श्रीलंका में खाने-पीने की चीज़ों की इतनी क़िल्लत क्यों हो गई है?
श्रीलंका में आम लोग रोज़मर्रा की चीज़ों के लिए संघर्ष कर रहे हैं. गोटाबाया राजपक्षे की सरकार का इस बारे में क्या कहना है और इस क़िल्लत की वजह क्या है.
श्रीलंका में कोरोना को नियंत्रित करने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के बावजूद ज़रूरी चीजें खरीदने के लिए लोगों को लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ रहा है.
सरकार संचालित सुपरमार्केट में रोज़ाना इस्तेमाल के सामान कम हैं. सामानों को रखने के लिए बने कई दराज़ खाली पड़े हैं और वहां दूध पाउडर, अनाज और चावल जैसे आयात होकर बिकने वाले सामानों के बहुत कम स्टॉक बचे हैं.
हालांकि श्रीलंका सरकार इन सामानों की कमी से इनकार कर रही है और मीडिया पर लोगों के मन में डर फैलाने के आरोप लगा रही है.
वहां के ये हालात सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल और विदेशी मुद्रा संकट के चलते देश के केंद्रीय बैंक के प्रमुख के पद छोड़ देने के बाद बने हैं.
सरकार ने अब तक क्या किया?
इससे पहले 30 अगस्त को श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने ज़रूरी सामानों की आपूर्ति पर सख़्त नियंत्रण लगाने की घोषणा की. सरकार ने कहा कि व्यापारियों को खाद्य पदार्थों की जमाखोरी को रोकने और महंगाई को नियंत्रित करने के लिए ऐसा करना ज़रूरी था.
श्रीलंका इस समय अपनी मुद्रा के अवमूल्यन, बढ़ती महंगाई और विदेशी ऋण के अपंग बना देने वाले बोझ से जूझ रहा है. इसके अलावा, कोरोना महामारी के चलते वह विदेशी पर्यटकों के आगमन में हुई भारी कमी का भी सामना कर रहा है.
श्रीलंका के लिए आर्थिक मंदी विशेष रूप से चिंता का विषय है क्योंकि हाल तक उसकी अर्थव्यवस्था दक्षिण एशिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्थाओं में से एक मानी जाती थी. दो साल पहले यानी 2019 में विश्व बैंक ने श्रीलंका को दुनिया के उच्च मध्यम आय वाले देशों की श्रेणी में अपग्रेड किया था.
इसके साथ उस पर विदेशी कर्ज़ का बोझ भी तेज़ी से बढ़ रहा है. विश्व बैंक के अनुसार, 2019 में श्रीलंका का कर्ज़ बढ़कर सकल राष्ट्रीय आय (जीएनआई) का 69 फ़ीसदी हो गया जबकि 2010 में यह केवल 39 फ़ीसदी ही था.
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खाद्य पदार्थ कैसे लोगों की पहुंच से दूर हुए?
आर्थिक संकट के चलते कई ज़रूरी खाद्य पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं. हालिया महीनों में, चीनी, प्याज़ और दाल जैसे सामान महंगे हुए हैं.
इस बीच, मई में महंगा होने के बाद चावल के दाम अब गिरे हैं और सितंबर के शुरू में खुदरा मूल्य की सीमा लागू होने के बाद इसके दाम गिरते जा रहे हैं.
आपातकाल के प्रावधानों के तहत सरकार से ये उम्मीद की जाती है कि वो व्यापारियों से उनके स्टॉक ख़रीदकर तय क़ीमतों पर लोगों को खाद्य पदार्थ और अन्य ज़रूरी चीजें उपलब्ध करवाए.
ज़रूरी चीजों की कमी पर श्रीलंका के वित्त मंत्रालय ने एक बयान जारी कर बीबीसी को बताया कि ये कमी "कृत्रिम" थी. मंत्रालय ने कहा, "बेईमान लोगों की ओर से पैदा की गई कृत्रिम कमी के चलते इन वस्तुओं के दाम ज़ाहिर है कि बढ़ेंगे."
सरकार ने रोजमर्रा के सामनों की कमी का पुरज़ोर खंडन किया है.
वित्त मंत्रालय ने बीबीसी को भेजे अपने जवाब में कहा, "हम पूरा भरोसा दे सकते हैं कि सभी ज़रूरी सामान हर समय आसानी से उपलब्ध होंगे."
पूर्व वित्त राज्य मंत्री और मंगलवार को देश के केंद्रीय बैंक के प्रमुख बन चुके अजित निवार्ड काबराल ने खाने-पीने के सामानों की कमी के बारे में "झूठी रिपोर्ट" फैलाने के लिए विपक्ष को दोषी ठहराया है.
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'घंटों लाइन में लगने के बाद भी सामान नहीं मिलता'
हालांकि, चीनी, चावल, दाल और दूध पाउडर जैसे ज़रूरी सामानों के लिए हाल में लंबी-लंबी कतारें देखने को मिली हैं.
