पाकिस्तान के आर्मी चीफ़: कोई ढाई महीने पद पर तो कोई बनते ही गिरफ़्तार
पाकिस्तान में सैन्य प्रमुखों का चयन शुरू से ही संवेदनशील रहा है. सियासी दखलंदाज़ी और उथल पुथल के दौर में सेना प्रमुखों के कार्यकाल पर भी असर पड़ा है.
पाकिस्तान में सेना प्रमुख की नियुक्ति के महत्व का अंदाज़ा पिछले एक साल में इस मुद्दे पर हुई बहस और राजनीतिक नेताओं द्वारा दिए गए बयानों से लगाया जा सकता है.
मौजूदा थल सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा के स्थान पर होने वाली नियुक्ति और उससे जुड़े विवादों और बयानों से अलग अगर पाकिस्तान के इतिहास पर नज़र डालें तो थल सेनाध्यक्षों की नियुक्तियां और कार्यकाल अक्सर विवादों में घिरी रही हैं.
पाकिस्तानी सेना के पहले 'स्थानीय' कमांडर-इन-चीफ़ और फील्ड मार्शल अय्यूब ख़ान, जिन्होंने पाकिस्तान का पहला मार्शल लॉ भी लगाया, से लेकर जनरल क़मर जावेद बाजवा तक, लगभग सभी सेना प्रमुख किसी न किसी तरह के विवाद में ज़रूर उलझे हैं.
सरकार और प्रधानमंत्रियों के साथ अंदरूनी तौर पर मतभेद हों या प्रत्यक्ष समर्थन, सेना प्रमुखों का नाम सैन्य मामलों के साथ-साथ राजनीति और सरकार से भी जुड़ा रहा है.
इस लेख में पाकिस्तान के इतिहास के कुछ ऐसे ही रोचक तथ्यों को पेश किया गया है. जिनमे अय्यूब ख़ान को सेना प्रमुख बनाने वाली 'घटना' से लेकर, एक ऐसे सेना प्रमुख का भी ज़िक्र मौजूद है जो जनरल नहीं बने, लेकिन सेना प्रमुख बन गए.
वह घटना जिसने अय्यूब ख़ान को सेना का प्रमुख बना दिया
पाकिस्तान के सैन्य इतिहास में जनरल ज़िया-उल-हक़ के विमान के साथ हुई दुर्घटना तो आम तौर पर सभी को याद है, लेकिन बहावलपुर में हुए इस हादसे से क़रीब चालीस साल पहले एक और घटना घटी थी, जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गई है.
12 दिसंबर, 1950 को लाहौर से उड़ान भरने वाला एक निजी विमान अपनी मंज़िल (कराची) से लगभग 65 मील दूर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था, उस विमान में सवार 26 लोगों में से कोई भी ज़िंदा नहीं बच सका था.
हालांकि, इन 26 लोगों में दो ऐसी शख्सियतें शामिल थीं जिनकी मौत ने पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास का रुख़ बदल दिया.
वो थे मेजर जनरल मोहम्मद इफ़्तिख़ार ख़ान और ब्रिगेडियर शेर ख़ान. मेजर जनरल इफ़्तिख़ार सर्विस के लिहाज़ से अय्यूब ख़ान से एक साल जूनियर थे, लेकिन उन्हें प्रोमोशन पहले मिला और लाहौर में डिवीज़न की कमान सौंपी गई.
कई लेखकों के अनुसार, मेजर जनरल इफ़्तिख़ार को पाकिस्तान के पहले स्थानीय कमांडर-इन-चीफ़ के पद के लिए चुन लिया गया था और इसलिए उन्हें इंपीरियल डिफेंस कोर्स के लिए ब्रिटेन भेजा जा रहा था.
उनके साथ दुर्घटना में मारे गए ब्रिगेडियर शेर ख़ान ने कश्मीर विवाद को लेकर पाकिस्तान और भारत के बीच हुए पहले युद्ध में अहम भूमिका निभाई थी और सेना के बेहतरीन अधिकारियों में गिने जाते थे.
