समाजवादी पार्टी के चिन्ह का मसला जल्द सुलझा पाएगा आयोग? जानें वो नियम जिसके तहत सुलझते है ऐसे मामले
भारत निर्वाचन आयोग के समक्ष समाजवादी पार्टी सरीखा मामला पहला नहीं है। इससे पहले भी कई ऐसे मामले आए हैं, जिनमें पार्टियां दो गुटों में बट गई हैं। पहला मामला साल 1964 में आया था।
लखनऊ। टिकट बंटवारे से शुरू हुआ समाजावादी पार्टी का विवाद अब भारत निर्वाचन आयोग की चौखट पर है। मुद्दा है साइकिल चुनाव चिन्ह। इसके लिए सोमवार (2 जनवरी) को सपा के नेता मुलायम सिंह यादव, प्रदेश की सपा सरकार में पूर्व मंत्री शिवपाल सिंह यादव, अमर सिंह और जया प्रदा के साथ चुनाव आयोग पहुंचे और अपना पक्ष रखा। इस दौरान उन्होंने कहा कि अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव अब पार्टी में नहीं हैं। इन्होंने असंवैधानिक रुप से पार्टी का अधिवेशन किया। मुलायम ने कहा था कि इस अधिवेशन में मुझे भी नहीं बुलाया गया जबकि मैं पार्टी का संस्थापक सदस्य और राष्ट्रीय अध्यक्ष हूं। इस दौरान मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी के चुनाव निशान साइकिल पर अपना दावा भी चुनाव आयोग के सामने पेश किया। उन्होंने कहा था कि समाजवादी पार्टी के वो राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं इसलिए साइकिल चुनाव चिन्ह पर उनका ही दावा बनता है। इसी तरह आज अखिलेश के गुट की ओर से प्रोफेसर रामगोपाल यादव 11 बजे चुनाव आयोग जाएंगे। जहां वो चुनाव आयुक्त से मिलकर इस बारे में चर्चा करेंगे। अब आइए आपको बताते हैं कि अगर किसी भी दल में ऐसी कोई स्थिति पैदा हो जाए तो भारतीय निर्वाचन आयोग क्या करता है?
किसी
दल
में
चुनाव
चिन्ह
पर
विधायिका
के
बाहर
विवाद
उठने
पर
चुनाव
चिन्ह
(आरक्षण
एवं
आवंटन)
आदेश
1968
के
पैरा
15
के
मुताबिक
'जब
आयोग
सुंतष्ट
हो
जाएगा
कि
किसी
राजनीतिक
दल
में
कोई
प्रतिद्वंदी
वर्ग
या
समूह
है
जो
पार्टी
होने
का
दावा
करते
हैं,
इसके
संबंध
में
सभी
मौजूद
तथ्य
और
मामले
की
परिस्थितियों
की
जानकारी
होने
के
बाद
उनके
प्रतिनिधियों
को
सुनने
के
बाद
और
अन्य
लोग
जिन्हें
सुनने
की
इच्छा
की
जा
सकती
है,
जो
उस
विवादित
समूह
का
हिस्सा
हैं
या
किसी
भी
समूह
का
हिस्सा
नहीं
हैं
और
आयोग
का
निर्णय
प्रतिद्वंदी
वर्ग
या
समूहों
के
लिए
बाध्यकारी
होगा।'
यह
नियम
राष्ट्रीय
और
राज्य
के
दलों
पर
लागू
होता
है।
वो
दल
जो
पहचाने
नहीं
गए
हैं,
वहां
किसी
तरह
की
ऐसी
स्थिति
पैदा
होने
पर
आयोग
उन्हें
अपना
मामला
आपस
में
सुलझा
लेने
या
अदालत
जाने
का
सुझाव
देता
है।
हालांकि
यहां
एक
सवाल
और
भी
उठता
है
कि
ये
नियम
तो
1968
में
आए,
उससे
पहले
चुनाव
आयोग
ऐसी
किसी
परिस्थिति
से
कैसे
निपटता
था!