कोलंबो के पास गमपाहा में एक सरकारी सुपरमार्केट में कतार में खड़ी रहने वाली राम्या श्रीयानी ने बताया कि उन्हें लगभग एक घंटे तक इंतज़ार करना पड़ा और उसके बाद भी उन्हें चावल और दूध का पाउडर नहीं मिल पाया क्योंकि ख़त्म हो गया था.
सरकार की नीति की आलोचना करने वाले सांसदों ने कहा है कि जमाखोरी और बढ़ती क़ीमतों पर लगाम लगाने वाले क़ानून पहले से ही थे और आपातकाल घोषित करने का फ़ैसला "ख़राब नीयत" से लिया गया.
श्रीलंका की विपक्षी एसजेबी पार्टी के एरान विक्रमरत्ने ने कहा, "यह संकट सत्ता संघर्ष की अभिव्यक्ति मात्र है, जहां राष्ट्रपति और सरकार अपनी सत्ता को मज़बूत करने के लिए आम नागरिकों की जान जोख़िम में डाल रहे हैं."
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क्या इसकी ज़िम्मेदार जैविक खेती है?
सरकार ने अप्रैल में जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया था. लेकिन उसके इस क़दम की काफी आलोचना हुई.
ऑल सीलोन फ़ार्म्स फ़ेडरेशन के राष्ट्रीय आयोजक नमल करुणारत्ने ने कहा, "हम जैविक खेती के विरोध में नहीं बल्कि आयात होने वाले घटिया रासायनिक उर्वरकों के ख़िलाफ़ हैं." उन्होंने कहा कि "इसका जवाब रातोंरात आयात पर प्रतिबंध लगाना नहीं है."
कुछ किसानों का कहना है कि तेज़ी से बदलाव करने से उत्पादन ख़ासा कम हो सकता है.
अंपारा ज़िला संयुक्त किसान संघ के अध्यक्ष एचसी हेमकुमार ने बताया, "जैविक उर्वरक की उत्पादकता रासायनिक उर्वरकों से कम होती है. इससे हमारा उत्पादन कम हो जाएगा और हमारा जीवनयापन और अधिक कठिन हो जाएगा."
जुलाई में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार, श्रीलंका के लगभग 90 फ़ीसदी किसान खेती में रासायनिक पदार्थों का उपयोग करते हैं. रासायनिक उर्वरकों पर सबसे अधिक निर्भरता चावल, रबड़ और चाय के किसानों की रही है.
देश के कुल निर्यात आय में चाय का हिस्सा 10 फ़ीसदी का है. ऐसे में कई चाय उत्पादकों का कहना है कि उन्हें अपने उत्पादन के आधे हिस्से का नुक़सान हो सकता है.
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'अचानक जैविक खेती करने से खाद्य सुरक्षा को ख़तरा'
जर्मनी के होहेनहेम विश्वविद्यालय में सेंटर फ़ॉर ऑर्गेनिक फ़ार्मिंग की प्रोफ़ेसर सबाइन ज़िकेली ने बताया कि जैविक खेती की ओर तेज़ी से मुड़ने से देश की खाद्य सुरक्षा ख़तरे में पड़ सकती है.
वो कहती हैं, "आप इन पारंपरिक फ़सल प्रणालियों को आसानी से नहीं बदल सकते. आपको इसके लिए वक़्त देना होगा." उनके अनुसार, "जैविक खेती की ओर जाने के लिए किसी देश को तीन साल या इससे अधिक समय लगता है."
भूटान ने 2008 में पेश अपनी नीति में कहा था कि वो 2020 तक अपनी खेती को शत-प्रतिशत जैविक बना लेगा.
लेकिन यह लक्ष्य पाने से भूटान काफ़ी पीछे रह गया. हाल के एक अध्ययन से पता चला कि जैविक खेती से पैदावार काफ़ी कम हो गई है जिससे आयात पर उसकी निर्भरता बढ़ी है.
यह अध्ययन करने वाली टीम की सदस्य रह चुकी प्रोफ़ेसर ज़िकेली ने बताया कि श्रीलंका को भी अब ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ सकता है और मौज़ूदा आर्थिक संकट इसकी खाद्य सुरक्षा के ख़तरों को और बढ़ा सकता है.
श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार इन दिनों काफ़ी कम हो गया है. उसके पास जो राशि है वो कर्ज़ को चुकाने में ख़र्च हो जा रही है.
जुलाई के अंत में देश का विदेशी मुद्रा भंडार केवल 2.8 अरब डॉलर रह गया था जो वर्तमान सरकार के पदभार संभालते वक़्त नवंबर 2019 में 7.5 अरब डॉलर था. वहीं श्रीलंका पर अभी क़रीब 4 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज़ है. इस पर उसे ब्याज भी देना है.
इससे चीनी, गेहूं, डेयरी उत्पाद और मेडिकल सप्लाई जैसी ज़रूरी वस्तुओं का उसका आयात प्रभावित हो सकता है.
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