अय्यूब ख़ान ख़ुद अपनी किताब 'फ्रेंड्स नॉट मास्टर्स' में लिखते हैं कि जनरल इफ़्तिख़ार एक अच्छे अफ़सर थे और आम धारणा यह थी कि ब्रिटेन उनका समर्थन करता है. मैं नहीं जानता कि वह कैसे कमांडर इन चीफ़ बनते लेकिन उनके लिए कठिनाइयां होती.
अय्यूब ख़ान के मुताबिक़, उन्हें गुस्सा बहुत जल्दी आता था.
शुजा नवाज़ अपनी किताब 'क्रॉस्ड स्वॉर्ड्स' में लिखते हैं कि शेर अली ख़ान पटौदी, जो बाद में मेजर जनरल बने, के मुताबिक जिस दिन प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान ने मेजर जनरल इफ़्तिख़ार को कमांडर इन चीफ़ के पद की जानकारी दी, उस दिन वे उनके साथ थे.
मेजर जनरल शेर अली ख़ान पटौदी के अनुसार, अय्यूब ख़ान ने इस फ़ैसले के बाद उनसे यह इच्छा ज़ाहिर की कि वह जनरल इफ़्तिख़ार से मिलना चाहेंगे क्योंकि वो कमांडर इन चीफ़ बनने वाले हैं.
शेर अली ख़ान के अनुसार, जनरल इफ़्तिख़ार एक शांत स्वाभाव के लेकिन बहुत होशियार व्यक्ति थे जो इस फ़ैसले के बाद ख़ुश होने के बजाय परेशान दिख रहे थे.
हालांकि, विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के बाद, अय्यूब ख़ान को कमांडर-इन-चीफ़ नियुक्त किया गया और आख़िरकार देश के राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचे, और उनके कार्यकाल के दौरान सात प्रधानमंत्री बदले गए.
जब सैन्य अधिकारियों ने कमांडर-इन-चीफ़ को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर किया
याहया ख़ान पाकिस्तान के सैन्य और राजनीतिक इतिहास में एक विवादास्पद शख़्सियत रहे हैं. उन्हें पूर्वी पाकिस्तान के अलगाव और 1971 के युद्ध में भारत से हुई हार के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है. हालांकि, 16 दिसंबर, 1971 को ढाका में पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण के बाद, याहया ख़ान देश के राष्ट्रपति और सेना के कमांडर इन चीफ़ बने रहे.
'क्रॉस्ड स्वॉर्ड्स' में शुजा नवाज़ लिखते हैं कि 17 दिसंबर को जब यह ख़बर फैली कि याहया ख़ान नया संविधान लाने की तैयारी कर रहे हैं तो सैन्य अधिकारियों में कड़ी प्रतिक्रिया हुई.
इन अफ़सरों में गुजरांवाला में मौजूद ब्रिगेडियर फ़ारुख़ बख़्त अली भी शामिल थे. 'कंडक्ट इन बीकमिंग' में फ़ारुख़ बख़्त अली लिखते हैं कि 17 दिसंबर को मैं अपना इस्तीफ़ा लिख चुका था लेकिन जब हमें 18 दिसंबर को पता चला कि याहया ख़ान का इस्तीफ़ा देने का कोई इरादा नहीं है तो हम हैरान रह गए.
उनके अनुसार, जब कई अन्य अधिकारियों ने भी संपर्क किया, तो 'मैंने अपने डिवीज़न कमांडर को मनाने की कोशिश की कि वो जीएचक्यू में उच्च अधिकारियों को यह संदेश भिजवायें कि याहया ख़ान को इस्तीफा देकर सत्ता सिविल राजनेताओं को हस्तांतरित कर देनी चाहिए.'
अगले दिन, यानी 19 दिसंबर, को ब्रिगेडियर एफ़बी अली ने दो अधिकारियों को यह संदेश देकर जीएचक्यू भेजा कि याहया ख़ान और उनके क़रीबी जनरल, जो हार के लिए जिम्मेदार हैं, रात आठ बजे तक इस्तीफ़ा देदें या परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाएं.
