पाकिस्तान: क्या भुट्टो के तख़्तापलट और उनकी फांसी में अमेरिका का हाथ था?
इमरान ख़ान ने दावा किया है कि उनकी सरकार गिराने की साज़िश में विदेशी हाथ है. 45 साल पहले ज़ुल्फ़िकार भुट्टो ने भी ऐसा ही दावा किया था. पाकिस्तान की सियासत में विदेशी हस्तक्षेप के दावों में कितनी सच्चाई होती है?
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने 27 मार्च को एक बड़ी रैली को संबोधित करते हुए अपनी जेब से एक ख़त निकाला और उसे लहराते हुए दावा किया कि उनकी सरकार गिराने के लिए विदेशों में साज़िशें रची जा रही हैं और उन्हें धमकियां दी जा रही हैं.
इमरान ख़ान ने अपने भाषण में पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फ़िकार अली भुट्टो का भी हवाला दिया, जिन्होंने 45 साल पहले पाकिस्तानी संसद के संयुक्त सत्र में दिए एक बेहद भावुक भाषण में आरोप लगाया था कि उनकी सरकार के ख़िलाफ़ विपक्ष के आंदोलन के पीछे अमेरिका का हाथ है, जो उन्हें सत्ता से बेदख़ल करना चाहता है.
इमरान ख़ान ने कहा कि जब जुल्फ़िकार अली भुट्टो ने देश को एक आज़ाद विदेश नीति देने की कोशिश की, जिन्हें ख़ुद्दारी हमेशा पसंद थी. उन्होंने कहा कि तब फ़ज़लुर रहमान और नवाज़ शरीफ़ की पार्टियों ने भुट्टो के ख़िलाफ़ एक आंदोलन शुरू किया, जिसके बाद हालात ऐसे बना दिए गए कि जुल्फ़िकार अली भुट्टो को फांसी दे दी गई.
जुल्फ़िकार अली भुट्टो ने तब कहा था, "यह एक बहुत बड़ी साज़िश है, जिसे अमेरिका की आर्थिक मदद हासिल है, ताकि मेरे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के ज़रिए मुझे बाहर निकाल दिया जाए."
इसका कारण बताते हुए भुट्टो ने कहा था, "वियतनाम युद्ध में अमेरिका का समर्थन न करने और इसराइल के ख़िलाफ़ अरबों का समर्थन करने के चलते अमेरिका उन्हें माफ़ नहीं करेगा."
एक घंटे 45 मिनट तक चले उस भाषण में उन्होंने अमेरिका को ऐसा हाथी बताया, जो न कभी भूलता है और न ही माफ़ करता है.
जुल्फ़िकार अली भुट्टो के अनुसार, अमेरिकी साज़िश सफल रही और विपक्षी दलों के गठबंधन पीएनए के आंदोलन का फ़ायदा उठाते हुए जनरल ज़िया-उल-हक़ ने उन्हें हटाकर 5 जुलाई, 1977 को पूरे देश में मार्शल लॉ लागू कर दिया.
उसके बाद, भुट्टो पर नवाब मुहम्मद अहमद ख़ान क़सूरी की हत्या का मुक़दमा चलाया गया.
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क्या कहा था भुट्टो ने?
अदालत में अपने बयान में जुल्फ़िकार अली भुट्टो ने दावा किया था, "उनके साथ ये सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि उन्होंने पाकिस्तान को एक परमाणु शक्ति बनाने का निश्चय किया और अमेरिका के विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर की चेतावनी के बावजूद उन्होंने परमाणु कार्यक्रम से पीछे हटने से इनकार कर दिया. उस पर हेनरी किसिंजर ने उन्हें धमकी दी कि आपको एक भयानक उदाहरण बना दिया जाएगा."
अमेरिका के विदेश मंत्री का यह कथित वाक्य आज भी पाकिस्तान की राजनीति में गूंज रहा है. पाकिस्तान आज जिन हालातों का सामना कर रहा है, उसमें इस धमकी और इसके नतीज़ों की बहुत बड़ी भूमिका है.
हालांकि, इसके एकमात्र गवाह जुल्फ़िकार अली भुट्टो ही थे, जो अपने शासन के अंतिम दिनों में और अपनी गिरफ़्तारी के बाद भी लगातार चीख़-चीख़ कर बताने की कोशिश कर रहे थे कि अमेरिका उनके ख़िलाफ़ साज़िशें कर रहा है और विपक्षी दल और पाकिस्तान के कुछ उद्योगपति भी उस साज़िश में शामिल हैं.
