भारत की विदेश नीति को क्यों कहा जा रहा है स्वार्थी?
'भारत अदूरदर्शी विदेश नीति के सहारे आगे बढ़ रहा है और भारतीय नीति-निर्माता इस बात से बेपरवाह हैं, कि अल्पकालिक स्वार्थ से आगे भारत को नुकसान भी हो सकता है'
Indian Diplomacy: अक्टूबर 2022 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक मसौदा प्रस्ताव लाया गया था, जिसमें यूक्रेन के क्षेत्रों पर रूसी कब्जे की निंदा की गई थी। लेकिन, भारत ने उस मसौदा प्रस्ताव पर वोटिंग करने से पहरेज किया था। भारत का ये रूख क्वाड देशों की सदस्यता के रूख से विपरीत है, क्योंकि भारत छोड़कर क्वाड के बाकी तीनों सदस्य यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस के प्रति काफी आक्रामक रूख रखते हैं। लिहाजा अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में लगातार इस बात की चर्चा की जा रही है, कि क्या भारत अपने हित के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नैतिकता का पक्ष नहीं ले रहा है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति के तहत भारत का लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को आकार देने में सक्षम एक प्रमुख शक्ति बनना है। लेकिन, क्या सिर्फ निजी हितों को आगे रखकर भारत अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है?
भारत की विदेश नीति में निजी हित
भारत अपनी विदेश नीति को पूरी तरह से स्वतंत्र बताता है और स्वायत्तता की बात करता है और किसी एक देश के लिए सामरिक स्वायत्तता का मतलब एक देश के लिए अपने राष्ट्रीय हितों को अपनाना, बिना किसी तीसरे देश के प्रेशर में आए उसे आगे बढ़ना है और भारत का कहना रहा है, कि वो गुटनिरपेक्ष नीति का पालन करता है, जो अपनी पसंदीदा विदेश नीति को लेकर आगे बढ़ता है। बहुध्रुवीय अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में ऐसी स्वायत्तता सबसे आसानी से प्राप्त की जा सकती है, जहां कई महान शक्तियों को एक दूसरे के खिलाफ खेलते देखा जा सकता है। और भारतीय कूटनीति का सबसे मजबूत पक्ष ही यही है, कि भारत इस बहुध्रुवीय व्यवस्था में खुद को किसी भी पक्ष का नहीं मानता है। लेकिन, सवाल ये उठते हैं, कि मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में जहां हर ताकतवर देश पैंतरेबाजी करने में लगे हुए हैं, तो फिर भारत भी अपनी विदेश नीति में लचीलापन क्यों नहीं लाए।
भारत की हैरान करने वाली नीति
भारत की विदेश नीति हैरान करने वाली और अप्रत्याशित लग सकती है। क्योंकि, भारत दुनिया में बने हर ध्रुव के साथ किसी ना किसी तरह से जुड़ा हुआ है। भारत अमेरिका के साथ जहां क्वाड से जुड़ा हुआ है, वहीं भारत चीन और रूस के साथ शंघाई सहयोग संगठन से भी जुड़ा हुआ है, जिसकी बैठक पिछले महीने ही उज्बेकिस्तान के समरकंद में हुई है। भारत इजरायल के साथ भी जुड़ा हुआ है, फिलीस्तीन का भी दोस्त है और सऊदी अरब के साथ भी भारत के रिश्ते काफी मजबूत हैं। इस तरह से अगल भारतीय विदेश नीति को देखें, तो ये अप्रत्याशित और हैरान करने वाली लग सकती है। संयुक्त राष्ट्र और अन्य बहुपक्षीय मंचों में भारत अक्सर रूस और चीन के साथ खड़ा नजर आता है, जिससे क्वाज के लिए असमंजस की स्थिति पैदा होती है। भारत अपनी इस रणनीति को सार्वजनिक रूप से रणनीतिक स्वायत्तता प्रदर्शित करने का सबसे कम लागत वाला तरीका मानता है और भारत का मानना है, कि संयुक्त राष्ट्र में लिए गये उसके फैसलों से किसी मित्र देश के साथ उसके संबंध भी खराब नहीं होंगे।
मजबूरी या मनमर्जी?