वास्तव में यह सेना के भीतर एक प्रकार का विद्रोह था.
शुजा नवाज़ ने अपनी किताब में लिखा है कि इस संदेश के बाद सेना के आलाकमान में हड़कंप मच गया था और याहया ख़ान के क़रीबी सहयोगी और मेजर जनरल मिट्ठा ने एसएसजी से संपर्क किया ताकि इस्लामाबाद की ओर आने वाले सैन्य काफ़िले को किसी तरह रोका जा सके.
शुजा नवाज़ लिखते हैं कि मेजर जनरल मिट्ठा ने ब्रिगेडियर एफबी अली को फ़ोन किया और पूछा कि क्या याहया ख़ान की जगह जनरल अब्दुल हमीद ख़ान को कमांडर-इन-चीफ़ के रूप में स्वीकार कर लिया जायेगा, जिसका उन्होंने नही में जवाब दिया.
शुजा नवाज़ के अनुसार, अगले दिन जनरल हमीद ने जीएचक्यू में मौजूद अधिकारियों को इकठ्ठा किया ताकि यह अंदाज़ा लगाया जा सके कि क्या वह याहया ख़ान की जगह स्वीकार्य होंगे, लेकिन सैन्य अधिकारियों ने वर्तमान नेतृत्व पर पूर्ण अविश्वास व्यक्त किया. यह स्पष्ट करते हुए कि उनको भी जाना होगा.
जब याहया ख़ान को स्थिति का एहसास हुआ, तो उन्होंने ख़ुद कई अधिकारियों से संपर्क किया, लेकिन चीफ़ ऑफ़ जनरल स्टाफ़ जनरल गुल हसन और वायु सेना प्रमुख ने उन्हें इस्तीफ़ा देने के लिए मना लिया और इस तरह पाकिस्तान सेना के पांचवें कमांडर और देश के तीसरे राष्ट्रपति की सत्ता का सूर्य अस्त हो गया.
शुजा नवाज़ लिखते हैं कि शायद यह पहला मौक़ा था जब सेना के जूनियर अधिकारियों ने नेतृत्व को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर किया.
शुजा नवाज़ क्रॉस्ड स्वॉर्ड्स में लिखते हैं कि याहया ख़ान ने बाद में लाहौर हाई कोर्ट में एक मुक़दमे के दौरान अपने जवाब में दावा किया कि ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, जनरल गुल हसन ख़ान और वायु सेना प्रमुख रहीम ख़ान ने उनके ख़िलाफ़ उस समय साज़िश रची थी जब भारत के साथ युद्ध के दौरान उन तीनों को उन्होंने चीन भेजा था.
इस पूरी कहानी में एक दिलचस्प बात यह है कि कुछ साल बाद ब्रिगेडियर एफबी अली पर भुट्टो की नागरिक सरकार के तख्तापलट की साज़िश रचने का मुक़दमा चला था. और कोर्ट मार्शल करने वाले बोर्ड का नेतृत्व आने वाले समय में सेना प्रमुख बनने वाले जनरल ज़िया-उल-हक़ कर रहे थे.
कुछ साल बाद, ब्रिगेडियर एफबी अली कोट लखपत जेल में एकांत कारावास की सज़ा काट रहे थे. उनके अनुसार, उनसे सौ गज की दूरी पर एक दूसरी सेल में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो हत्या के मामले में कैद थे.
जब एक लेफ़्टिनेंट जनरल को सेना का प्रमुख बनाया गया
ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने असाधारण परिस्थितियों में पाकिस्तान की सत्ता संभाली. देश के दो टुकड़े हो गए थे और सेना को जनता के गुस्से का सामना करना पड़ रहा था. ऐसे में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को पाकिस्तान के पहले नागरिक मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बनने का सम्मान भी मिला.
इन असाधारण परिस्थितियों में उन्होंने असाधारण फैसले लिए, जिनमें से एक यह भी था कि पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार किसी लेफ़्टिनेंट जनरल को सेना प्रमुख बनाया गया.
