सऊदी अरब, जहां पिता की बात ना मानने पर बेटी जा सकती है जेल
मई 2018 में महिलाओं के ड्राइविंग पर लगी पाबंदी हटाने से पहले सऊदी अधिकारियों ने महिलाधिकारों के समर्थन में चल रहे अभियानों को ख़त्म करने के लिए एक मुहिम छेड़ी.
इस दौरान बदावी समेत कई कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया. उन पुरुषों को भी गिरफ़्तार किया गया जो इन अभियानों का समर्थन कर रहे थे या फिर महिलाओं के पक्ष में गवाही देने आए थे.
बीते साल सऊदी अरब ने महिलाओं के कार चलाने को लेकर लगी पाबंदी हटा ली थी. इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सऊदी अरब की काफ़ी सराहना हुई.
हालांकि इसके साथ वहां महिलाओं पर लगी पाबंदी ख़त्म नहीं हुई है, ख़ास कर वहां महिलाओं पर 'मेल गार्डियनशिप सिस्टम' यानी 'पुरुष अभिभावक व्यवस्था' लागू है. इसके अनुसार किसी महिला के लिए बड़े फ़ैसले लेने का अधिकार केवल उसके पिता, भाई, पति या बेटे के पास ही होता है.
इसी साल जनवरी में महिलाओं पर लगी इन पाबंदियों की बात तब सामने आई थी जब अपने परिवार को छोड़ कर भागी एक सऊदी महिला ने ख़ुद को थाईलैंड के बैंकॉक में एक होटल के कमरे में ही बंद कर लिया.
18 वर्षीय रहाफ़ मोहम्मद अल-क़ुनून का कहना है कि अगर उन्हें वापस भेजा गया तो हो सकता है कि उनके घरवाले उनकी हत्या कर दें.
सऊदी अरब में महिला को पासपोर्ट बनवाने, देश के बाहर जाने, विदेश में पढ़ने या फिर सरकार से स्कॉलरशिप के लिए आवेदन करने, शादी करने, जेल से छूटने, यौन हिंसा पीड़ितों के लिए बने आसरा गृह छोड़ने तक के लिए अपने पुरुष रिश्तेदार की मदद लेनी पड़ती है.
मिस्र-अमरीकी मूल की पत्रकार मोना एल्तहावी कहती हैं, "ये व्यवस्था जन्म से लेकर मौत तक महिला की ज़िंदगी के रास्ते तय करती है. ताउम्र उनके साथ नाबालिग़ों जैसा व्यवहार किया जाता है."
सऊदी अरब ने साल 2000 में महिलाओं के ख़िलाफ़ सभी तरह के भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र के कन्वेन्शन को मंज़री दे दी थी और कहा था कि वो शरिया क़ानून या इस्लामी क़ानून के अनुसार देश में महिलाओं की समानता का अधिकार दिया गया है.
सबसे बड़ी रुकावट
इस रूढ़िवादी खाड़ी देश में पब्लिक स्कूलों में महिलाओं और लड़कियों के खेलने पर और स्टेडियम में उनके फ़ुटबॉल मैच देखने जाने पर लगी पाबंदी को भी ख़त्म कर दिया गया था.
हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने फ़रवरी 2018 में चिंता जताई थी कि सऊदी अरब महिलाओं के ख़िलाफ़ भेदभाव ख़त्म करने के लिए ख़ास क़ानून नहीं अपना रहा है और उसने महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले भेदभाव को क़ानूनी तौर पर परिभाषित भी नहीं किया है.
जानकारों का कहना था कि समाज और अर्थव्यवस्था में महिलाओं की कम भागीदारी में सबसे बड़ी रुकावट पुरुष प्रधान व्यवस्था ही है.
माना जाता है कि ये व्यवस्था क़ुरान के एक छंद पर आधारित है जो सऊदी धार्मिक व्यवस्था का भी आधार है. इस छंद के अनुसार, "महिलाओं के रक्षक और उनका पोषण करने वाले पुरुष हैं क्योंकि ईश्वर ने एक को अधिक ताक़त दी है और साथ ही उन्हें पालने के साधन भी अधिक दिए हैं."
साल 2016 में आई ह्यूमन राइट्स वॉच के अनुसार, "कई जगहों पर सऊदी अरब पुरुष प्रधान व्यवस्था लागू करता है." रिपोर्ट में कहा गया था कि इस व्यवस्था पर सवाल करने वाली महिलाओं को या तो जेल भेज दिया जाता है या फिर उन्हें सज़ा दी जाती है.
