अशिष्टता और बदज़ुबानी की सारी सीमाएं टूट गईं अधीर रंजन के बयान से
अधीर रंजन का पूरा बयान सुनने के बाद साफ समझ में आता है कि उन्होंने जान-बूझकर और शरारतपूर्ण मंशा से राष्ट्रपति मुर्मू के लिए दो बार राष्ट्रपत्नी शब्द का प्रयोग किया।
राजनीति का स्तर दिन प्रतिदिन किस तरह से गिरता जा रहा है और खास कर विपक्ष की राजनीति किस तरह से मानसिक दिवालियापन के दौर से गुज़र रही है, कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी का ताज़ा बयान इसकी एक बानगी भर है। अधीर रंजन चौधरी कोई मामूली नेता नहीं हैं। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने लोकसभा में उन्हें अपने संसदीय दल का नेता बना रखा है। ऐसे में उनसे और भी अधिक ज़िम्मेदारी की अपेक्षा की जाती है, लेकिन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को "राष्ट्रपत्नी" कहकर अधीर रंजन चौधरी ने अशिष्टता और बदज़ुबानी की सारी सीमाएं लांघ डाली हैं।
अधीर रंजन का पूरा बयान सुनने के बाद साफ समझ में आता है कि उन्होंने जान-बूझकर और शरारतपूर्ण मंशा से राष्ट्रपति मुर्मू के लिए दो बार राष्ट्रपत्नी शब्द का प्रयोग किया। उनके बयान को ठीक से सुनने के बाद यह भी स्पष्ट है कि उन्हें भी पता है कि महिला राष्ट्रपति को भी राष्ट्रपति ही कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने स्वयं ही पहले राष्ट्रपति ही बोला। लेकिन इसके बाद घोर अशिष्टता दिखाते हुए वे रुके और बेहद व्यंग्यात्मक लहज़े में ज़ोर देकर दो बार राष्ट्रपत्नी बोला।
किसी महिला राष्ट्रपति को मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति ने भी आज तक राष्ट्रपत्नी नहीं कहा, क्योंकि ऐसा कहे जाने की कोई तुक ही नहीं है। राष्ट्रपति शब्द में पति का अर्थ हसबैंड नहीं है कि राष्ट्रपति पद पर यदि कोई महिला विराजमान हो जाए, तो उसे राष्ट्र की वाइफ घोषित कर दिया जाए। यहां पति का अर्थ है- स्वामी, अधिष्ठाता, सर्वोच्च व्यक्ति। जैसे भूपति, अधिपति, नरपति, सुरपति, कुलपति, सेनापति, सभापति इत्यादि शब्दों में भी पति का अर्थ हसबैंड नहीं होता है। क्या आपने आज तक इन शब्दों का स्त्रीलिंग रूप भूपत्नी, अधिपत्नी, नरपत्नी, सुरपत्नी, कुलपत्नी, सेनापत्नी या सभापत्नी इत्यादि सुना है?
ऐसा भी नहीं है कि द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली महिला राष्ट्रपति हैं, और इसलिए लोगों में किसी महिला के लिए राष्ट्रपति शब्द के उपयोग को लेकर कन्फ्यूजन है। द्रौपदी मुर्मू से पहले खुद कांग्रेस पार्टी की नेता रहीं प्रतिभा पाटिल भी राष्ट्रपति बन चुकी हैं, लेकिन तब उन्हें किसी ने भी राष्ट्रपत्नी नहीं कहा था। प्रतिभा पाटिल राज्यसभा की उपसभापति भी रह चुकी थीं। लेकिन तब भी उन्हें किसी ने उपसभापत्नी नहीं बोला। नजमा हेपतुल्ला भी कई बार राज्यसभा की उपसभापति रहीं। लेकिन कभी किसी ने उन्हें उपसभापत्नी नहीं बोला। कितने विश्वविद्यालयों में महिलाएं कुलपति हुई हैं और आज भी हैं, लेकिन कोई उन्हें कुलपत्नी नहीं कहता।
राष्ट्रपति को राष्ट्रपत्नी कहा जाना कोई स्लिप ऑफ टंग यानी ज़ुबान फिसलना भी नहीं हो सकता, क्योंकि ज़ुबान फिसलकर राष्ट्रपति को राष्ट्रपिता या राष्ट्रपिता को राष्ट्रपति कह सकती है, लेकिन राष्ट्रपति को राष्ट्रपत्नी कहना संभव ही नहीं है। जो लोग अधीर रंजन चौधरी के अमर्यादित बयान को महज ज़ुबान फिसलना बताकर उनके गुनाह को हल्का करना चाहते हैं, माता सरस्वती ने उन्हें भी ज़ुबान दी है। कृपया वे भी अपनी ज़ुबान फिसलाकर परीक्षण कर लें कि क्या किसी भी प्रकार से जुबान फिसलने पर राष्ट्रपति के लिए राष्ट्रपत्नी शब्द निकल सकता है?
