महाराष्ट्र में सियासी तूफान थमने के बाद अब क्यों खामोश हैं संजय राउत?
मुंबई, 13 जुलाई। बाल ठाकरे की पार्टी शिवसेना को उसके तल्ख तेवर के लिए जाना जाता था। बाल ठाकरे की अगुवा में शिवसैनिक बेखौफ अपने नेता के समर्थन में कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहते थे। ऐसा भी समय महाराष्ट्र ने देखा है जब शिवसेना अपनी दबंगई के लिए जानी जाती थी। कई दशकों तक शिवसेना और भाजपा ने एक साथ मिलकर प्रदेश में राजनीतिक की और लंबे समय तक प्रदेश में सरकार भी चलाई। लेकिन जिस तरह से पिछले विधानसभा चुनाव के बाद दोनों दलों के बीच दूरी आई उसने प्रदेश की राजनीति को बदलकर रख दिया।
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विचारधारा के विपरीत गठबंधन
शायद ही किसी को इस बात का विश्वास हो कि शिवसेना उस कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना सकती है जिसकी बुनियाद कांग्रेस के विरोध पर टिकी थी। लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी की लड़ाई ने शिवसेना के रास्ते भाजपा से अलग कर दिया और प्रदेश में कांग्रेस, एनसीपी व शिवसेना की महाविकास अघाड़ी की सरकार बनी। इस सरकार के गठन के बाद से ही माना जा रहा था कि उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली यह सरकार लंबे समय तक नहीं चल पाएगी और अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएगी। जिस वक्त महाराष्ट्र की राजनीति में इतना बड़ा उलटफेर हो रहा था उस वक्त शिवसेना की ओर से पार्टी के वरिष्ठ नेता संजय राउत सबसे ज्यादा मुखर थे और पार्टी का रुख बेहद मजबूती के साथ सामने रखते थे।
पार्टी को असमंजश में डाला
हालांकि संजय राउत को उस वक्त पार्टी का सबसे कद्दावर नेता माना जाता था और कहा जाता था उनकी राय पार्टी की राय है। लेकिन धीरे-धीरे हालात बदले और संजय राउत के खिलाफ पार्टी के भीतर से आवाज उठने लगी। जिस तरह से हिंदुत्व, कांग्रेस, सेक्युलर जैसे मसलों पर राउत के बयान सामने आए उसने पार्टी को असमंजस की स्थिति में डाला। पार्टी के भीतर बगावत के दौरान संजय राउत ने तमाम ऐसे बयान दिए जिसने स्थिति को और खराब करने का काम किया। शायद संजय राउत को इस बात का यकीन था कि पार्टी टूट नहीं सकती है और महाविकास अघाड़ी सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी।
राउत को लेकर पार्टी के भीतर सबकुछ ठीक नहीं
एकनाथ शिंदे की अगुवाई में बागी विधायकों ने भी डटकर संजय राउत के तीखे बयानों पर पलटवार किया और इस तरह का संदेश देने में सफल हुए कि ठाकरे परिवार और शिवसेना के बीच संजय राउथ मजबूत नहीं बल्कि कमजोर कड़ी हैं। प्रदेश में एकनाथ शिंदे सरकार के गठन के बाद संजय राउत पहले की तरह तल्ख बयानबाजी नहीं कर रहे हैं। उनके तेवर में भी नरमी देखने को मिली है। सूत्रों की मानें तो पार्टी के भीतर उनको लेकर सबकुछ ठीक नहीं है। शिवसेना के अंदरखाने में भी अब यह आवाज उठने लगी है कि संजय राउत के बयानों के चलते बागी विधायकों के साथ बातचीत और बिगड़ी।
राउत को खामोश रहने का संदेश!