यह गुल हसन ख़ान थे जिन्होंने भुट्टो की सत्ता संभालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
गुल हसन ख़ान पाकिस्तानी सेना के अंतिम कमांडर-इन-चीफ़ थे, जिसकी वजह यह थी कि बाद में इस पद का नाम बदलकर चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ कर दिया गया.
हालांकि, यह मामला भी विवादास्पद है कि उन्हें लेफ़्टिनेंट जनरल की रैंक पर होते हुए सेना प्रमुख क्यों नियुक्त किया गया था.
गुल हसन ख़ान ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब मुझे इस पद की पेशकश की गई तो मैंने ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो से एक शर्त रखी कि मुझे लेफ़्टिनेंट जनरल की रैंक के साथ ही कमांडर इन चीफ़ बनाया जाए.
हालांकि, वह लिखते हैं कि उस समय मैं काफी हैरान था जब ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि मैंने अस्थायी रूप से गुल हसन ख़ान को कमांडर-इन-चीफ़ के पद पर पदोन्नत किया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनको फोर स्टार जनरल बना दिया जायेगा. क्योंकि देश इस समय ऐसी चीज़ें बर्दाश्त नहीं कर सकता.
गुल हसन ख़ान के अनुसार, जब उन्होंने बाद में भुट्टो से पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया, तो उन्होंने जवाब दिया कि वो राजनीति नहीं समझते.
शायद यहीं से भुट्टो और उनके द्वारा नियुक्त किये गए पहले सैन्य प्रमुख के बीच ग़लत फ़हमियां पैदा हो गई थीं.
गुल हसन ख़ान लिखते हैं कि उनकी दूसरी शर्त यह थी कि सैन्य मामलों में कोई दख़लअंदाज़ी नहीं होगी, लेकिन भुट्टो इसके लिए सहमत हो गए लेकिन ज़्यादा दिन तक इसपर क़ायम नहीं रहे. उनका दावा है कि भुट्टो सैन्य अधिकारियों के प्रमोशन बोर्ड में बैठना चाहते थे लेकिन उन्होंने मना कर दिया.
कुछ ही समय बाद, और अधिक मतभेदों के बाद, एक दिन ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने गुल हसन ख़ान और वायु सेना प्रमुख रहीम ख़ान को राष्ट्रपति भवन में बुला कर उनसे कहा कि उन्हें उनके पद से हटाया जा रहा है और उनसे इस्तीफों पर हस्ताक्षर लिए गए.
इस प्रकार वह न केवल लेफ़्टिनेंट जनरल की रैंक के साथ सेना प्रमुख बनने वाले पहले अधिकारी बने, बल्कि एक नागरिक शासक द्वारा समय से पहले बर्खास्त किए जाने वाले पहले सेना प्रमुख भी बने.
गुल हसन ख़ान के नाम यह रिकार्ड भी है कि वो पाकिस्तान आर्मी के सबसे कम समय तक सेवा देने वाले प्रमुख हैं, जिनका कार्यकाल केवल ढाई महीने का था.
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को घर भेजने वाले सेना प्रमुख जिन्होंने एक्सटेंशन को ठुकरा दिया
जनरल आसिफ़ नवाज़ जंजुआ, जिन्होंने गुल हसन के बाद थोड़े समय के लिए पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व किया, उन्होंने सेना प्रमुख के रूप में केवल एक वर्ष और पांच महीने का समय बिताया. ड्यूटी पर रहते हुए ही 8 जनवरी, 1993 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई.
यह देश में राजनीतिक कशमकश का दौर था और प्रत्यक्ष रूप से सैन्य हस्तक्षेप की अफवाहें अपनी बुलंदी पर थी. नवाज़ शरीफ़ प्रधानमंत्री थे और ग़ुलाम इसहाक़ ख़ान देश के राष्ट्रपति थे.