जुल्फ़िकार अली भुट्टो उस समय पाकिस्तान के लोगों को लामबंद करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
इस बीच, उन्होंने कई और जगहों पर हेनरी किसिंजर के धमकी देने के दावे को दोहराया. अपने मुक़दमे में जुल्फ़िकार अली भुट्टो ने मौलवी मुश्ताक़ की अध्यक्षता वाली लाहौर उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ को बताया कि उन्हें अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने धमकी दी थी.
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अमेरिकी अधिकारी और दस्तावेज़ क्या कहते हैं?
हेनरी किसिंजर के उस वाक्य कि "आपको एक भयानक उदाहरण बना देंगे" की पुष्टि वैसे तो किसी भी स्वतंत्र स्रोत से नहीं हो सकी. हालांकि इस्लामाबाद में अमेरिकी दूतावास के डिप्टी चीफ़ मिशन जेराल्ड फ़्यूरिस्टीन ने अप्रैल 2010 में पाकिस्तानी मीडिया को दिए अपने इंटरव्यू में इसकी पुष्टि की थी कि एक प्रोटोकॉल अधिकारी के रूप में वो 10 अगस्त, 1976 को लाहौर में हुई उस मुलाक़ात के एक चश्मदीद गवाह हैं. उस मुलाक़ात में भुट्टो ने पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को ख़त्म करने की हेनरी किसिंजर की चेतावनी को ख़ारिज कर दिया था.
उन्होंने एक स्थानीय टीवी चैनल को दिए अपने इंटरव्यू में बताया था कि अमेरिका पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर चिंतित था, जो भारत की परमाणु क्षमता की बराबरी करने के लिए था. इसीलिए भुट्टो को चेतावनी देने के लिए हेनरी किसिंजर को पाकिस्तान भेजा गया था.
उन्होंने कहा था, "यह सच है कि भुट्टो ने इस चेतावनी को ख़ारिज कर दिया था और अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखा. मैं उस समय एक प्रोटोकॉल अधिकारी था, जब अगस्त 1976 में किसिंजर पाकिस्तान आए थे और लाहौर में भुट्टो से मिले थे."
जेराल्ड फ़्यूरिस्टीन ने अपने इंटरव्यू में यह भी कहा था कि उस समय अमेरिका में चुनाव क़रीब थे और विपक्षी डेमोक्रेट्स के जीतने की बहुत ज़्यादा संभावना थी. इसलिए वहां की सरकार परमाणु अप्रसार नीति का सख़्ती से पालन करना चाहती थी और पाकिस्तान को इसके लिए एक उदाहरण बनाना चाहती थी. किसिंजर ने भुट्टो को परमाणु कार्यक्रम छोड़ने के लिए ए-सेवन अटैक बॉम्बर विमान देने की भी पेशकश की थी, नहीं तो आर्थिक और सैन्य प्रतिबंध झेलने के बारे में बताया था.
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जेराल्ड फ़्यूरिस्टीन ने अपने उस इंटरव्यू में भुट्टो को उनकी कमज़ोरियों के बावजूद पाकिस्तान का सबसे क़ाबिल, बुद्धिमान और सक्षम राजनेता बताया था.
जुल्फ़िकार अली भुट्टो और अमेरिका के राष्ट्रपति गेराल्ड फ़ोर्ड, विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर और अन्य अमेरिकी अधिकारियों के साथ हुई बैठकों का पूरा ब्यौरा वहां के विदेश विभाग के रिकॉर्ड में मौजूद हैं.
उन रिकॉर्ड में हालांकि यह वाक्य तो नहीं मिलता कि "हम आपको एक भयानक उदाहरण बना देंगे," लेकिन इसमें बड़े दिलचस्प संवाद हैं, जिनसे विभिन्न मुद्दों पर भुट्टो की पकड़ का अंदाज़ा होता है.
