CAA के आईने में फैज का सियासी चेहरा, क्या हिंदू विरोधी है उनकी नज्म?
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नई दिल्ली। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विवाद की लपट पाकिस्तान के मरहूम शायर फैज अहमद फैज तक पहुंच गयी है। अब सीसीए की बजाय बहस इस बात पर हो रही है कि फैज की नज्म 'हम देखेंगे..’ हिन्दू विरोधी है या नहीं। सीसीए की धमक आखिर फैज तक कैसे पहुंची ? कौन हैं फैज अहमद फैज जिनकी नज्म की दो पंक्तियों पर बवाल मचा हुआ है ? साहित्य से वास्ता रखने वाले लोग तो फैज से वाकिफ हैं लेकिन अब सीसीए विवाद ने उन्हें सियासत की दुनिया में भी चर्चित बना दिया है। फैज अहमद फैज हिन्दुस्तान के बंटवारे के बाद पाकिस्तान में रह गये थे। पाकिस्तान में उन्हें इज्जत मिली तो जिल्लत भी झेलनी पड़ी। पाकिस्तान बनने के चार साल बाद ही फैज को तख्तापलट के आरोप में जेल जाना पड़ा। इस अजीम शायर को चार साल तक जेल की कालकोठरी में गुजारनी पड़ी। उन्हें 'पोएट ऑफ द ईस्ट’ कहा जाता था। 1984 में उनका नाम साहित्य के नोबेल प्राइज के लिए नॉमिनेट हुआ लेकिन मिल नहीं पाया था।
क्या है विवाद
विचारधारा के आधार पर सीएए का समर्थन या विरोध किया जा रहा है। भाजपा इस कानून का समर्थन कर रही है तो कांग्रेस और वामपंथी इसका विरोध कर रहे हैं। सीएए के खिलाफ जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने दिल्ली में हिंसक प्रदर्शन किया था जिस पर पुलिस ने कार्रवाई की थी। आइआइटी कानपुर के वामपंथी रुझान वाले छात्रों ने पुलिस की इस कार्रवाई को बर्बर करार दिया था। उन्होंने 17 दिसम्बर 2019 को आइआइटी कानपुर के कैम्पस में सीएए के खिलाफ एक विरोध मार्च निकाला था। इस विरोध मार्च में छात्रों ने फैज अहमद फैज की नज्म- हम देखेंगे- को गा कर अपना आक्रोश प्रकट किया था। छात्रों के दूसरे धड़े ने फैज की इस नज्म की दो पंक्तियों पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप लगाया। ये पंक्तियां हैं-
हम देखेंगे
लाजिमी है कि हम भी देखेंगे
वो दिन जिसका कि वादा है
जब अर्जे खुदा के काबे से
सब बुत उठावाए जाएंगे
..................
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाजिर भी
इस नज्म की 'बुत उठवाए जाएंगे' पंक्ति को हिन्दू विरोधी बताये जाने पर आइआइटी प्रशासन ने पूरे घटनाक्रम की जांच का आदेश दे दिया। जांच के दायरे में यह भी था कि क्या फैज की यह नज्म हिन्दू विरोधी है ? आइआइटी कानपुर के इस आदेश पर पूरे देश में राजनीतिक वितंडा खड़ा हो गया। मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने एक आलेख में बताया है कि फैज ने बुत शब्द का इस्तेमाल हिन्दू देवी देवताओं के लिए नहीं बल्कि पाकिस्तान के फौजी तानाशाह जियाउल हक के लिए किया था। इस नज्म में अर्जे खुदा शब्द भी इस्तेमाल हुआ है। इसका मतलब है जमीन का खुदा। फैज के लिखने का मतलब है यह है कि ये जमीन खुदा की है लेकिन इस पर रहने वाले कुछ लोग खुद को खुदा समझने लगते हैं। इस सोच की वजह से वे जुल्म भी करने लगते हैं। फैज ने जियाउल हक के जुल्म के खिलाफ 1979 में ये नज्म लिखी थी। फैज कम्युनिस्ट थे। मजहबी लोग उन्हें नास्तिक मानते हैं। इसलिए वे किसी धर्म के समर्थन में या विरोध में दिलचस्पी नहीं रखते थे।
रावलपिंडी कॉन्सपिरेसी (1951)