दरअसल, अधीर रंजन चौधरी का बयान न केवल क्षुद्र राजनीति, बल्कि उस बीमार मानसिकता का भी द्योतक है, जो किसी भी महिला के प्रति असम्मान का भाव रखता है और उसे भोग की वस्तु समझता है। खासकर महिला यदि किसी गरीब परिवार की हो और आदिवासी समुदाय की हो, फिर तो इस किस्म के सामंतवादी लोगों के दिमाग में काले कुत्ते दौड़ने लगते हैं। अधीर रंजन का बयान उसी मानसिकता का विद्रूपतम रूप है, जिसे "गरीब की जोरू सबकी भौजाई" वाली कहावत में हमारे भाषाविदों ने अभिव्यक्त किया है। इसलिए इस बात में कोई संदेह नहीं कि अधीर रंजन का बयान न केवल देश का, इसके संविधान का, इसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था का और राष्ट्रपति पद की गरिमा का, बल्कि समूची महिला जाति का भी अपमान है।
अफसोस की बात यह भी है कि अधीर रंजन के बयान के बचाव में कांग्रेस और विपक्षी दलों के कई नेताओं और आईटी सेल द्वारा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को इस तरह पेश किया जा रहा है, जैसे वे भाजपा की नेता हों। जबकि हकीकत यह है कि वे भाजपा की नेता थीं। अब नहीं हैं। अब वे पूरे देश की राष्ट्रपति हैं। सभी दलों की प्रतिबद्धताओं से ऊपर केवल और केवल इस देश व इसके नागरिकों के लिए प्रतिबद्ध। संविधान ने उन्हें देश के प्रथम नागरिक का दर्जा दिया है। देश के प्रथम नागरिक का ऐसा अपमान राष्ट्रपति पद के 72 साल के इतिहास में पहले कभी देखा-सुना नहीं गया था।
कुछ लोग अधीर रंजन चौधरी को बांग्लाभाषी बताकर उनके कम हिन्दी ज्ञान का हवाला देकर भी उनके गुनाह को हल्का करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ऐसे लोगों को यह अवश्य पता होना चाहिए कि बांग्ला और हिंदी दोनों ही भाषाएं संस्कृत से निकली हैं और इन तीनों ही भाषाओं में पति और पत्नी शब्द कॉमन हैं और बहुप्रचलित हैं। हर बांग्लाभाषी को पता है कि राष्ट्रपति शब्द न्यूटर जेंडर है और इसे बांग्ला और हिंदी दोनों में राष्ट्रपति ही कहा जाएगा, भले कोई महिला ही राष्ट्रपति पद पर आसीन क्यों न हो जाए।
इस मामले के तूल पकड़ने के बाद राजनीति में गलत को ढंकने के लिए कुतर्क और बेशर्मी का सहारा लिये जाने की प्रवृत्ति भी साफ एक्सपोज़ हो गई है। कांग्रेस और विपक्षी दलों के पैरोकार कुछ बीजेपी नेताओं के ऐसे बयानों को उद्धृत कर रहे हैं, जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए कहे गये शब्द उनके हिसाब से सही नहीं थे। लेकिन वे यह नहीं बता रहे हैं कि खुद सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने समय-समय पर विपक्षी नेताओं, खासकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कैसे-कैसे शब्दों का प्रयोग किया था। सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी को "मौत का सौदागर" कहा था। इसी तरह राहुल गांधी ने "खून की दलाली" और प्रियंका गांधी ने भी "नीच राजनीति" वाला अशोभनीय बयान दिया था।
इस तरह देखा जाए, तो राजनीति में अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने में किसी भी दल का दामन साफ नहीं है। इस मामले में जब आप एक उंगली दूसरों की तरफ उठाते हैं, तो तीन उंगलियां खुद आप ही की तरफ होती हैं। फिर भी, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ की गई टिप्पणियों को उतना गंभीर नहीं माना जा सकता है, जितना गंभीर भारत के राष्ट्रपति के लिए देश के किसी भी दल के नेता या नागरिक द्वारा की गई अमर्यादित टिप्पणियों को।
हाल में, भारतीय जनता पार्टी ने एक टीवी डिबेट में अपनी प्रवक्ता नूपुर शर्मा के एक गैर-ज़रूरी बयान पर कड़ा स्टैंड लिया था और उन्हें प्रवक्ता पद से हटाकर पार्टी से भी निलंबित कर दिया था, जबकि नूपुर शर्मा ने जो कुछ भी कहा था, वह एक अन्य टीवी पैनलिस्ट के उकसावे भरे बयान की प्रतिक्रिया में कहा था। क्या कांग्रेस पार्टी में भी इतनी मर्यादा और गरिमा बची हुई है कि वह अधीर रंजन चौधरी के इस घनघोर आपत्तिजनक बयान के लिए उन्हें लोकसभा में अपने नेता पद से हटाकर पार्टी से निलंबित कर सके? यदि वह ऐसा कर सकती है, तो अधीर रंजन के अपराध से वह बरी हो जाएगी और एक उच्च नैतिक स्तर पर जा खड़ी होगी। लेकिन यदि वह ऐसा नहीं कर सकती, तो स्पष्ट है कि अपनी मौजूदा दुर्गति के लिए वह स्वयं ही ज़िम्मेदार है।
देश की जनता आखिर एक ऐसी राजनीतिक पार्टी पर क्यों भरोसा करेगी, जो जनता के किसी मुद्दे पर तो संघर्ष नहीं करती, लेकिन अपने अध्यक्ष और उनके परिजनों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बचाव में इतनी उग्र हो गई है कि उसे राष्ट्रपति पद की गरिमा, महिला जाति के सम्मान और देश के लोकतंत्र की भी कोई परवाह नहीं रह गई है। यह बेहद उपयुक्त प्रसंग है, जब कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों को अपनी नकारात्मक राजनीति पर गंभीर चिंतन करना चाहिए और इसमें सुधार लाने के गंभीर प्रयास करने चाहिए।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)
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