SCO Summit: जुलाई में होगा एससीओ शिखर सम्मेलन, 8 देशों के राष्ट्राध्यक्ष आएंगे भारत, शहबाज भी होंगे शामिल!
शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के आठ सदस्य देशों के विदेश मंत्री 5 मई को विदेश मंत्रियों की परिषद (सीएफएम) की बैठक में भाग लेने के लिए गुरुवार को गोवा पहुंचे थे और अब जुलाई में राष्ट्राध्यक्षों की बैठक होगी।
SCO Summit in July: भारत के गोवा में अभी शंघाई सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों का जमावड़ा लगा हुआ है, जिसमें एससीओ के आठ देशों के विदेश मंत्री हिस्सा ले रहे हैं। लेकिन, आज से ठीक दो महीने के बाद एससीओ का महाशिखर सम्मेलन होगा, जिसमें आठ देशों के राष्ट्राध्यक्ष शामिल होंगे।
भारत के लिए जुलाई का महीना काफी महत्वपूर्ण होगा और विदेश मत्रियों की बैठक के बाद एससीओ देशों के प्रमुख भारत का दौरा करेंगे, जिनमें चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के भी शामिल होने की संभावना है।
हालांकि, शहबाज शरीफ के भारत दौरे को लेकर पाकिस्तान के विदेश विभाग ने कहा है, कि फिलहाल उनके कार्यक्रम को लेकर फैसला नहीं लिया गया है, लेकिन बिलावल भुट्टो के गोवा कार्यक्रम में हिस्सा लेने के बाद शहबाज शरीफ के भारत दौरे को लेकर संभावनाएं काफी बढ़ गई हैं।
विदेश मंत्रियों की बैठक से संभावित परिणाम
जुलाई में होने वाले शिखर सम्मेलन का रास्ता तैयार करने के लिए ही अभी विदेश मंत्रियों की बैठक हो रही है, जिसमें व्यापार और कनेक्टिविटी को लेकर कई अहम फैसले लिए जाएंगे।
हालांकि, विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद कोई दस्तावेज़ जारी होने की संभावना काफी कम है, क्योंकि वार्षिक एससीओ शिखर सम्मेलन में ही इसकी 'घोषणा' पत्र जारी की जाती है, जो आम सहमति से तय होता है। विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान जुलाई में होने वाले नेताओं के शिखर सम्मेलन के एजेंडे पर हस्ताक्षर किए जाएंगे।
सूत्रों के मुताबिक विदेश मंत्रियों को करीब 15 प्वाइंट्स पर फैसला लेना है, लेकिन शुक्रवार को होने वाली बैठक के बाद इन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। हालांकि, उन प्वाइंट्स के व्यापार, ऊर्जा और कनेक्टिविटी से संबंधित मुद्दों के आसपास होने की संभावना है। राष्ट्रीय मुद्रा में व्यापार के लिए एक प्रस्ताव है, लेकिन यह बहुत ही प्रारंभिक अवस्था में है और सदस्य राज्यों के बीच इस पर पहले चर्चा भी नहीं की गई है।
अब तक, सूत्रों को उम्मीद नहीं है, कि यूक्रेन या अफगानिस्तान चर्चा का विषय होगा, सिवाय इसके कि उन्हें राष्ट्रीय बयानों में उठाया जा सकता है। अधिकांश देश निश्चित रूप से वैश्विक संदर्भ में आर्थिक चुनौतियों के बारे में बात करेंगे, लेकिन यूक्रेन युद्ध का कोई सीधा संदर्भ होने की संभावना नहीं है।
ईरान और बेलारूस नए सदस्य होंगे। लेकिन यह शुक्रवार को बैठक खत्म होने के बाद ही स्पष्ट होगा, कि ईरानी और बेलारूस के राष्ट्रपतियों के जुलाई शिखर सम्मेलन में पूर्ण सदस्यों के रूप में भाग लेने के लिए सभी तौर-तरीकों को मंजूरी दी जाती है या नहीं। हालांकि, बहुत संभावना है, कि ईरान और बेलारूस को मंजूरी दे दी जाएगी।
एससीओ की मूल कहानी क्या है?
शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन की उत्पत्ति उस समय 'शंघाई फाइव' के नाम से जाने जाने वाले समूहों के बीच हुई थी, जिसे 1996 में सीमा मुद्दों को संबोधित करने के तरीके के रूप में बनाया गया था। यह सोवियत संघ के विघटन के बाद बना था, जब मध्य एशिया में नए राज्यों के निर्माण ने चीन को सीमाओं के सीमांकन से संबंधित समस्याओं के साथ-साथ शिनजियांग पर इस्लामी समूहों के प्रभाव का सामना करने के लिए कदम उठाने के लिए प्रेरित किया।
अप्रैल 1996 में शंघाई में चीन, रूस, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान ने मिलकर सीमा क्षेत्रों में 'सैन्य क्षेत्र में विश्वास निर्माण उपायों के मजबूतीकरण को लेकर समझौते' पर हस्ताक्षर किए और 'शंघाई फाइव' को औपचारिक रूप दिया गया।
चार साल बाद, उज्बेकिस्तान भी इस समूह में शामिल हो गया और शंघाई फाइव जुलाई 2001 में एससीओ में बदल गया। समूह में निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाते हैं, और सभी सदस्यों को आंतरिक मामलों में अनाक्रमण और अहस्तक्षेप के सिद्धांत का पालन करना होता है। एससीओ मुख्यालय बीजिंग में है, और इसका रिजनल एंटी- टेरेरिस्ट स्ट्रक्चर (RATS) उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में है।
हालांकि, इस साल भारत ने एससीओ की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी को बनाने के लिए प्रस्ताव पेश किया है, लेकिन इस ग्रुप की आधिकारी भाषा अभी तक चीनी और रूसी है।
एससीओ को पश्चिमी देश गंभीरता से क्यों लेते हैं?
मई 2001 में चीन पर नजर रखने वाले एक अमेरिकी विश्लेषक बेट्स गिल ने ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन के लिए एक पेपर लिखा था, जिसमें कहा गया था, कि शंघाई फाइव के परिणामस्वरूप कुछ "प्रभावशाली उपलब्धियां" हासिल की गई हैं, जैसे विश्वास बहाली के लिए काम किए गये हैं, सीमा विवाद हल किए गये हैं और आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए काम किए गये हैं।
उन्होंने कहा, कि शंघाई फाइव के पांच देश मजबूती से इस समूह में टिके हुए हैं और ये देश वो हैं, जो अमेरिकी अधिपत्य के खिलाफ आवाज उठाते हैं। ये देश अमेरिका के खिलाफ सख्त बयान जारी करते हैं। हालांकि, 2001 में वो शंघाई फाइव के भविष्य को लेकर ज्यादा आशावादी नहीं थे, लेकिन 2017 में इसमें भारत और पाकिस्तान भी जुड़ गये और अब इसके आठ सदस्य देश हैं। वहीं, बेलारूस और ईरान के शामिल होने के बाद इसके 10 देश हो जाएंगे और ये ग्रुप काफी मजबूत होता चला जाएगा और अमेरिका के विरोध के लिए एक मजबूत प्लेटफॉर्म बन जाएगा, लिहाजा ये भारत के लिए असहज करने वाली स्थिति होगी।
एससीओ मध्य एशिया में अपने प्रभाव का काफी विस्तार कर चुका है और एक मजबूत बहुपक्षीय मंच बन चुका है। खासकर अब, जब चीन और रूस खुलकर अमेरिका के खिलाफ खड़े हो चुके हैं, तो पश्चिमी देशों के लिए एससीओ की गंभीरता और भी ज्यादा बढ़ जाती है।
भारत क्यों बना था एससीओ का सदस्य?