उदाहरण के लिए, 183 मेमोरेंडम ऑफ़ कन्वर्सेशन में 31 अक्टूबर, 1974 को इस्लामाबाद में अमेरिकी और पाकिस्तानी राजनयिकों की उपस्थिति में भुट्टो और किसिंजर के बीच हुई एक मुलाक़ात के दौरान किसिंजर ने अमेरिकी किसानों का ज़िक्र किया, जिनके साथ मामले सुलझाने में ख़ुद उन्हें और अमेरिकी सरकार को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था.
किसिंजर ने कहा कि अमेरिकी किसान देश में अधिक उत्पादन के माहौल में अपनी उपज को मुक्त बाज़ार में बेचने के आदी हैं, जबकि इस समय परिस्थितियां अलग हैं और देश में संसाधनों का भंडारण करने में समस्या होती है.
इस पर भुट्टो ने कहा कि "मुझे याद है कि कुछ समय पहले शायद हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के कुछ विशेषज्ञों ने मुझे सुझाव दिया था कि पाकिस्तान को गेहूं उत्पादन बढ़ाने के बजाय औद्योगिक उत्पादन पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि अमेरिका में गेहूं की पैदावार हमेशा अधिक होगी और पाकिस्तान की ज़रूरतें पूरी होती रहेंगी."
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अमेरिका के एक और अधिकारी और वहां के पूर्व अटॉर्नी जनरल रामसे क्लार्क ने अपने एक लेख में लिखा था, "मैं किसी कॉन्सप्रेसी थ्योरीज़ पर तो विश्वास नहीं करता, लेकिन चिली और पाकिस्तान में होने वाले दंगों के बीच काफ़ी समानताएं हैं. चिली में भी सीआईए ने कथित तौर पर वहां के राष्ट्रपति सल्वाडोर अलेंदे का तख़्तापलट करने में मदद की थी."
रामसे क्लार्क ने भुट्टो पर चलने वाले मुक़दमे को ख़ुद देखा था, उन्होंने लिखा कि यह मुक़दमा एक मज़ाक़ था, जो एक 'कंगारु कोर्ट' में लड़ा गया.
रामसे क्लार्क जुल्फ़िकार अली भुट्टो का केस लड़ना चाहते थे और इस सिलसिले में पाकिस्तान भी गए थे, लेकिन जनरल ज़िया-उल-हक़ ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दी. उन्होंने भुट्टो की फांसी को "क़ानूनी राजनीतिक हत्या" क़रार दिया था.
रामसे क्लार्क का पिछले साल 9 अप्रैल को 93 साल की उम्र में निधन हो गया.
अली जाफ़र ज़ैदी, भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के शुरुआती कार्यकर्ताओं में से एक रहे हैं और जुल्फ़िकार अली भुट्टो के क़रीबी थे. मार्च 1968 में उन्हें पीपीपी की साप्ताहिक वैचारिक पत्रिका 'नुसरत' का पहला संपादक नियुक्त किया गया. उसके प्रधान संपादक हनीफ़ रामे थे.
अली जाफ़र ज़ैदी पांच साल तक इस पत्रिका के संपादक रहे. वो 'अंदर जंगल, बाहर आग' नामक किताब के भी लेखक हैं.
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उन्होंने उन घटनाओं की पृष्ठभूमि बताते हुए कहा कि उन दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और भुट्टो की बहुत अच्छी दोस्ती थी. इसके बाद जब राष्ट्रपति फ़ोर्ड आये तो हेनरी किसिंजर उनके सुरक्षा सलाहकार और विदेश मंत्री थे. ये साल 1976 की बात है, जब अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की तैयारी हो रही थी और जिमी कार्टर भी राष्ट्रपति पद की दौड़ में थे.
वो कहते हैं, "जिमी कार्टर दो बातों पर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ थे. एक परमाणु कार्यक्रम और दूसरा मानवाधिकार की स्थिति."
अली जाफ़र ज़ैदी कहते हैं कि भुट्टो ने अपने बयान में अदालत को बताया था कि हेनरी किसिंजर ने कहा कि यदि आपने रिप्रोसेसिंग प्लांट के समझौते को रद्द नहीं किया या बदला नहीं या निलंबित नहीं किया, तो हम आपको एक "भयानक उदाहरण" बना देंगे.
ज़ैदी कहते हैं, "इसके जवाब में भुट्टो ने कहा कि मैं अपने देश और पाकिस्तान के लोगों की ख़ातिर इस ब्लैकमेलिंग और धमकी को नहीं मानूंगा."
