यूपी चुनाव: समीकरणों के खिसकने से मेरठ की सीटों पर नई चुनौती, पिछली हार-जीत नहीं रखती मायने !
भाजपा में आंतरिक खींचतान, कांग्रेस-सपा गठबंधन और जाट वोटों में बसपा की सेंधमारी मेरठ में सभी समीकरणों से अहम हो जाती है। ऐसे में सियासी दिग्गजों को कड़ी परीक्षा देनी ही होगी।
मेरठ। उत्तर प्रदेश में विधानसभा के लिए चुनावी बिगुल बज चूका है। हर राजनीतिक पार्टियां वोटरों को लुभाने के लिए नए-नए पैंतरों का उपयोग कर रही है। प्रमुख राजनीतिक दलों में बड़ी संख्या में दावेदारों की आवाजाही से पुराने कई समीकरण खिसक गए हैं। मेरठ की सियासत की बदली हुई तस्वीर में उत्तर प्रदेश के दिग्गजों की साख दांव पर है। कई हाई प्रोफाइल सीटों पर सफलता के नए समीकरण खोजे जा रहे हैं। स्टार प्रचारकों को भी जातीय संतुलन साधने के लिए उतारने की योजना है। मेरठ शहर में विधानसभा सीट पर सियासी पारा बढ़ा हुआ है। ऐसे में सियासत के दिग्गज खिलाड़ी लक्ष्मीकांत वाजपेयी को कड़ी परीक्षा देनी होगी।
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ध्रुवीकरण की पतवार हर बार नहीं लगाएगी किनारे !
इस सीट पर लंबी पारी खेलने के बावजूद लक्ष्मीकांत ध्रुवीकरण की पतवार से ही चुनावी भंवर पार करते रहे हैं। 2007 के चुनाव में करीबी मुकाबले में यूडीएफ के याकूब कुरैशी ने महज 1,089 वोट से लक्ष्मीकांत को हराया था। साल 2012 में लक्ष्मीकांत ने वापसी करते हुए भले ही सपा के रफीक अंसारी को 6 हजार वोटों से शिकस्त दी लेकिन इस चुनाव में एक लाख से ज्यादा मुस्लिम वोट तीन दावेदारों में बंट गए। 2017 में लक्ष्मीकांत के सामने महज एक मुस्लिम चेहरा मैदान में होने से भगवा खेमे की धड़कन बढ़ी हुई है। वहीं किठौर विधायक और प्रदेश के कैबिनेट मंत्री शाहिद मंजूर के सामने सत्ता विरोधी रुझान से पार पाना बड़ी चुनौती है।
समीकरण छूट गए पीछे, नए चेहरों ने संभावनाएं कर दी हैं ताजा
इस सीट पर बसपा कड़ी टक्कर देती है जबकि इस बार रालोद ने शाहिद के कट्टर विरोधी मतलूब गौड़ को उतारा है। इधर, मोदी फैक्टर और दो साल से चुनावी क्षेत्र में डटे भाजपा प्रत्याशी सत्यवीर त्यागी भी सपा की मजबूत घेराबंदी करेंगे। वह 2012 में रालोद के टिकट पर भी 34 हजार से ज्यादा वोट ला चुके हैं। मेरठ दक्षिण में भाजपा ने टिकट बदला है लेकिन जातीय व्यूह भेदना आसान नहीं है। इससे पहले चुनाव में तीन मुस्लिम प्रत्याशियों राशिद अखलाक, आदिल चौधरी और मंजूर सैफी ने अलग-अलग दलों से चुनाव लड़कर एक लाख से ज्यादा वोट बांटा था। जिससे बीजेपी की जीत को बल मिल सका लेकिन इस बार बसपा के टिकट पर याकूब कुरैशी मैदान में हैं। सपा और कांग्रेस ने यहां पर आजाद सैफी को उतारा है। वहीं बाहरी होने से उनकी मुस्लिम मतों में सेंधमारी आसान नहीं होगी।
अनुमान लगाना मुश्किल, सभी की ताकत पहले से बेहतर
सिवालखास सीट रालोद का गढ़ रही है। जिसे 2007 में बसपा प्रत्याशी विनोद हरित ने जीत लिया था। 2012 में जाट वोटों में बंटवारे के साथ ही सह सीट सपा के गुलाम मोहम्मद ने जीत ली। पिछली बार सिर्फ 3,300 वोटों से हार के बाद छोटे चौधरी ने सिवाल को इस बार प्रतिष्ठा से जोड़ा है। भाजपा ने यहां जाट कार्ड खेला है, वहीं बसपा नदीम चौहान के रूप में गुलाम मोहम्मद को घेरने के लिए तैयार है। इस सीट पर ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या काफी है लेकिन किसी पार्टी के प्रति उनका रुख साफ नहीं है। 2012 में कैंट विधायक सत्यप्रकाश अग्रवाल को बसपा के सुनील बाधवा ने कड़ी टक्कर दी थी। तो अब बसपा से सत्येंद्र सोलंकी और कांग्रेस के रमेश धींगड़ा मैदान में हैं।
भाजपा में आंतरिक खींचतान, कांग्रेस-सपा गठबंधन और जाट वोटों में बसपा की सेंधमारी से सत्यप्रकाश की डगर आसान नहीं है। पिछले चुनावों में हस्तिनापुर से सपा विधायक प्रभु दयाल ने योगेश वर्मा को 6 हजार मतों से हराया था लेकिन कांग्रेस से गोपाल काली ने 46 हजार और बसपा के प्रशांत गौतम ने 30 हजार से ज्यादा वोट बटोरे।
राजनीतिक परिस्थितयों के बदलने से बदल गया है ध्रुवीकरण का भी खेल
इस बार परिस्थितियां बदली हुई हैं। पीस पार्टी के 40 हजार से ज्यादा वोट पाने वाले योगेश को अब हाथी की ताकत मिल गई है। वहीं विधायक गोपाल काली की सीट से भाजपा के दिनेश खटीक की दावेदारी पार्टी के लिए मजबूत संकेत है। ऐसे में प्रभु दयाल को अपना दुर्ग बचाने के लिए कड़ा संघर्ष करना होगा।
सरधना विधायक संगीत सोम के गढ़ में सियासत नई करवट ले चुकी है। इमरान कुरैशी मुस्लिम वोटों के साथ ही बसपा के करीब 50 हजार बेस वोटरों का भरोसा कर रहे हैं। इधर, सपा के अतुल प्रधान गुर्जर, मुस्लिम और जाट वोटरों के दम पर दावा कर रहे हैं जबकि विधायक संगीत सोम की नजर मुस्लिम मतों में ध्रुवीकरण पर है।
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