जनरल आसिफ़ नवाज़ के भाई शुजा नवाज़ अपनी किताब में लिखते हैं कि ग़ुलाम इसहाक़ ख़ान लेफ़्टिनेंट जनरल फ़ारुख़ ख़ान को सेना प्रमुख बनाना चाहते थे लेकिन नवाज़ शरीफ़ इसके पक्ष में नहीं थे.
लेफ़्टिनेंट जनरल अब्दुल वहीद काकड़ क्वेटा कोर की कमान संभाल रहे थे. ब्रायन क्लाफले ने अपनी किताब 'पाकिस्तान आर्मी: ए हिस्ट्री ऑफ़ वॉर एंड इंसरेक्शन्स' में लिखा है कि अब्दुल वहीद काकड़ को लगा कि यह उनकी आख़िरी पोस्टिंग है और वह रिटायर होकर घर जाने की तैयारी कर रहे थे.
हालांकि राष्ट्रपति ग़ुलाम इसहाक़ ख़ान और प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के बीच मतभेदों के बाद सेना के नेतृत्व के लिए लोटरी में उनका नाम निकला.
शुजा नवाज़ क्रॉस्ड स्वॉर्ड्स में लिखते हैं कि जनरल अब्दुल वहीद काकड़ पर मार्शल लॉ लगाने का बहुत दबाव था लेकिन वह देश में राजनीतिक तनाव का राजनीतिक समाधान खोजना चाहते थे.
यह ध्यान रहे कि उस समय देश के राष्ट्रपति के पास संविधान के आठवें संशोधन के तहत विधानसभा को भंग करने का अधिकार था, जिसका ग़ुलाम इसहाक़ ख़ान बेनजीर भुट्टो के पहले प्रधानमंत्री पद को समाप्त करने के लिए एक बार इस्तेमाल कर चुके थे.
जब 1993 में उन्होंने नवाज़ शरीफ़ की सरकार के ख़िलाफ़ दूसरी बार इस अधिकार का इस्तेमाल किया, तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे अवैध घोषित कर दिया और नवाज़ शरीफ़ की सरकार बहाल हो गई.
शुजा नवाज़ लिखते हैं कि अदालत के इस फ़ैसले के बाद नवाज़ शरीफ़ ने पंजाब में पीपुल्स पार्टी की सरकार को गिराने के लिए रेंजर्स की मदद लेने की कोशिश की, लेकिन सेना प्रमुख जनरल अब्दुल वहीद ने उनका रास्ता रोक दिया.
शुजा नवाज़ के अनुसार, जनरल अब्दुल वहीद काकड़ ने देश में बढ़ते तनाव के संदर्भ में, राष्ट्रपति ग़ुलाम इसहाक़ ख़ान और प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को इस्तीफ़ा देने के लिए राजी किया ताकि नए चुनाव हो सकें, जिसके नतीजे में बेनजीर भुट्टो की दूसरी सरकार बनी.
बेनजीर भुट्टो ने जनरल वहीद काकड़ के बारे में कहा कि उन्हें राजनीति में घसीटने की बहुत कोशिशें की गई लेकिन उन्होंने कभी कोई दख़ल नहीं दिया.
अब्दुल वहीद काकड़ शायद एकमात्र सेना प्रमुख थे, जिन्हें एक प्रधानमंत्री ने कार्यकाल के विस्तार की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया.
वह तीन साल पूरे करने के बाद पद छोड़ने वाले पहले सेना प्रमुख थे.
वह दुर्घटना जिसके कारण असलम बेग सेना प्रमुख बने
17 अगस्त 1988 का दिन था जब पाकिस्तान के वाइस चीफ़ ऑफ स्टाफ जनरल असलम बेग विमान में बैठकर ऊपर से घटना स्थल का दौरा कर रहे थे.
