बंगाल चुनाव: 15 साल पहले औद्योगीकरण का विरोध किया, अब उसी के लिए क्यों तरस रहा है सिंगूर
सिंगूर: नंदीग्राम से पहले 2006 में बंगाल के सिंगूर में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ किसानों का जोरदार आंदोलन हुआ था। उस आंदोलन को हवा देने में टीएमसी की ममता बनर्जी ने अगुवा का रोल निभाया था। बाद में टाटा ने खुद ही वहां की प्रोजेक्ट से पैर पीछे खींच लिए थे और तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद के पास आनंद से सटे सानंद में उसे नैनो कार बनाने के लिए जमीन दिलाई थी। 15 साल बाद मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर बंगाल में भाजपा के लिए वोट मांग रहे हैं और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी के लिए उनके साथ जोर-आजमाइश में लगी हैं। आप हैरान होंगे कि जिस सिंगूर के लोगों ने तब अपनी जमीन के लिए टाटा जैसी कंपनी को वहां से बोरिया-बिस्तर समेटने को मजबूर किया था, वही आज औद्योगीकरण के लिए तरस रहे हैं और भाजपा उनसे उसे पूरा करने का भरोसा दिला रही है।
15 साल पहले टाटा को वहां से लौटना पड़ा था
सिंगूर बंगाल के हुगली जिले में राजधानी कोलकाता से करीब 45 किलोमीटर दूर है। तत्कालीन सीपीएम सरकार ने टाटा की लखटकिया कार 'नैनो' की प्रोजेक्ट के लिए वहा जो जमीन देना तय किया था, वह दुर्गापुर एक्सप्रेसवे पर रतनपुर क्रॉसिंग के पास है। तब के सरकारी दावे के मुताबिक सिंगूर की 83 फीसदी खेती लायक जमीन सिंचित थी और उनपर फसल का घनत्व 220 फीसदी था। उनपर मोटे तौर पर धान, आलू की खेती होती रही है। लेकिन, इसके अलावा कई तरह की सब्जियों और जूट की खेती भी होती आई है। मई 2006 में पश्चिम बंगाल सरकार ने टाटा की छोटी कार प्रोजेक्ट के लिए 997 एकड़ ऐसी ही जमीन के अधिग्रहण का फैसला किया था। इस प्रोजेक्ट के विरोधियों के दावों के मुताबिक इसकी वजह से कम से कम 6 हजार परिवारों की रोजी-रोटी और जमीन जा रही थी, जिनमें से अधिकतर खेतिहर मजदूर और छोटे किसान थे। लेकिन, विरोध ऐसा हुआ कि पांच साल बाद लेफ्ट फ्रंट की तीन दशक से भी ज्यादा पुरानी सरकार की जड़ें उखड़ गईं और वह आज वहां की राजनीति से लगभग गायब ही हो चुकी है। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी फैसला दिया कि वहां पर जमीन अधिग्रहण का तरीका गलत था और उससे जनता का हित नहीं होने वाला था।
किसानों को जमीन दिलाने की फसल काट सकेंगी ममता ?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने सिंगूर और नंदीग्राम जैसे किसान आंदोलनों के घोड़े पर सवाल होकर कोलकत्ता की सत्ता पर काबिज हुईं ममता बनर्जी और उनकी टीएमसी का हौसला बढ़ाया और 31 अगस्त, 2016 को उन्होंने खुद सिंगूर पहुंचकर ना सिर्फ किसानों को उनकी जमीन वापस दिलाई, बल्कि सांकेतिक तौर अपने हाथों से उनके खेतों में बीजों की बुआई भी की। लेकिन, पांच साल बाद टीएमसी सिंगूर की उस सियासी फसल को काट भी पाएगी, इसके बारे में दावे से कुछ भी कहना जल्दबाजी साबित हो सकती है। क्योंकि, टीएमसी और उसकी सुप्रीमो ममता बनर्जी को जितना विरोधी दलों का टेंशन नहीं है, उससे ज्यादा दिक्कत यहां के लोगों के 15 साल पुरानी सोच में आए बहुत बड़े बदलाव से हो सकती है। वैसे यहां पर उसके खिलाफ सिंगूर आंदोलन में उसकी विरोधी रही सीपीएम तो है ही, ऊपर से उद्योगपतियों और व्यापारियों की पार्टी कहलाने वाली भाजपा भी ताल ठोक चुकी है।
औद्योगीकरण और बेरोजगारी बना बड़ा मुद्दा
दरअसल,जिस सिंगूर के लोगों ने कभी औद्योगीकरण के विरोध में आसमान सिर पर उठा लिया था, उनका नजरिया आज पूरी तरह से बदला-बदला नजर आ रहा है। टीएमसी की विरोधी बीजेपी और सीपीएम के उम्मीदवार आज यहां पर औद्योगीकरण, आर्थिक विकास और बेरोजगारी के मुद्दे पर वोट मांग रहे हैं। उनकी नजर खासकर के यहां के युवा वोटरों पर है। वैसे मौजूदा माहौल से लग रहा है कि सिंगूर सीट पर इसबार मुख्य मुकाबला तृणमूल के पुराने दिग्गज और भाजपा के बुजुर्ग उम्मीदवार रबींद्रनाथ भट्टाचार्य और टीएमसी के धाकड़ प्रत्याशी बेचराम मन्ना के बीच होने वाला है। ये दोनों ही सिंगूर आंदोलन से जुड़े रहे हैं। कहानी दिलचस्प इसलिए है कि इलाके में 'मास्टरमोशाय' के नाम से जाने वाले भाजपा उम्मीदवार सिंगूर आंदोलन में शुरू से बड़ी भूमिका निभा चुके हैं और शुरुआती दिनों से तृणमूल के साथ रहे हैं। लेकिन, बदली हुई भूमिका में वो औद्योगीकरण का कार्ड खेलने लगे हैं, जिसका वो कभी विरोध करते आए थे।
15 साल बाद उद्योग के लिए क्यों तरस रहा है सिंगूर ?
सवाल है कि ऐसी क्या परिस्थिति आ गई है कि यहां के लोगों और आंदोलन से जुड़े लोगों का भी नजरिया बदल चुका है। मसलन, ईटी से बातचीत में यहां के एक गांव वाले ने बताया, 'हम सिंगूर में उद्योग और रोजगार चाहते हैं। आप देख सकते हैं कि यहां के युवक यहां-वहां कैरम और कार्ड खेलते रहते हैं। उनके पास कोई काम नहीं है।' सिंगूर के महादेब दास का कहना है, 'हमें उम्मीद है की रबींद्रनाथ इस इलाके के विकास के लिए कड़ी मेहनत करेंगे। वो यहां के लोगों के लिए हमेशा आगे से खड़े रहे हैं और उनके लिए लड़ाई लड़े हैं।' एक और वोटर ने अपनी दुविधा कुछ तरह से बयां की है, 'निश्चित तौर पर हमें समझ नहीं आ रहा है। मन्ना भी सिंगूर आंदोलन की उपज हैं और इसी धरती के लाल हैं। दूसरी तरफ मास्टरमोशाय हर वक्त हमारे साथ खड़े रहे हैं।' (तस्वीरें-फाइल)
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