अब जब भाजपा और शिवसेना के बागी विधायक मिलकर सरकार का गठन कर चुके हैं तो उद्धव ठाकरे एक ठगे से नेता नजर आ रहे हैं। उनकी ही पार्टी के विधायक अलग होकर सरकार का गठन कर चुके हैं और एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंच गए हैं। स्थिति ऐसी है कि कदम-कदम पर उद्धव ठाकरे के सामने झुकने के अलावा कोई खास विकल्प नजर नहीं आ रहा है। इसका ताजा उदाहरण एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन का ऐलान है। हालांकि संजय राउत यह कह चुके हैं कि इसका मतलब भाजपा को समर्थन देना नहीं है। लेकिन राजनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो उद्धव ठाकरे के पास इससे इतर विकल्प नजर नहीं आता है। लेकिन उद्धव ठाकरे ने द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देकर निसंदेह संजय राउत को शांत रहने का संकेत दिया है।
कोर वोटर्स को बचाने की चुनौती
हिंदुत्व की राजनीति करने वाली शिवसेना का भाजपा से अलग होना और कांग्रेस-एनसीपी के साथ जाना उसके कोर वोटर्स के लिए एक बड़ा झटका था। सरकार के कई ऐसे फैसले उसकी विचारधारा से इतर थे। यही वजह है कि सरकार से जाते-जाते उद्धव ठाकरे ने औरंगाबाद और उस्मानाबाद के नाम को बदल दिया। जिसके बाद खुद एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने कहा था कि यह हमारे कॉमन मिनिमन प्रोग्राम का हिस्सा नहीं था। उद्धव ठाकरे ने जाते-जाते भरपाई की कोशिश जरूर की थी, लेकिन पार्टी का इस तरह टूटना एक बड़ा झटका था।
महाविकास अघाड़ी के गठन में राउत की भूमिका अहम
माना जा रहा था कि महाविकास अघाड़ी की सरकार का जब गठन हो रहा था ति उसमे संजय राउत ने सबसे अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने ही कांग्रेस और एनसीपी को साथ लाने का काम किया था। पार्टी के भीतर के कई शीर्ष नेता अब संजय राउत की भूमिका से खुश नजर नहीं आ रहे हैं। यहां तक कि बागी नेताओं ने तो इशारों-इशारों में इस बात के संकेत दिए थे स्थिति बेहतर हो सकती है अगर उद्धव ठाकरे व्यक्ति विशेष के प्रभाव से बाहर आएं।
उद्धव की भावुक अपील, राउत की तल्ख बयानबाजी
महाराष्ट्र में सियासी संकट खड़ा होने के बाद उद्धव ठाकरे पहली बार सामने से आकर इस स्थिति को संभालने की कोशिश कर रहे थे, उन्होंने तमाम बागी विधायकों से भावुक अपील की, बोले हम मिलकर बात कर के समस्या का हल निकाल सकते हैं। यहां तक कि उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, मुख्यमंत्री कार्यालय तक खाली कर दिया। एक तरफ जहां उद्धव ठाकरे की नरम रुख था और भावुक अपील कर रहे थे तो दूसरी तरफ संजय राउत की तल्ख बयानबाजी जारी थी। बयानबाजी शिवसेना किसी के बाप की नहीं तक पहुंच गई थी। जिसने बागी विधायकों की वापसी की राह को और भी मुश्किल किया। सूत्रों की मानें तो संजय राउत के कुछ तल्ख बयानों से खुद उद्धव ठाकरे भी खुश नहीं थे।
खुलने लगे हैं भाजपा-ठाकरे गठबंधन के रास्ते
बहरहाल माना जा रहा है कि आने वाले समय में शिवसेना और भाजपा के बीच नजदीकी बढ़ सकती है। खुद भाजपा के एक महासचिव ने कहा कि उद्धव ठाकरे और पीएम मोदी की एक मुलाकात से स्थिति बदल सकती है। एक फोन कॉल से भी हालात बदल सकते हैं। सूत्रों की मानें तो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से कहा गया है कि वह उद्धव ठाकरे को लेकर सीधे तौर पर बयानबाजी ना करें और ना ही उनपर किसी तरह की तल्ख टिप्पणी करें। खुद उद्धव ठाकरे ने भी द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देकर पीएम मोदी के साथ बेहतर संबंध के रास्तों को खुला रखा है। माना जा रहा है कि सोमवार को जिन 13 शिवसेना सांसदों की बैठक हुई उसमे भी भाजपा के साथ एक बार फिर से सुलह का सुझाव दिया गया है।