इससे पहले, 1974 में जब भारत ने 'स्माइलिंग बुद्धा' नाम से परमाणु बम का परीक्षण किया, तो भुट्टो ने हेनरी किसिंजर से अपनी चिंता और आपत्ति ज़ाहिर की और कहा कि पाकिस्तान की सुरक्षा और उसके अस्तित्व को ख़तरा है. इसके जवाब में किसिंजर ने कहा कि जो होना था, वो हो गया और अब पाकिस्तान को इसी सच के साथ रहना होगा.
अली जाफ़र ज़ैदी का कहना है कि इसके बाद भुट्टो पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के बारे में अधिक गंभीर हो गए, जिस पर वह पहले से ही काम कर रहे थे.
वो कहते हैं, "1965 के युद्ध के बाद अयूब ख़ान के साथ भुट्टो के मतभेद हो गए थे. वे जब 1965 में ही वियना गए, तो वहां डॉक्टर मुनीर अहमद ख़ान इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (IAEA) में सीनियर पद पर थे. उन्होंने तभी भुट्टो से कहा कि भारत ने परमाणु बम बनाने की तैयारी शुरू कर दी है."
अली जाफ़र ज़ैदी के अनुसार, भुट्टो ने तब से ही परमाणु कार्यक्रम के लिए अपना मन बना लिया था.
उनके अनुसार, "भुट्टो बुनियादी तौर पर एक पाकिस्तानी राष्ट्रवादी थे. वो किसी भी तरह से पाकिस्तान पर भारतीय आधिपत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. इसलिए वे 1965 से ही परमाणु कार्यक्रम के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुके थे."
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भुट्टो की पहल पर बनने लगा परमाणु बम
अली जाफ़र ज़ैदी के अनुसार, 1972 में भुट्टो ने डॉ मुनीर अहमद ख़ान को राजी करते हुए उन्हें पाकिस्तान इंस्टीट्यूट ऑफ़ न्यूक्लियर साइंस एंड टेक्नोलॉजी का अध्यक्ष बना दिया और डॉ अब्दुल सलाम को साइंस एंड टेक्नोलॉजी सलाहकार नियुक्त किया.
वो कहते हैं, ''इस तरह देश के परमाणु कार्यक्रम पर तेज़ी से काम शुरू हुआ, तब मैंने क़ायद-ए-आज़म यूनिवर्सिटी के लिए काम करना शुरू किया, तो पाकिस्तान इंस्टीट्यूट ऑफ़ न्यूक्लियर साइंस एंड टेक्नोलॉजी इस यूनिवर्सिटी से जुड़ा हुआ ही एक इंस्टिट्यूट था. इस यूनिवर्सिटी की योजना और विकास मेरी ही ज़िम्मेदारी थी, इसलिए इस इंस्टिट्यूट की योजना और विकास भी मेरी ही ज़िम्मेदारी थी.''
उनके अनुसार, ''उस इंस्टिट्यूट की सारा डेवलपमेंट ग्रांट और पंचवर्षीय योजना भी मेरे ज़रिए ही सरकार तक पहुंचती थी. चूंकि इसमें सुरक्षा और संवेदनशील मुद्दे अधिक थे, इसलिए भुट्टो ने बाद में इस इंस्टिट्यूट को सीधे अपने अधीन कर लिया था. यानी क़ायदे-आज़म यूनिवर्सिटी, जो तब इस्लामाबाद यूनिवर्सिटी हुआ करती थी, से अलग करते हुए एक आज़ाद इंस्टिट्यूट बनाकर उसे अपने अधीन कर लिया था.''
वो कहते हैं, ''जब मैं साप्ताहिक नुसरत का संपादक था, तो भुट्टो के कई लेखों का उर्दू अनुवाद मैं ख़ुद करता था. उन्होंने 1970 में 'मिथ ऑफ़ इंडिपेंडेंस' नामक किताब लिखी थी, जिसका उर्दू अनुवाद मैंने ही किया. इस किताब में भुट्टो ने लिखा कि यदि हमने अपना परमाणु कार्यक्रम केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए जारी रखा और भारत ने परमाणु हथियारों में बढ़त हासिल कर ली, तो वो हमें ब्लैकमेल करता रहेगा. भारत को पाकिस्तान की वायु सेना पर बढ़त हासिल हो जाएगी. इससे पाकिस्तान उत्तरी क्षेत्रों और कश्मीर से हाथ धो बैठेगा, जबकि बाक़ी पाकिस्तान को जातीय आधार पर बांटकर उसे छोटे राज्यों में विभाजित करके ख़त्म कर दिया जायेगा."