हालांकि, कई एक्सपर्ट का मानना है, कि भारत जिस रणनीति के आसरे बढ़ रहा है, हो सकता है उसके लिए चीन भारत संघर्ष की स्थिति में भारत के लिए थोड़ी मुश्किलें खड़ी करने वाला हो। या फिर पश्चिम से भारत को उस तरह की मदद ना मिले, जैसा आत्मनिर्भर बनने के लिए भारत चाहता है। इसके साथ ही भारत की मजबूरी ये है, कि अपने सशस्त्र बलों तक सैन्य समर्थन लगातार पहुंचाने के लिए उसे रूस पर निर्भर रहना पड़ता है और निकट भविष्य में भारत को इससे छुटकारा भी नहीं मिलने वाली है। हालांकि, भारत लगातार सैन्य टेक्नोलॉजी में आत्मनिर्भर बनने और अपनी विदेशी हथियारों की खरीद में विविधता लाने की कोशिश कर रहा है, लिहाजा फ्रांस और इजरायल जैसे देश भारत के नये भागीदार बने हैं। हालांकि, इसके साथ ही भारत ने साल 2019 में रूस के साथ दो परमाणु पनडुब्बियों के लिए भी करार किया है, जो चीन की आक्रामकता देखते हुए काफी जरूरत है। लिहाजा, कहीं ना कहीं भारत फंसा हुआ भी नजर आता है।
भविष्य की तैयारी कर रहा है भारत?
इम सबके बीच अमेरिका ने इसी साल इंडो-पैसिफिक के लिए ऑस्ट्रेलिया के साथ रणनीतिक संबंध मजबूत करने शूरू कर दिए हैं, जो भारत की रणनीतिक सोच के बिल्कुल विपरीत है। वहीं, ऑस्ट्रेलिया पारस्परिक संबंधों को निभाने की तरफ काफी ज्यादा ध्यान देता है। लिहाजा भारत को भी इस तरफ ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन, कुछ एक्सपर्ट्स का मानना है, भारत ने अपनी सुरक्षा मजबूरियों के साथ अमेरिका को वाकिफ करवाया है और पिछले कुछ महीनों में अमेरिकी अधिकारियों ने रूस के साथ भारत के पूर्व संबंधों को स्वीकार भी किया है। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडने भी इस बात को सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं, कि 'रूस के साथ भारत के ऐतिहासिक संबंध रहे हैं और अमेरिका इस बात को समझता है।' लिहाजा कहा जा सकता है, कि भारत अब भविष्य की तैयारी कर रहा है, ताकि अपनी सुरक्षा को लेकर किसी एक देश पर निर्भर नहीं रहा जाए।
भारत की विदेश नीति पर उठते सवाल
हालांकि, ग्रिफिथ यूनिवर्सिटी के पीटर लेटन का मानना है कि, भारत अदूरदर्शी विदेश नीति के सहारे आगे बढ़ रहा है और भारतीय नीति-निर्माता इस बात से बेपरवाह हैं, कि अल्पकालिक स्वार्थ को आगे रखने का मतलब यह हो सकता है, कि अन्य लोग भी भारत की तरह ही नीति अपना सकते हैं, जब भारत को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन की आवश्यकता हो। वहीं, कुछ एक्सपर्ट का कहना है, कि भारत को अंजाम दिखने भी लगा है, जब सितंबर महीने में अमेरिका ने पाकिस्तान को एक बार फिर से मिलिट्री पैकेज देने की शुरूआत कर दी। जिसको लेकर भारत के रक्षा और विदेश मंत्रियों दोनों ने चिंता व्यक्त की। लेकिन कई मामलों में, यह भारत की अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के दृष्टिकोण से अलग नहीं था। लिहाजा, आने वाले वक्त में भारत की विदेश नीति किस तरह से आगे बढ़ती है, उसका प्रभाव निश्चित तौर पर पूरी दुनिया पर पड़ेगा।
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