पालतू कुत्तों पर हक की लड़ाई, असली मालिक इस वजह से कर रहे हैं सरेंडर
कोलकाता, 18 नवंबर: विदेशों की तर्ज पर भारत में भी पेट डॉग को रखने के लिए अच्छे-अच्छे क्रेच खुले हुए हैं, जहां पर ओनर कुछ दिनों के लिए या कुछ घंटों के लिए पैसे देकर अपने पेट्स छोड़ सकते हैं। क्योंकि, पेट ओनर को अगर कुछ दिनों या पूरे दिन के लिए भी घर से बाहर जाना होता है तो हर बार अपने पालतू जानवरों को साथ नहीं ले जा सकता। ऐसे पेट्स बहुत ही महंगे भी होते हैं और उन्हें बहुत ही सावधानी से देखभाल की भी जरूरत होती है। लेकिन, कोलकाता में आजकल पेट्स के ऐसे क्रेच और पेट्स ओनर के बीच आए दिन विवाद सामने आने लगे हैं। कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिसमें जब पालतू कुत्ते का ओनर उसे वापस लाने क्रेच पहुंचा है तो वहां उसे पेट वापस देने से साफ इनकार कर दिया गया है। कहीं कहा जा रहा है कि उससे उसे लगाव हो गया तो कहीं क्रेच मालिक कुत्ते पर अपना मालिकाना हक जता देता है। किसी भी सूरत में समझौता पालतू कुत्तों के असली मालिक को ही करना पड़ रहा है और इसकी खास वजह है।

पालतू कुत्तों पर हक की लड़ाई
कोलकाता में पेट्स ओनर्स के सामने नई समस्या खड़ी हो गई है। अपने पालतू कुत्तों से मजबूरन उनका मालिकाना हक छिनता जा रहा है। महंगे नस्ल के कुत्तों को लेकर वहां दावेदारों के मामले आए दिन पुलिस तक पहुंचने लगे हैं। कुत्ते के असली मालिकों और उनकी देखभाल करने वालों के बीच की यह जंग अदालतों तक भी पहुंच हैं। लेकिन, हालात ये हैं कि इस मामले में कानून के हाथ भी बंधे हुए लग रहे हैं और असली मालिकों को उनका हक दिला पाने में लाचार हो चुका है। इसकी वजह ये है कि कोलकाता में सिर्फ 0.5% पेट ओनर्स ने ही कोलकाता नगर निगम (केएमसी) से अपने पालतू कुत्तों का लाइसेंस ले रखा है। इस वजह से अपने महंगे कुत्तों पर अधिकार का सबूत दिखा पाना उनके लिए बहुत बड़ी टेढ़ी खीर है।

क्रेच वाले पालतू कुत्ते वापस देने से कर रहे हैं इनकार
हाल के दिनों में अपनी छोटी सी इस गलती का पेट्स ओनर्स को बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है और सबकुछ जानते हुए भी उनका कुत्ता उन्हें वापस मिल पाना लगभग नामुमकिन होता जा रहा है। अदालतें और पुलिस भी असली मालिकों की ज्यादा मदद नहीं कर पा रही हैं। एक निजी कंपनी में बड़ी पोस्ट पर तैनात देवाश्री रॉय (बदला हुआ नाम) का ही मामला लेते हैं। वह दक्षिण कोलकाता के अपने घर में रहती हैं, लेकिन दफ्तर के काम से उनका ट्रिप पर जाने का सिलसिला लगा रहता है। इसलिए वह जब भी शहर से बाहर जाती थीं, अपने लैब्राडोर को एक क्रेच में छोड़ जाती थीं। एक महीने पहले भी उन्होंने ऐसा ही किया था। वापस लौटने पर जब वह अपने पेट को लाने पहुंचीं तो क्रेच वाले ने साफ मना कर दिया कि उस कुत्ते से उसे काफी लगाव हो गया है, इसलिए नहीं लौटाएगा।

पेट्स ओनर्स के सामने आ रही है ये मजबूरी
देवाश्री ने क्रेच मालिक को समझाने की काफी कोशिशें कीं, लेकिन वह नहीं माना। आखिर उन्होंने गोल्फ ग्रीन थाने में शिकायत दर्ज करवाई। पुलिस ने दोनों से बात की और दोनों अपने-अपने दावे पर अड़े रहे। तब पुलिस ने कहा कि उसे मामले को अदालत के पास ले जाना पड़ेगा। देवाश्री ने अपनी नौकरी के बारे में सोचा और कोर्ट का चक्कर काटने के बजाए कुत्ते को क्रेच ओनर के पास ही रहने देने का फैसला किया। टीओआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस बारे में एक पुलिस वाले ने बताया कि 'उन्होंने सिर्फ एक ही गुजारिश की कि जब वो शहर में रहें तो उन्हें उनके पेट से मिलने दिया जाए। इस बात पर क्रेच ओनर भी राजी हो गया और मामला अदालत तक नहीं पहुंचा।'

जिसके पास कुत्ता, वही होगा मालिक!
लेकिन, दूसरा विवाद जरा ज्यादा गहरा था। मामला कोर्ट तक पहुंच गया। लेकिन, वहां भी ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट ने कहा कि कुत्ते का देखभाल करने वाला ही उसका गार्जियन होगा, क्योंकि करीब डेढ़ महीने से वही उसे अपने घर में रख रहा है, जब उसकी ओनर बाहर गई थी। इस मामले में क्रेच वाले ने उस कुत्ते पर किसी दूसरे का अधिकार होने से ही साफ इनकार कर दिया था। हालांकि, उसने कुत्ते की ओनर को इतनी रियायत दे दी कि वह जब चाहें उससे आकर मिल सकती हैं।

असली मालिकों को इस वजह से करना पड़ रहा है सरेंडर
दोनों ही मामलों में पेट ओनर्स की मजबूरी ये रही कि उनके पास अपना दावा साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं था। पहले मामले में डॉग ओनर ने ही कानूनी लफड़े से बचने के लिए क्रेच वाले की शर्तों के सामने सरेंडर कर दिया और दूसरे मामले में अदालत ने ही कुत्ते की थोड़े वक्त से देखभाल कर रहे व्यक्ति को गार्जियन मान लिया। अगर दोनों डॉग ओनर्स के पास कोलकाता नगर निगम से जारी कुत्ते पालने वाला लाइसेंस होता तो वह अपना दावा साबित कर सकते थे। लेकिन, किसी ने भी यह लाइसेंस नहीं लिया था। जबकि, अगर पेट एक साल का है तो 150 रुपये में लाइसेंस मिलता है और 3 साल के कुत्ते के लिए 450 रुपये लाइसेंस फीस देनी पड़ती है और हर साल रिन्यू करवाना होता है।
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ज्यादातर लोगों के पास नहीं है लाइसेंस
एक एनिमल ऐक्टिविस्ट राजीब घोष कहते हैं कि 'मालिकाना हक साबित करने के लिए भी पेट मालिकों के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य है, जिससे वह अपना दावा साबित करके कानूनी लड़ाई जीत सकते हैं।' उन्होंने बताया कि केएमसी के सूत्र बताते हैं कि अच्छे नस्ल वाले कुत्तों के लिए कोलकाता में करीब 100 लोगों के पास ही लाइसेंस है, जबकि अनुमानित तौर पर महानगर में 20,000 से ज्यादा ऐसे कुत्ते हैं।(तस्वीरें- प्रतीकात्मक)