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अली जाफ़र ज़ैदी ने कहा, ''पाकिस्तान में परमाणु ऊर्जा आयोग तो 1957 से था, पर उसका उद्देश्य केवल ऊर्जा हासिल करना था, जबकि भुट्टो भारत के मुक़ाबले में परमाणु बम बनाना चाहते थे. यह बात अमेरिका और यूरोप की ख़ुफ़िया एजेंसियों को पता थी. इसलिए पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम इन देशों की नज़र में एक ख़तरा था और इस ख़तरे को दूर करने के प्रयास किए गए.''
1976-1977 में जब भुट्टो सरकार के ख़िलाफ़ पीएनए का आंदोलन चल रहा था, तब जिमी कार्टर अमेरिका के राष्ट्रपति बन चुके थे. साथ ही हेनरी किसिंजर की जगह साइरस वीनस नए विदेश मंत्री बन गए थे. कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि विपक्ष के आंदोलन को अमेरिका का समर्थन हासिल था.
अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने पीएनए आंदोलन को मानवाधिकारों का आंदोलन बताते हुए कहा कि भुट्टो इसे कुचलना चाहते हैं. इस आंदोलन को अमेरिका का आर्थिक समर्थन मिल रहा था और वास्तव में यह पूरा मामला पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम से ही जुड़ा हुआ था.
वो कहते हैं, ''जिस दिन भुट्टो ने संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित किया और अमेरिका पर उनकी सरकार गिराने की कोशिश करने का आरोप लगाया, शायद उसके दूसरे दिन मैं और डॉ सईद शफ़क़त पिंडी के एक रेस्तरां की तरफ़ जा रहे थे, जहां एक साहब ने हमें चाय के लिए बुलाया था. हम हाथी चौक से एडवर्ड रोड की तरफ़ पैदल ही जा रहे थे, तभी वहां अचानक भुट्टो पहुंच गए. और अपनी कार से उतर कर मुझसे मेरा हालचाल पूछा. इतने में उन्हें वहां देखकर लोग जमा होने लगे.''
ज़ैदी के अनुसार, ''भुट्टो ने वहां एक संक्षिप्त भाषण दिया, जिसमें उन्होंने अमेरिकी विदेश मंत्री साइरस वीनस का एक पत्र वहां लहराया, जिसमें भुट्टो को एक बार फिर धमकी दी गई थी. पत्र लहराते हुए उन्होंने वहां मौजूद लोगों से कहाकि देखो केवल मुझे ही ख़तरा नहीं है, बल्कि पाकिस्तान को भी ख़तरा है.''
अली जाफ़र ज़ैदी उस समय को याद करते हुए कहते हैं कि भुट्टो लगातार कह रहे थे कि ख़ुदा के लिए इस आंदोलन को समझो कि इसके पीछे अमेरिका है. यह आंदोलन इसलिए शुरू हुआ, क्योंकि मैं परमाणु कार्यक्रम समाप्त करने से इंकार कर रहा हूं.
इसके अलावा, भुट्टो की एक ग़लती ये भी थी कि 1974 में उन्होंने इस्लामी देशों के अहम नेताओं को इस्लामाबाद में जुटा करके इस्लामी सम्मेलन आयोजित किया. इस सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किए गए कि मुस्लिम दुनिया की अपनी मुद्रा और संसद होनी चाहिए. तेल की क़ीमतें मुस्लिम देश ख़ुद ही तय करें. लेकिन ये सारी बातें अमेरिका को मंज़ूर नहीं थीं.
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भुट्टो की राजनीतिक ग़लतियां
हालांकि सवाल ये उठता है कि आख़िर भुट्टो जैसे जन नेता जनता को अपने पक्ष में लामबंद क्यों नहीं कर पाए.
इस बारे में अली जाफ़र ज़ैदी का कहना है कि पीपीपी के चुनाव जीतने के बाद कन्वेंशनल लीग और अन्य लीग के लाखों लोग पीपीपी में शामिल हो रहे थे.
