वुसत का ब्लॉगः नवाज़ शरीफ़ ने 'तांडव नाच' क्यों किया?
यानी कुछ तो रास्ते भी मुश्किल थे, कुछ हम भी गमों से निढाल थे, कुछ शहर के लोग भी ज़ालिम थे, कुछ हमें भी मरने का शौक था.
आपने वो मुहावरा भी सुना होगा कि लड़ाई के बाद जो मुक्का याद आए वो अपने मुंह पर मार लेना चाहिए.
आपने शायद ग्रीक ट्रेजेडी के ड्रामे 'मीडिया' के बारे में भी सुना हो, जब मीडिया ने महबूब से बेवफाई का बदला यूं लिया कि अपने बच्चों को अपने ही हाथों मार
महान कवि मुनीर नियाज़ी का शेर है,
कुछ औंजवी राख्यां औंखियां सन, कुछ गल विच गमा द तौकवी सी,
कुछ शहर दे लोग वी ज़ालिम सन, कुछ सानु मरण दां शौकवी सी.
यानी कुछ तो रास्ते भी मुश्किल थे, कुछ हम भी गमों से निढाल थे, कुछ शहर के लोग भी ज़ालिम थे, कुछ हमें भी मरने का शौक था.
आपने वो मुहावरा भी सुना होगा कि लड़ाई के बाद जो मुक्का याद आए वो अपने मुंह पर मार लेना चाहिए.
आपने शायद ग्रीक ट्रेजेडी के ड्रामे 'मीडिया' के बारे में भी सुना हो, जब मीडिया ने महबूब से बेवफाई का बदला यूं लिया कि अपने बच्चों को अपने ही हाथों मार डाला ताकि उसका महबूब रोज़ हज़ार बार मरे.
आपने मिस्र के फ़िरोनों की कथा भी सुनी होगी, जब शहंशाह मरता तो उसके हुक्म पे चंद वफादार गुलामों और कनीज़ों को भी दफ़न कर दिया जाता, ताकि स्वर्ग में भी बादशाह को कोई तकलीफ न हो.
हर कोई पूछ रहा है, नवाज़ शरीफ़ ने ये क्या किया. मुंबई हमलों के 10 वर्ष बाद बीच दरिया कूद पड़ने की क्या सूझी, जहां एक से एक भयंकर घड़ियाल पहले ही मुंह खोले पड़े हैं.
अगर नवाज़ शरीफ़ ने सच बोल के दूध का दूध और पानी का पानी करने की कोशिश की तो ये सच दस वर्ष बाद उस वक्त ही क्यों याद आया जब हाथ से सब एक-एक करके निकलता जा रहा है.
और अगर ये कोई राजनैतिक करतब है तो फिर इससे दूसरों को मारने की बजाय हाराकारी क्यों कर ली.
लगता है भाई नवाज़ शरीफ़ ने नटराज शिव महाराज की पूरी तांडव कथा पढ़े-सुने बगैर अपनी 40 वर्ष पुरानी राजनैतिक दुनिया को अपने हाथों तहस-नहस करने के लिए यूं नाचना शुरू कर दिया कि पार्टी का पुर्जा भी ना बचे.
भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया की तो चार दिन की ईद हो गई. मगर नवाज़ शरीफ़ को रावी के पुल से छलांग लगा के क्या मिला.
क्या इस बलिदान से पाकिस्तानी इस्टेबिलिशमेंट को कोई पॉलिसी झटका लगेगा, क्या नवाज़ शरीफ़ की कुर्बानी से भारतीय इस्टेबिलिशमेंट की आंखों में आंसू आ जाएंगे कि 'बस-बस तू ने अपनी गलती मान ली, मैंने माफ़ किया. अब और मत रुलाना भैया, आ गले लग जा पगले.'
ऐसा तो कुछ नहीं होने का. ये अजब समय है भाऊ, ये सच बोलने या सच सुनने का नहीं, अपना-अपना सच, अपनी-अपनी इज्जत, अपनी-अपनी पगड़ी बचाने और अपना उल्लू सीधा करने का युग है.
सावन में बारिश की बात ही अच्छी लगती है पतझड़ की नहीं. वो वक्त भी ज़रूर आएगा जब एक के सच पे दूसरे को यकीन आने लगेगा.
तब तक कुछ भी कर लो भारत-पाकिस्तान संबंध उस काला धुआं देती खटारा बस जैसे ही रहेंगे जिसके पिछले बम्पर पे लिखा था,
'यो तो नूं ही चालेगी'
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