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पुरुष प्रधान व्यवस्था
साल 2008 में एक जानी-मानी महिलाधिकार कार्यकर्ता समर बदावी अपने परिवार को छोड़ कर आसरा गृह में चली गईं थीं. उन्होंने अपने पिता पर उनके साथ मारपीट करने का आरोप लगाया था. इसके बाद समर ने पुरुष अभिभावक व्यवस्था के तहत अपने पिता को मिले अधिकार ख़त्म करने के लिए क़ानूनी जंग लड़ने का फ़ैसला किया.
इसके जवाब में उनके पिता ने उन पर 'पिता की आज्ञा न मानने' का आरोप लगाया. उन्हें अदालत ने 2010 में जेल भेजने की सज़ा सुनाई. इसके बाद मानवाधिकार कार्यकर्ता उनके मामले को दुनिया के सामने ले कर आए जिसके बाद उनके ख़िलाफ़ लगे आरोप ख़ारिज किए गए.
साल 2017 में एक अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ता मरियम अल-ओतैबी पर उनके पिता ने आज्ञा न मानने का आरोप लगाया और उन्हें तीन महीने जेल में बिताने पड़े.
पुरुष अभिभावक व्यवस्था के ख़िलाफ़ अभियान चलाने के लिए उन्हें उनके पिता और भाई की तरफ़ से कई तरह की यातनाओं का सामना करना पड़ा. उन्होंने इसके बाद घर से भागने का फै़सला किया था. बाद में जेल से उनकी रिहाई को जीत के रूप में देखा गया क्योंकि उनकी रिहाई के लिए किसी पुरुष गार्जियन की ज़रूरत नहीं पड़ी.
सऊदी में मामला कुछ ऐसा है कि यहां विदेश भाग गई लड़कियों को भी सज़ा से राहत नहीं मिलती.
साल 2017 में दीना अली लासलूम को जबरन सऊदी अरब में उनके परिवार को सौंप दिया गया. वो फ़िलिपींस के रास्ते ऑस्ट्रेलिया जा रहीं थीं. उनका कहना था कि उनके परिवारवाले ज़बरदस्ती उनकी शादी कराना चाहते थे और इस कारण वो घर से भाग रही थीं.
ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि उन्हें मिली रिपोर्ट के अनुसार उन्हें कुछ वक़्त के लिए आसरा गृह में रखा गया था. अब तक ये बात साफ़ नहीं हो पाई है कि उन्हें उनके परिवार को सौंपा गया या नहीं.
लंबे समय से महिलाधिकार कार्यकर्ता पुरुष अभिभावक व्यवस्था को ख़त्म करने की मांग करती आई हैं.
सितंबर 2016 में इसके लिए बड़ा अभियान चलाया गया जिसके बाद ट्विटर पर हैशटैग "सऊदी महिलाएं पुरुष अभिभावक व्यवस्था का ख़ात्मा चाहती हैं" ट्रेंड करने लगा था. इसके बाद शाही कोर्ट में इसी मांग के साथ याचिका दायर की गई जिस पर 14,000 महिलाओं के हस्ताक्षर थे.
ग्रैंड मुफ्ती यानी प्रमुख मौलवी ने अब्दुल अज़ीज़ अल-शेख़ ने इस याचिका को "इस्लाम धर्म के ख़िलाफ़ गुनाह और सऊदी समाज के ख़िलाफ़ ख़तरा" माना. लेकिन इसके पांच महीने बाद सऊदी शाह सलमान ने एक आदेश दिया कि सरकारी सुविधाओं के लिए महिलाओं को किसी पुरुष गार्जियन की ज़रूरत नहीं है.
सितंबर 2017 में सऊदी शाह ने पहली बार महिलाओं को कार चलाने की इजाज़त दे दी. इस ख़बर का मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने स्वागत किया लेकिन उन्होंने साथ ही ये प्रण भी लिया कि वो महिलाओं की समानता के अधिकार के लिए कोशिशें और बढ़ाएंगी.
मई 2018 में महिलाओं के ड्राइविंग पर लगी पाबंदी हटाने से पहले सऊदी अधिकारियों ने महिलाधिकारों के समर्थन में चल रहे अभियानों को ख़त्म करने के लिए एक मुहिम छेड़ी.
इस दौरान बदावी समेत कई कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया. उन पुरुषों को भी गिरफ़्तार किया गया जो इन अभियानों का समर्थन कर रहे थे या फिर महिलाओं के पक्ष में गवाही देने आए थे.
जिन्हें हिरासत में लिया गया उनमें से कईयों पर गंभीर आरोप लगाए गए जिनमें "विदेशी लोगों के साथ संदिग्ध संबंधों" के आरोप लगाए गए. इन आरोपों के लिए उन्हें कड़ी सज़ा मिल सकती थी.
सरकार के समर्थन वाली मीडिया ने भी उन्हें "देशद्रोही" क़रार दिया था.