इलाहाबाद यूनिवर्सिटी छात्रसंघ चुनाव में क्यों हारी ABVP, 7 वजहें
इलाहाबाद। केन्द्रीय यूनिवर्सिटी इलाहाबाद में छात्रसंघ का चुनाव हारना एबीवीपी के बड़ा झटका माना जा रहा है। साथ ही एबीवीपी के समर्थन में रहने वाली बीजेपी के लिये बड़ा संकेत है कि सबकुछ ठीक नहीं हैं। पहले जेएनयू फिर डीयू, राजस्थान और हैदराबाद यूनिवर्सिटी में एबीवीपी की साख गिरी है। उसका असर इलाहाबाद में भी देखने को मिला और एबीवीपी मात्र एक सीट पर सिमट गई। एक नजर घुमाई जाये तो पता चलता है कि छात्रसंघ के इस चुनाव में सूबे की योगी सरकार के मंत्री, विधायक ने अपना पूरा जोर लगाया हुआ था। बावजूद इसके जीत नसीब नहीं हुई। हमने कुछ कारणों की पड़ताल की और जाना कि आखिर एबीवीपी के हारने के पीछे क्या कारण हैं-
1 - टिकट बंटवारा
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के चुनाव में एबीवीपी के हारने के पीछे सबसे बडा कारण टिकट बंटवारे का है। यहां भी विधान सभा चुनाव की तकनीक अपनाई गई और बाहरियों को टिकट देकर दावेदारों को टिकट नहीं दिया गया। नतीजा दावेदार बागी हो गये। उनके साथ एबीवीपी का बड़ा धड़ा साथ हो लिया और एबीवीपी चुनाव हार गई ।
2
-
विरोधी
एकजुट,
एबीवीपी
बिखरी
छात्रसंघ
चुनाव
में
एबीवीपी
की
मुश्किलें
ज्यादा
इसलिये
भी
बढ़ी
क्योंकि
विरोधी
एकजुट
थे
और
खुद
एबीवीपी
बिखरी
हुई
थी।
सपा
ने
इस
चुनाव
को
मुख्य
राजनीति
से
जोड़ने
में
कोई
कोर
कसर
नहीं
छोड़ी
थी
लेकिन
समाजवादी
छात्रसभा
के
विरोध
में
कोई
प्रत्याशी
नहीं
रहा।
एबीवीपी
के
विरोध
में
उसके
अपने
परमार
व
सूरज
दुबे
रहे।
एनएसयूआई
ने
तो
माइंड
गेम
खेलते
हुये
एबीवीपी
के
बागी
सूरज
दुबे
को
टिकट
देकर
मैदान
में
उतार
कर
समाजवादी
छात्रसभा
की
राह
आसान
कर
दी।
वोटों
की
गिनती
देखें
तो
अवनीश
यादव
को
3226
वोट
मिले
हैं
जबकि
बागी
मृत्युंजय
राव
को
2674
मत
प्राप्त
हुए।
अखिल
भारतीय
विद्यार्थी
परिषद
की
उम्मीदवार
प्रियंका
सिंह
को
1588
मत
व
व
सूरज
कुमार
दुबे
को
466
मत।
यानी
एबीवीपी
अगर
बिखरती
नहीं
तो
अकेले
दम
पर
बडे
अंतर
से
जीत
हासिल
करती।
3- बीजेपी बनकर लड़ी एबीवीपी
इस चुनाव में एबीवीपी ने छात्रसंघ का चुनाव छात्रों की तरह लड़ने की बजाय बीजेपी की तरह लड़ा। यानी अपने मुद्दों को छोड़कर बीजेपी के मौजूदा राजनीति मुद्दों पर बात करते रहे। यहां तक की भगवा पहनावा से लेकर नारों तक में प्रत्याशी बीजेपी को कॉपी करती रही। ऐसे में सरकार से रोजगार से लेकर विभिन्न विषयों पर नाराज़गी का सामना भी एबीवीपी को करना पड़ा। एबीवीपी अपने और बीजेपी के बीच के फर्क को नहीं समझा सकी।
3 - जमीन से नहीं लड़ा चुनाव
मुख्य राजनीति की जमीन छात्र राजनीति से अलग होती है, यह बात एबीवीपी भूल गई। यही कारण था कि विधानसभा चुनाव में बागी नेताओं की खिलाफत में चुनाव लड़ने और न लड़ने पर गौर नहीं किया गया था। एबीवीपी ने कागज पर तो गणित की लेकिन यही नहीं देखा कि संगठन के बागी दूसरे दलों से मैदान में आये हैं। वैसे भी छात्रसंघ के चुनाव में एबीवीपी प्रत्याशी अतिआत्मविश्वास का शिकार रहे। विधायक, सांसद, मंत्री के साथ जुलूस में निकले और भौकाल तक ही सीमित रह गये। कैबिनेट मंत्री स्तर के नेता के साथ चलने से भारी भीड़ देखकर एबीवीपी मंत्रमुग्ध रही और जमीन पर नहीं उतर सकी। उसे अपनी जीत मोदी योगी लहर के जैसे दिखती रही।
4 - भाजपा का कन्नी काटना
छात्रसंघ के चुनाव में यह बार-बार सामने आ रहा है कि एबीवीपी की जीत पर तो भाजपा जीत का सेहरा पहन लेती है लेकिन हार पर सीधे कन्नी काट जाती है कि एबीवीपी उसका कोई धड़ा नहीं है। ऐसे में छात्रों ने सीधे सपा के राजनैतिक धड़े वाले समाजवादी छात्रसभा पर भरोसा जताया ।
5
-
सरकार
ने
हशिये
पर
डाला
इलाहाबाद
यूनिवर्सिटी
में
इस
वर्ष
कयी
मुद्दे
आये।
एबीवीपी
ने
उन्हें
जन
आंदोलन
भी
बनाया
लेकिन
उसे
मुकाम
पर
पहुंचाने
में
नाकामयाब
रहे।
कई
मौके
ऐसे
आये
जब
बीजेपी
सरकार
ने
ही
एबीवीपी
के
प्रदर्शन
आंदोलन
को
हशिये
पर
डाल
दिया।
हॉस्टल
खाली
कराने
का
मुद्दा,
फीस
का
मुद्दा,
लाइब्रेरी
को
24
घंटे
खुलवाने,
लाइब्रेरी
से
किताबों
का
इश्यू
कराना,
कुलपति
की
खिलाफत
जैसे
स्थानीय
छात्रसंघ
के
मुद्दे
रहे
जिस
पर
एबीवीपी
खरी
नहीं
उतर
सकी।
एबीवीपी
ने
जमकर
सरकार
की
खिलाफत
में
भी
आवाज
उठाई
तो
सरकार
ने
एबीवीपी
के
खिलाफ
कड़ा
रुख
भी
अपनाया।
6 - बागियों ने बनाया ताबूत
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी छात्रसंघ चुनाव में एबीवीपी की लुटिया अपनों ने डुबोयी। संगठन कई धड़ों में बंट गया था जिसमें बागी नेताओं ने एबीवीपी के खिलाफ मोर्चा खोला और आखिर में हार का ताबूत बनाने में सफल रहे। इस बार एबीवीपी से मृत्युंजय राव परमार का टिकट लगभग फाइनल था लेकिन टिकट योगी आदित्यनाथ का विरोध करने वाली प्रियंका सिंह को मिला। नतीजा आपके सामने है। प्रियंका तीसरे स्थान पर खिसक गई और निर्दलीय परमार बगैर संगठन के जीतते-जीतते रह गये।