2002 के इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस पेपर के मुताबिक, पाकिस्तान ने जनवरी 2001 में पर्यवेक्षक का दर्जा देने की मांग की थी और इसके बाद जून 2001 में पूर्ण सदस्यता के लिए पाकिस्तान ने औपचारिक तौर पर आवेदन किया था।
चीन ने पाकिस्तान की पैरवी की थी, लेकिन पाकस्तान को शामिल करने का ताजिकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति इमोमाली रहमानोव ने कड़ा विरोध किया था और उन्होंने एससीओ के विस्तार को लेकर आपसी बातचीत करने की जरूरत बताई थी।
उस वक्त ताजिकिस्तान के साथ साथ रूस भी पाकिस्तान की सदस्यता के सख्त खिलाफ थे, क्योंकि इस्लामाबाद तब अफगानिस्तान में तालिबान शासन का जोरदार समर्थन कर रहा था, जिसने पहले ही मध्य एशियाई देशों के बीच स्पिलओवर प्रभाव के बारे में चिंता जताई थी।
फरवरी 2002 में कजाकिस्तान के राष्ट्रपति नूरसुल्तान नज़रबायेव की नई दिल्ली यात्रा की थी और पहली बार भारत को एससीओ में शामिल करने की मांग उठी थी और उस साल आधिकारिक तौर पर एक संयुक्त बयान में भारत को इस संगठन में शामिल करने की मांग की गई।
संयुक्त बयान में कहा गया था, कि दोनों देशों ने एससीओ द्वारा की गई "प्रगति को नोट किया"। इसमें कहा गया है कि कजाकिस्तान ने महसूस किया, कि भारत की "भौगोलिक निकटता" को देखते हुए, एससीओ में भारत की सदस्यता "संगठन की ताकत बढ़ाएगी"।
कई सालों तक, एससीओ में नये देशों को जोड़ने को लेकर चीन और रूस के बीच गहरे मतभेद रहे, लिहाजा एससीओ के विस्तार का मुद्दा ठंडे बस्ते में डाल दिया। लेकिन, भारत, ईरान और पाकिस्तान को 2005 के अस्ताना शिखर सम्मेलन में पर्यवेक्षकों के रूप में शामिल कर लिया गया। हालांकि, फिर भी क्या एससीओ का विस्तार होगा और क्या नये देश में इसमें शामिल किए जाएंगे, इसपर विचार करने में पांच साल और लग गये।
भारत ने 2014 में सदस्यता के लिए आवेदन किया था, लेकिन दायित्वों के ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने में दो साल लग गए। भारत और पाकिस्तान को औपचारिक रूप से जून 2017 में पूर्ण एससीओ सदस्यों के रूप में शामिल किया गया था, जब कज़ाख राष्ट्रपति नज़रबायेव ने नए सदस्य देशों का स्वागत किया था।
एससीओ से भारत की उम्मीदें क्या रही हैं?
एससीओ में शामिल होने के लिए नई दिल्ली के दो प्रमुख एजेंडे थे - मध्य एशियाई देशों के साथ बातचीत का विस्तार करना और भारत के सुरक्षा को प्रभावित करने वाली क्षेत्र में बनने वाली सुरक्षा नीतियों में अपनी भागीदारी निभाना।
मध्य एशिया के साथ संपर्क बढ़ाने के लिए भी बेहतर कनेक्टिविटी की आवश्यकता है। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर (आईएनएसटीसी) के निर्माण के लिए भी जोर दिया है, जो भारत के पश्चिमी तट को ईरान और मध्य एशिया से जोड़ता है, हालांकि, यह उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ पाया है, जितनी भारत को उम्मीद थी।
Recommended Video
हालांकि, मध्य एशिया में चीन द्वारा अपनी बेल्ट एंड रोड पहल परियोजनाओं को आक्रामक रूप से फैलाने के साथ कनेक्टिविटी एक संवेदनशील बिंदु बन गया। वहीं, अब भारत ने SCCO शिखर सम्मेलन में BRI पैराग्राफ को शामिल करने से साफ इनकार शुरू कर दिया है। यानि, मध्य एशिया में चीन के BRI को एससीओ के जरिए विस्तार करने पर लगाम लगाने में भारत कामयाब रहा है।
एससीओ में शामिल होने के बाद के वर्षों में भारत भी क्वाड जैसे अन्य समूह का हिस्सा बन गया है। भारत नहीं चाहता, कि एससीओ को विशुद्ध रूप से पश्चिम विरोधी ब्लॉक के रूप में पेश किया जाए, लेकिन भारत यह भी जानता है, कि इसके एजेंडे में बड़े पैमाने पर रूस और चीन का वर्चस्व है, लिहाजा ये भारत के लिए असहज करने वाली स्थिति होती है। हालांकि, इसके बाद भी एससीओ भारत के लिए मध्य एशिया का गेटवे बन गया है, जिससे भारत को कनेक्टिविटी और ट्रेड बढ़ाने में काफी मदद मिली है।