Green Hydrogen: हाइड्रोजन ऊर्जा के उपयोग से धन भी बचेगा और जीवन भी
जीवाश्म ईंधन के खतरों को कम करने के लिए जर्मनी, ऑस्ट्रिया, ब्रिटेन जैसे कई देश हाइड्रोजन ऊर्जा को अपना रहे हैं। महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन के ऐलान के साथ भारत ने भी इस दिशा में एक शानदार छलांग लगाई है।
Green Hydrogen: करीब छह महीनों से हाइड्रोजन फ्यूल से जुड़ी खबरें लगातार सुर्ख़ियों में हैं। पिछले साल 21 अगस्त को देश की पहली पूर्ण स्वदेशी हाइड्रोजन बस लॉन्च हुई। इसके एक ही सप्ताह बाद जर्मनी ने दुनिया की पहली हाइड्रेल (हाइड्रोजन ट्रेन) चला दी। कुछ दिन बाद, टीवीएस, बीएमडब्ल्यू और टोयटा जैसी वाहन निर्मात्री कंपनियों ने हाइड्रोजन वाहनों का उत्पादन करने के संकेत देने शुरू कर दिये। दिल्ली सरकार, इंडियन ऑयल कारपोरेशन के साथ मिलकर 50 हाइड्रोजन समृद्ध सीएनजी बसों का टेस्ट रन कर रही है।
इस मामले में नए साल का पहला हफ्ता कुछ ज्यादा घटना प्रधान रहा है। सोमवार को चीन में एशिया की पहली हाइड्रोजन रेल की शुरुआत, चार जनवरी को एनटीपीसी द्वारा गुजरात में देश की पहली हरित हाइड्रोजन मिश्रण परियोजना का आरम्भ, फिर हमारे रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव द्वारा इस साल दिसंबर तक देश में हाइड्रोजन ट्रेन चलाने की घोषणा। इतने कम अरसे में इतनी सारी खबरें इस बात का संकेत है कि कैसे हरित हाइड्रोजन भविष्य का ईंधन बनने जा रही है।
बीस हजार करोड़ का बजट
बुधवार
को
केन्द्रीय
मंत्रिमंडल
ने
19,744
करोड़
रुपये
लागत
वाले
राष्ट्रीय
हरित
हाइड्रोजन
मिशन
को
मंजूरी
दे
दी
है।
इस
मिशन
की
घोषणा
प्रधानमंत्री
नरेन्द्र
मोदी
ने
2021
में
अपने
स्वतंत्रता
दिवस
भाषण
के
दौरान
की
थी।
योजना
की
तरह
इसके
लक्ष्य
और
अनुमान
भी
अत्यंत
महत्वाकांक्षी
हैं।
बताया
गया
है
कि
इस
मिशन
के
आरंभ
हो
जाने
के
बाद
हरित
हाइड्रोजन
मिशन
से
जुड़े
विभिन्न
क्षेत्रों
में
आठ
लाख
करोड़
का
निवेश
और
छह
लाख
से
अधिक
नयी
नौकरियाँ
आने
की
उम्मीद
है,
मिशन
का
लक्ष्य
पाँच
वर्ष
के
भीतर
सालाना
50
लाख
टन
हरित
हाइड्रोजन
उत्पादन
करने
की
क्षमता
हासिल
करना
है।
इससे
वर्ष
2030
तक
नवीकरणीय
ऊर्जा
क्षमता
को
सवा
लाख
मेगावाट
तक
बढ़ाया
जा
सकेगा
और
जीवाश्म
ईंधन
के
आयात
में
एक
लाख
करोड़
रुपये
तक
की
कमी
लायी
जा
सकेगी।
नया नहीं है हाइड्रोजन ईंधन का प्रयोग
हाईड्रोजन शब्द सुनते ही हमें एक नवाचारी विचार का ख्याल आता है। जबकि वास्तविकता यह है कि हाइड्रोजन का इस्तेमाल कर 1937 में जर्मनी अपने पैसेंजर एयरशिप एलजेड 129 को हिंडनबर्ग से अटलांटिक पार पहुंचा चुका है और साठ के दशक में नासा अपना अपोलो मिशन चंद्रमा तक भेज चुका है। असल में यह हाइड्रोजन ग्रे हाइड्रोजन है जो जीवाश्म स्रोतों से अर्जित होता है। आज सबसे ज्यादा उत्पादन और इस्तेमाल इसी का होता है।
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट एन्ड वाटर - सेंटर फॉर एनर्जी फाइनेंस की रिपोर्ट बताती है कि कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का तीस फीसदी सीमेंट, स्टील, केमिकल, फर्टीलाइजर, रिफाइनरी आदि फैक्ट्रियों की वजह से होता है। अगर इन्हें ग्रीन हाइड्रोजन अपनाने के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित किया जा सके तो इस उत्सर्जन को रोकने में काफी मदद मिलेगी। ग्रे हाइड्रोजन हाइड्रोकार्बन ( जीवाश्म ईंधन, प्राकृतिक गैस) से निकाला जाता है और भारत में कुल हाइड्रोजन उत्पादन में सबसे ज्यादा यही हाइड्रोजन होता है।
