पहले कानूनी समीक्षा होगी। हो सकता है राज्यपाल उसे राष्ट्रपति या सुप्रीमकोर्ट को ही भेजें।
इसीलिए राज्यपाल ने चुनौती दी है कि राज्य सरकार उस अध्यादेश को उनके पास भेजे तो सही, स्वाभाविक है कि राज्यपाल उस अध्यादेश पर दस्तखत नहीं करेंगे और देश भर के कम्युनिस्टों द्वारा इस तरह का नेरेटिव बनाने की कोशिश भी होगी कि राज्यपाल जनादेश का उलंघन कर रहे हैं। हालांकि तमिलनाडु, बंगाल और महाराष्ट्र की सरकारें कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपालों की भूमिका नगण्य कर चुके हैं।
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