वो कहते हैं, "1973 में इस बात पर भुट्टो से मेरी असहमति हो गई थी. मैंने कहा था कि ये वे लोग हैं, जिन्होंने हमारे कार्यकर्ताओं के घरों से लड़कियों का अपहरण किया था और पीपीपी का झंडा लगाने वाले घरों को जला दिया था. यदि ये लोग पार्टी में आते गए, तो हमारी असली ताक़त हमारे कार्यकर्ता हमसे दूर हो जाएंगे. उसके बाद जब मुश्किल वक़्त आएगा, तो ये नए लोग भाग जाएंगे और जब हम गिरेंगे, तो वहां लोग नहीं होंगे."
अली जाफ़र ज़ैदी का कहना है कि भुट्टो ने अपनी असल ताक़त यानी पार्टी के कार्यकर्ताओं और जनता को ही नज़रअंदाज़ कर दिया था.
वो बताते हैं कि भुट्टो पर जब लाहौर में मुक़दमा चल रहा था, तो उस मौक़े पर 30 या 40 लोगों के सिवा वहां कोई नहीं आता था. भुट्टो को ज़रुरत से ज़्यादा यक़ीन था कि जनता उनके साथ है और वो जब चाहें उन्हें लामबंद कर लेंगे. इसलिए वो विदेश नीति पर ध्यान केंद्रित करना और दुनिया की ताक़तों से लड़ना चाहते थे.
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'इतिहास से सीखा होता तो रूक सकता था तख़्तापलट'
इतिहासकार और पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास पर कई किताबें लिख चुकीं आयशा जलाल ने अपनी किताब 'द स्ट्रगल फ़ॉर पाकिस्तान' में लिखा कि यदि भुट्टो ने पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास से सबक़ लिया होता, तो वो शायद 5 जुलाई, 1977 के सैनिक तख़्तापलट से बच सकते थे.
वो कहती हैं, "वो अपने सेना प्रमुख (जनरल ज़िया-उल-हक़) के बारे में अति आत्मविश्वासी और आशावादी थे. उन्होंने पीएनए के साथ इस उम्मीद में बातचीत शुरू की थी कि वो उसे घेर लेंगे. तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए उन्होंने अपने इस्तीफ़े को छोड़कर पीएनए की क़रीब सभी मांगें मंज़ूर कर ली थी."
हालांकि उन्हें निर्णय लेने में बहुत देर हो चुकी थी और बातचीत में होने वाली देरी ने पीएनए के नेतृत्व को सेना से संपर्क साधने का मौक़ा दे दिया. मांगों की सूची में 9 और मांगें जोड़ दी गईं.
विपक्ष अब न केवल नए चुनाव कराने बल्कि उन संवैधानिक संशोधनों को वापस लेने की भी मांग करने लगा, जो नागरिक स्वतंत्रता और न्यायिक अधिकार पर प्रतिबंध से संबंधित थे. इसके अलावा, बलूचिस्तान से सैनिकों की वापसी और हैदराबाद साज़िश मामले में बने ट्रिब्यूनल को समाप्त करना भी उनकी मांगों में शामिल हो गया था."
आयशा जलाल लिखती हैं कि जनरल ज़िया-उल-हक़ ने सत्ता संभालने के बाद आख़िरी दो मांगें छोड़कर सभी मांगें स्वीकार कर ली. उससे यह संदेह और पुख़्ता हुआ कि वे शुरू से ही सत्ता हथियाना चाहते थे, इसीलिए चाहते थे कि वार्ता विफल हो जाए. जुलाई 1977 की शुरुआत में ही सैन्य तख़्तापलट के सभी इंतज़ाम कर लिए गए थे.
5 जुलाई की आधी रात को प्रेस से बात करते हुए भुट्टो ने कहा कि वे भी नई शर्तें लेकर आ सकते हैं, लेकिन वे पीएनए की बातचीत करने वाली टीम की तरह लाचार नहीं हैं, इसलिए सुबह होते ही समझौते पर हस्ताक्षर कर देंगे.
हालांकि इसकी नौबत नहीं आई और जनरल ज़िया-उल-हक़ ने उससे पहले ही मार्शल लॉ लगा दिया.
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जिमी कार्टर का आना और भुट्टो का जाना
अली जाफ़र ज़ैदी भुट्टो के शासन के आख़िरी दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि उन्होंने निराशा के बावजूद कई प्रयास किए.