इससे कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित होती है। इसी प्रकार ब्लू हाइड्रोजन भी जीवाश्म ईंधन से प्राप्त होती है। लेकिन यह ग्रे से थोड़ा बेहतर है, क्योंकि इसमें बायो प्रॉडक्ट के रूप में मिलने वाली कार्बन डाई आक्साइड को सुरक्षित रूप से एकत्रित कर लिया जाता है।
हाइड्रोजन का सर्वश्रेष्ठ रूप है ग्रीन हाइड्रोजन। इसे प्राप्त करने के लिए बिजली का इस्तेमाल कर पानी को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में बांट दिया जाता है। इसके बायोप्रॉडक्ट ऑक्सीजन और भाप आदि हैं जो पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए निरापद हैं।
पर्यावरण सुरक्षा के साथ आत्मनिर्भरता भी
ज्ञातव्य है कि वर्तमान में भारत अपनी ऊर्जा जरूरतें पूरी करने के लिए बहुत हद तक आयात पर निर्भर है। वह 86 प्रतिशत तेल, 54 प्रतिशत गैस, 85 प्रतिशत सोलर एनर्जी उपकरण और भारी मात्रा में कोयला आयात के माध्यम से ही हासिल करता है। हालांकि, यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियाँ और प्राकृतिक तत्वों की प्रचुरता में मौजूदगी के चलते भारत को इस क्षेत्र में काफी बढ़त हासिल हो सकती है। लेकिन अभी एशिया पैसेफिक क्षेत्र में जापान और दक्षिण कोरिया शीर्ष पर है, जो क्रमश: 2017 और 2020 में ही अपनी हाइड्रोजन नीति तैयार कर उस पर अमल भी शुरू कर चुके हैं।
ऐसे में भारत अगर अपनी इस योजना में सफल रहता है तो जीवाश्म ईंधन में आयात निर्भरता कम करने के साथ-साथ वह पेरिस समझौते के अन्तर्गत अपने उत्सर्जन लक्ष्यों को भी प्राप्त कर सकेगा। साथ ही वह स्वच्छ ऊर्जा निर्यात कर आर्थिक रूप से भी काफी लाभ कमा सकता है।
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संभावनाओं के साथ कई चुनौतियां भी
इस क्षेत्र में सब कुछ बहुत अच्छा भले ही लगता हो पर आसान नहीं हैं। इलेक्ट्रिक कार क्रान्ति की जनक मानी जाने वाली टेस्ला के प्रमुख एलन मस्क हाइड्रोजन फ्यूल सेल्स को 'फूल सेल्स' कहकर उसका मखौल बनाते हैं। मस्क अगर ऐसा कहते हैं तो इसे हम व्यावसायिक खीझ कह सकते हैं।
लेकिन, उन तथ्यों की अनदेखी भी नहीं की जानी चाहिए जो ग्रीन हाइड्रोजन मिशन की राह में आने वाली चुनौतियों की ओर इशारा कर रहे हैं। इनमें सबसे पहली है, इसकी अधिक उत्पादन लागत और इसकी वजह से बढ़ी हुई कीमत। यह इस समय करीब छह डॉलर प्रति किलो है। पारंपरिक ईंधन से चार-पाँच गुना ज्यादा कीमत चुकाने में ग्राहक हिचकेगा। दूसरे, देश की सड़कों पर मौजूद करोड़ों वाहनों को ग्रीन हाइड्रोजन से चलने वाले वाहनों में बदलने में भी दशकों लग सकते हैं। तीसरी चुनौती इन्हें सुरक्षित बनाना है, क्योंकि हाइड्रोजन एक ज्वलनशील गैस हैं और कभी भी दुर्घटना का सबब बन सकती है।
इसके अलावा, इसे पानी से अलग करने के लिए एक बहुत विशाल इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होगी। उसका निर्माण और स्टोरेज क्षमता का विकास भी कुछ ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं, जिनका उत्तर शीघ्र खोजना होगा। इसके बिना उन लक्ष्यों की प्राप्ति मुश्किल ही होगी, जिनकी उम्मीद इस क्रांति के उद्घोष के जरिये जगायी जा रही है।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)