फैज अहमद फैज का जन्म संयुक्त भारत के पंजाब प्रांत के नरोवल में हुआ था। उनके पिता सुल्तान खान बैरिस्टर थे। भारत के बंटवारे का बाद नरोवल पाकिस्तान में पड़ गया। फैज पाकिस्तान में ही रह गये। उन्होंने अरबी में बीए और अंग्रेजी से एम किया था। 1947 में जब पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई तो फैज ने इसमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी को उस समय सोवियत संघ का समर्थन हासिल था। भारत और पाकिस्तान का जन्म नफरत की जमीन पर हुआ था। आजादी के एक साल बाद ही 1948 में दोनों के बीच कश्मीर मसले पर युद्ध हो गया। कश्मीर युद्ध में पाकिस्तान की हार हुई। इस हार से पाकिस्तानी सेना तिलमिला गयी। उसने हार का ठीकरा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पर फोड़ा। पाकिस्तानी सेना का एक गुट तीन कारणों से नाराज था। इस गुट का नेतृत्व मेजर जनरल अकबर खान कर रहे थे। इस गुट की नाराजगी की पहली वजह यह थी कि वह तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खां की सरकार को भ्रष्ट और अयोग्य मानता था। दूसरी वजह यह कि लियाकत अली खां ने कश्मीर समस्या को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ठीक से उठाया नहीं था। संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता और युद्धविराम को स्वीकारना पाकिस्तान सरकार की बड़ी भूल थी। पाकिस्तानी सेना का मानना था कि अगर युद्ध जारी रहता तो वह पूरा कश्मीर जीत सकती थी। तीसरा यह कि यह गुट ब्रिटिश अधिकारियों को पाकिस्तानी सेना में बनाये रखने से खफा था क्यों कि इससे उनके प्रमोशन में बाधा आ रही थी। मेजर जनरल अकबर खान तब रावलपिंडी आर्मी बेस में तैनात थे। उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खां को सत्ता से बेदखल करने के लिए तख्तापलट की गुप्त योजना बनायी।
तख्तापलट के आरोप में फैज को जेल
फैज अहमद फैज तब शायर होने के साथ-साथ एक कम्युनिस्ट नेता के रूप में भी मशहूर हो चुके थे। उस समय सैयद सज्जाद जहीर पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे। कहा जाता है कि फैज और जहीर भी लियाकत सरकार के कामकाज से नाखुश थे। मेजर जनरल अकबर खान का झुकाव भी वामपंथ की तरफ था। आरोप है कि सेना के अकबर गुट ने वामपंथी नेताओं के सहयोग से 9 मार्च 1951 को लियाकत खान को बेदखल कर खुद सत्ता हथियाने की योजना बना ली थी। लेकिन इस बीच अकबर गुट के एक सैनिक ने पाकिस्तान सरकार तक ये सूचना पहुंचा दी। उस समय जनरल अयूब खान पाकिस्तानी सेना के चीफ थे। वे लियाकत सरकार के समर्थक थे। जनरल अयूब खान ने रावलपिंडी आर्मी बेस को चारों तरफ से घेर लिया। मेजर जनरल अकबर खान और उनके साथी अफसरों को गिरफ्तार कर लिया गया। इस साजिश में शामिल होने के लिए फैज अहमद फैज और सैयद सज्जाद जहीर को भी गिरफ्तार किया गया। रावलपिंडी कॉन्सपिरेसी की सुनवाई के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल बना। 18 महीने तक गुप्त सुनवाई चली जिसमें मेजर जनरल अकबर खान और फैज अहमद फैज को दोषी करार दिया गिया। इस सजा के कारण फैज को चार तक जेल में रहना पड़ा। कहा जाता है कि इस साजिश में सोवियत संघ के जासूस भी शामिल थे लेकिन इसे प्रमाणित नहीं किया जा सका।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)