भुट्टो ने कभी रूस की तरफ़ हाथ बढ़ाया, तो कभी मौलाना मौदुदी का समर्थन हासिल करने के लिए उनसे मिलने पहुंच गए. हालांकि तब तक बहुत देर हो चुकी थी. उन्हें ख़ुद भी लगने लगा था कि मामला अब उनके हाथ से निकल चुका है.
आयशा जलाल के अनुसार, भुट्टो ने इस उम्मीद पर ऐसे व्यक्ति को सेना प्रमुख बनाया था कि वो उनसे दब कर रहेगा. और इस तरह वो एक ऐसी संस्था को क़ाबू में रख सकेंगे, जो बिना किसी जवाबदेही के पाकिस्तान में चुनी हुई सरकारों को ख़त्म करती रही है.
वो कहती हैं, "लेकिन हालात समझने में भुट्टो की यह एक बहुत बड़ी ग़लती थी."
उनके अनुसार, "भले ही जनरल ज़िया-उल-हक़ ने अमेरिका के निर्देशों का पालन नहीं किया हो, जैसा कि भुट्टो ने जेल से आरोप लगाया था, लेकिन आने वाले दिनों में जनरल ज़िया-उल-हक़ के कामों से पता चलता है कि उनकी एक तय योजना थी, जिसे सेना के शीर्ष नेतृत्व का समर्थन प्राप्त था.
आयशा जलाल लिखती हैं कि एक तरफ़ अमेरिका में राष्ट्रपति जिमी कार्टर के नेतृत्व में नए प्रशासन का आना और दूसरी तरफ़ भुट्टो की परेशानियों का बढ़ना, ये दो ऐसी घटनाएं थीं जो लगभग एक ही समय में शुरू हुईं.
वो कहती हें, "अमेरिका की नई सरकार परमाणु अप्रसार के सिद्धांत का सख़्ती से पालन करना चाहती थी और पाकिस्तान पर उसके दबाव का मुख्य कारण यही था. इस दबाव का कारण दक्षिण एशिया में भू-राजनीतिक हालात नहीं थे. न ही ये कारण था कि अमेरिकी प्रशासन इन हालात पर बहुत बारीक़ी से फ़ैसले ले रहा था.
आयशा जलाल लिखती हैं कि राष्ट्रपति जिमी कार्टर की तुलना में, राष्ट्रपति निक्सन और राष्ट्रपति फ़ोर्ड के रिपब्लिकन प्रशासन का पाकिस्तान के प्रति रवैया सहानुभूति वाला था. और वे भारत की तुलना में पाकिस्तान की रक्षा कठिनाइयों और कमज़ोरियों को समझते थे.
निक्सन और फ़ोर्ड प्रशासन में, अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने पाकिस्तान के पीएम जुल्फ़िकार अली भुट्टो से परमाणु शक्ति बनने के विचार को छोड़ने के लिए कहा था.
लेकिन जब वो पाकिस्तान को फ्रांस के साथ परमाणु रिप्रोसेसिंग प्लांट के समझौते को रद्द करने के लिए राजी न कर सके, तो उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था कि नया प्रशासन इस समझौते को समाप्त कराने की पूरी कोशिश करेगा और इस सिलसिले में पाकिस्तान को एक उदाहरण बना दिया जायेगा.
पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास पर नज़र रखने वाले कई विश्लेषकों का मानना है कि जुल्फ़िकार अली भुट्टो का बलूचिस्तान में आदिवासी आंदोलन को कुचलने के लिए सेना बुलाना, नेशनल अवामी पार्टी की गठबंधन सरकार को गिराना और ख़ुद अपनी ही पार्टी को संगठित न करना, उनकी बड़ी राजनीतिक ग़लतियां थीं, जिनके चलते जब उनका मुश्क़िल वक़्त आया, तो वो अपनी जनता का समर्थन प्राप्त नहीं कर सके.
पाकिस्तान के इस सबसे लोकप्रिय और विवादास्पद राजनेता की शायद अपनी ग़लतियां भी ज़िम्मेदार रही होंगी, जिसके चलते अमेरिका को हेनरी किसिंजर की कथित धमकी पर अमल करने में आसानी हुई होगी.
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