असलम बेग अपनी आत्मकथा 'इक्तिदार की मजबूरियां' में लिखते हैं कि 'सामने धुंआ दिखाई दे रहा था, अगले ही पल हमारा विमान उसके नज़दीक पहुंच गया था. वहां एक हेलीकॉप्टर भी उतर रहा था, हेलीकॉप्टर के पायलट से संपर्क किया गया तो उसने बताया कि 'पाकिस्तान वन' (C130) दुर्घटनाग्रस्त हो गया है और कोई दिखाई नहीं दे रहा है. ऐसे हालात में मुझे अहम फ़ैसला करना था. अगर मैं दुर्घटनास्थल पर पहुंच भी जाता, तो भी मैं कुछ नहीं कर सकता था. इसलिए मैंने पायलट से सीधे रावलपिंडी चलने को कहा.
यह वह जगह थी जहां कुछ समय पहले सी-130 विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ था जिसमें पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल ज़िया-उल-हक़ सहित अन्य लोग भी सवार थे.
असलम बेग कहते हैं, 'जब जीएचक्यू से संपर्क किया गया तो वहां स्थिति शांत थी. फ़ॉर्मेशंस को रेड अलर्ट का आदेश दिया गया और अगले आदेश का इन्तिज़ार करने के लिए कहा गया, मेरे साथ विमान में बैठे अधिकारी मुझे देख रहे थे और मैं गहरी सोच में डूबा हुआ था. मुझे फ़ैसला करना था कि सत्ता अपने हाथ में लेनी है या उसे देनी है जिसका हक़ है.
और फिर एक विमान दुर्घटना में ज़िया-उल-हक़ की मौत के बाद जनरल असलम बेग सेना के प्रमुख बने.
जनरल ज़िया की मृत्यु और असलम बेग के सेना प्रमुख बनने के तीन घंटे के भीतर, संविधान बहाल हो चुका था, सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया शुरू हुई जिसे 90 दिनों में पूरा किया जाना था.
हालांकि जनरल असलम बेग पर मार्शल लॉ लगाने का दबाव था, उन्होंने अपने वादे के अनुसार चुनाव कराए, लेकिन इन चुनावों के दौरान पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के विरोधी विवादास्पद राजनीतिक मोर्चे आईजेआई का गठन और उसके बाद नवाज़ शरीफ़ के सत्ता में आने पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है.
वह जनरल जिनको सेनाध्यक्ष बनते ही गिरफ़्तार कर लिया गया
1999 के आख़िर में 12 अक्टूबर को नवाज़ शरीफ़ ने एक दिन अचानक तत्कालीन आईएसआई प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल ज़ियाउद्दीन को अचानक प्रधानमंत्री आवास बुलाया और उन्हें बताया कि उन्हें सेना प्रमुख बनाने का फ़ैसला हो चुका है.
उनको नवाज़ शरीफ़ ने तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल मुशर्रफ़ की इच्छा के विरुद्ध आईएसआई प्रमुख बनाया था और यह माना जाता था कि वह नवाज़ शरीफ़ के काफ़ी क़रीबी थे.
हालांकि, ख़ुद जनरल ज़ियाउद्दीन के मुताबिक़, वह नवाज़ शरीफ़ से पहली बार तभी मिले थे, जब उनका आईएसआई प्रमुख के लिए इंटरव्यू हुआ था.
उनके दावे अपनी जगह हैं, लेकिन 12 अक्टूबर के दिन उनकी इस तरह अचानक हुई नियुक्ति पर सेना की प्रतिक्रिया ने लोकतंत्र की बिसात को लपेट कर ही रख दिया.
एक ओर प्रधानमंत्री आवास में जनरल ज़ियाउद्दीन को प्रधानमंत्री के सैन्य सचिव की वर्दी से बैज उतार कर लगाये गए, वहीं दूसरी ओर तत्कालीन सेना प्रमुख के क़रीबी जनरल हरकत में आ गए, जो ख़ुद उस समय श्रीलंका से पाकिस्तान लौट रहे थे.
जनरल मुशर्रफ़ से पहले सेना प्रमुख जनरल जहांगीर करामत भी नवाज़ शरीफ़ से मतभेदों के कारण कार्यकाल पूरा होने से कुछ समय पहले ही इस्तीफ़ा दे चुके थे.
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