तो
आपको
बता
दें
कि
1968
से
पहले
पोल
पैनेल
ने
कन्डक्ट
ऑफ
इलेक्शन
रूल
1961
के
तहत
सूचनाएं
और
कार्यकारी
आदेश
जारी
किया
था।
1968
के
पहले
सबसे
ज्यादा
सुर्खियों
में
रहने
वाला
मामला
था
1964
में
भारतीय
कम्युनिस्ट
पार्टी
का।
इस
मामले
में
पार्टी
के
एक
समूह
निर्वाचन
आयोग
से
दिसंबर
1964
में
कहा
कि
उन्हे
बतौर
भारतीय
कम्युनिस्ट
पार्टी
(मार्क्सवादी)
(CPI-M)
पहचाना
जाए।
उन्होंने
आंध्र
प्रदेश,
केरल
और
पश्चिम
बंगाल
के
सांसद
और
विधायकों
की
सूची
भी
आयोग
को
दी,
जो
उन्हें
समर्थन
दे
रहे
थे।
आयोग
ने
CPI(M)
को
मान्यता
दी,
जब
यह
पाया
गया
कि
समर्थन
के
लिए
आयोग
को
दिए
गए
सांसदों
और
विधायकों
को
प्राप्त
मत
3
राज्यों
में
4
फीसदी
थे।
सबसे पहला विवाद था कांग्रेस का
वहीं 1968 में नियम आने के बाद सबसे पहला विवाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में हुआ था। 3 मई 1969 को भारत के तीसरे राष्ट्रपति डॉ.जाकिर हुसैन का निधन होने से बाद इंदिरा गांधी की दिक्कतें पार्टी में बागी समूहों के साथ ज्यादा बढ़ गई थीं। कांग्रेस के पुराने सिपाही के कामराज, नीलम संजीव रेड्डी, एसनिजालिनगप्पा और अतुल्य घोष जो बतौर सिंडिकेट जाने जाते थे, उन्होंने रेड्डी को पद के लिए चुनाव लड़न के लिए प्रस्तावित किया। उस समय प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी ने उप राष्ट्रपित वीवी गिरी से निर्दल लड़ जाने के लिए कहा। इतना ही नहीं, इंदिरा ने उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष निजालिनगप्पा की ओर से जारी किए गए व्हिप से हटकर विवेकाधिकार से मतदान करने के लिए कहा। वीवी गिरी के राष्ट्रपति बन जाने के बाद, इंदिरा को कांग्रेस से निकाल दिया गया। फिर पार्टी दो गुट, निजालिनगप्पा के नेतृत्व में ओल्ड कांग्रेस और इंदिरा के नेतृत्व में न्यू कांग्रेस बन गई। ओल्ड कांग्रेस को हल के साथ दो बैल चुनाव चिन्हह मिला और इंदिरा की कांग्रेस को गाय और बछड़े का चुनाव चिन्ह मिला।
AIADMK के मामले में हुआ कुछ ऐसा
अमूमन सारे विवादों में आयोग, पार्टी प्रतिनिधि, पदाधिकारी, सांसद और विधायकों के समर्थन से ही मामले को सुलझाता है। जब कभी आयोग प्रतिद्वंदी समूहो को पार्टी में समर्थन के आधार पर हीं जांच पाता तो वो चुने हुए विधायकों और सांसदों के समर्थन से जांच करता है। अभी तक आयोग ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (AIADMK) में 1987 में उत्पन्न हुए विवाद के दौरान अजीब स्थिति का सामना करना पड़ा था। एम जी रामचंद्रन के निधन के बाद सांसद और विधायकों का ज्यादातर समर्थन उनकी पत्नी जानकी के पक्ष में था, जबकि जयललिता के पक्ष में पार्टी का समर्थन ज्यादा था। लेकिन जब तक चुनाव आयोग इस फैसले पर पहुंचता कि पार्टी का चिन्ह किस समूह को दिया जाए , तब चक सुलह हो गई थी।
लेकिन नहीं मिल पाता पहली पार्टी का चिन्ह
हालांकि ऐसा भी हुआ है कि प्रतिद्वंदी वर्ग या समूहों को पार्टी का चुनाव चिन्ह नहीं मिला पाता। ऐसा कांग्रेस के मामले में हो चुका है। कांग्रेस के मामले में आयोग ने ओल्ड कांग्रेस और इंदिरा की जे कांग्रेस, जिसके अध्यक्ष बाबू जगजीवन राम थे, दोनों को स्वीकृति प्रदान की । ओल्ड कांग्रेस की देश के कई राज्यों में पर्याप्त उपस्थिति थी और आदेश 1968 के पैरा 6 और 7 के तहत पार्टियों को मान्यता देने के मानक भी पूरे थे। इसका पालन 1997 तक हुआ। हालांकि कांग्रेस, जनता दल और भारतीय जनता पार्टी के मामलों के समय हालात अलग थे। विवादों के चलते हिमाचल विकास कांग्रेस, मणिपुर स्टेट कांग्रेस, पश्चिम बंगाल तृणमूल कांग्रेस,राष्ट्रीय जनता दल, बीजू जनता दल सरीखे कई दल बने। 1997 में आयोह ने किसी भी नए दल को बतौर राज्य या राष्ट्र की पार्टी नहीं घोषित किया। इसके बाद आयोग नया नियम लाया, जिसके मुताबकि मुख्य दल से अलग हुए दल को खुद से एक अलग पार्टी के तौर पर अपना पंजीकरण कराना होगा और वो राष्ट्रीय या राज्य स्तर की पार्टी के लिए दावा राज्य या केंद्रीय चुनावों में प्रदर्शन के आधार पर कर सकते हैं।
क्या होगा सपा का?
अब सवाल ये उठता है कि क्या आयोग चुनाव से पहले समाजावादी पार्टी का मुद्दा सुलझा सकता है। लेकिन इसकी संभावना कहीं से भी नहीं दिख रही है। आयोग की सुनवाई लंबी और विस्तृत होती हैं। इसमें कम से कम 6 महीने लग जाते हैं। हालांकि, अंतरिम तौर पर पार्टी का चिन्ह फ्रीज कर दिया जा सकता है और उन्हें एड हॉक पर नया चिन्ह दिया जा सकता है। दोनों समूहों से एक ही पार्टी के नाम पर लड़ने के लिए कहा जा सकता है। जैसे 1979 में कांग्रेस के दूसरी बार विवादित होने पर कांग्रेस (आई) और कांग्रेस (यू) को मान्यता दी गई थी।
ये भी पढ़े: मुलायम बनाम अखिलेश युद्द का कारण है साधना-डिंपल का झगड़ा!