सऊदी अरब से ज़्यादा तेल फिर भी वेनेज़ुएला बदहाल
तेल से लबालब देश में रोजमर्रा की जरूरी चीजों के लिए भी तरस रहे हैं लोग.
क़रीब दो दशक पहले हूगो चावेज़ ने जिस वेनेज़ुएला को क्रांति के रथ पर सवार होकर तेल कंपनियों के मकड़ जाल से बाहर निकाला था वो अब बदहाली और मुश्किलों की ऐसी आंधी में घिरा है जिसके सामने बचाव के लिए कोई दीवार नज़र नहीं आती.
चावेज़ के उत्तराधिकारी निकोलस मदुरो की नीतियों से देश आर्थिक मुश्किलों के साथ बड़ी राजनीतिक परेशानी का दौर भी देख रहा है.
देश में लोग ज़रूरी चीज़ों का संकट देख रहे हैं और राजनीतिक नेतृत्व अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा है.
चावेज़ ने देश की बागडोर संभालने के बाद बहुसंख्यक जनता को मुख्यधारा में लाने के लिए सरकारी ख़जाने का मुंह खोल दिया था. ग़रीब तबके की सेहत, शिक्षा और बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए चावेज़ ने तेल कंपनियों के राजस्व में से बड़ी हिस्सेदारी मांगी और खुले दिल से उन पर ख़र्च किया.
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वेनेज़ुएला में भारत के राजदूत रहे दीपक भोजवानी बताते हैं, "हूगो चावेज़ ने देश का राष्ट्रपति बनने के बाद पूरा नक्शा बदल दिया, कई कंपनियों का राष्ट्रीयकरण हुआ, टैक्स बढ़ाए और ग़रीबों की सेहत, शिक्षा, आवास के लिए सरकारी ख़र्चे से ख़ूब काम किया."
सामाजिक क्षेत्र में इस दरियादिली ने चावेज़ को तेल के धनी देश का मसीहा बना दिया.
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतें जब तक चढ़ती रहीं तब तक तो सब ठीक रहा लेकिन गिरती क़ीमतों ने वेनेज़ुएला के सामने मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर दिया है. महंगाई आसमान पर है, रोज़मर्रा की ज़रूरी चीज़ों के लिए लोग तरस रहे हैं और अर्थव्यवस्था की रीढ़ तेल का उत्पादन दिनों-दिन कम होता जा रहा है.
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दीपक भोजवानी कहते हैं, "वहां तेल के अलावा और कोई घरेलू उद्योग तो है नहीं. सब चीज़ों के लिए आयात ही एकमात्र ज़रिया है, तेल की क़ीमत गिरने के बाद पैसे नहीं हैं लोगों के पास. कोई आमदनी नहीं तो फिर आयात के लिए पैसा कहां से दिया जाए. दवा और रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए भी दिक्कत हो रही है."
सऊदी अरब से ज़्यादा तेल
वेनेज़ुएला में सऊदी अरब से ज़्यादा बड़ा तेल का भंडार मौजूद है. हालांकि यहां के तेल की किस्म थोड़ी अलग है जिसे भारी पेट्रोलियम कहा जाता है. भारी पेट्रोलियम को रिफ़ाइन करना कुछ मुश्किल और ख़र्चीला है. यही वजह है कि दूसरे देशों की तुलना में वेनेज़ुएला के कच्चे तेल की क़ीमत कम है. भारत समेत दुनिया भर की कंपनियां यहां तेल की खुदाई में शामिल हैं.
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चावेज़ ने सुधारों को लागू कर तेल कंपनियों को भी अपने नियंत्रण में लिया लेकिन कोई और उद्योग यहां खड़ा नहीं हो सका. अब जब तेल का उत्पादन कम हो रहा है तो लोगों के पास ना तो काम है, ना आमदनी का कोई और ज़रिया. ऐसे में बदहाली ने हर तरफ अपना डेरा बसा लिया है.
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ फॉरेन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर अब्दुल नाफे इसके लिए विदेशी कंपनियों और देश के मध्यमवर्ग को भी ज़िम्मेदार मानते हैं.
नाफे कहते हैं, "एक तो सरकार का सामाजिक ख़र्च बहुत ज़्यादा है, दूसरे तेल की कंपनियां और मध्यमवर्गीय चावेज़ विरोधियों ने एक तरह का आर्थिक गृहयुद्ध छेड़ रखा है. बीते साठ सालों में जो लोग तेल के मुनाफ़े पर कब्ज़ा जमाए थे वो लोग विरोधी रवैया अपनाए हुए हैं. अगर इन लोगों का रुख़ सकारात्मक रहता तो स्थिति इतनी ख़राब नहीं होती."
क़रीबियों पर भरोसा
चावेज़ के दौर में तेल कंपनियों के प्रबंधन में भारी फ़ेरबदल हुआ. विदेशी और पेशेवर लोगों को हटा कर चावेज़ ने स्थानीय और अपने भरोसेमंद लोगों को अहम पदों पर बिठाया. अब वहां तेल से जुड़े मामलों में सरकारी कंपनी पीडीवीएसए का दबदबा है लेकिन फ़िलहाल वो खुद अपने कर्ज़े चुकाने में असमर्थ है.
कई जानकारों की नज़र में चावेज़ की नीतियों से भी तेल उद्योग को नुकसान पहुंचा. दीपक भोजवानी बताते हैं, "चावेज़ ने एक ही झटके में पीडीवीएसए के 18000 लोग निकाल दिए इस वजह से कंपनी वो काम भी नहीं कर पाई जो वो कर सकती थी.
विदेशी कंपनियों पर शिकंजा कसा तो बहुत सी कंपनियों ने बाहर का रुख कर लिया. स्थानीय स्तर पर इतनी क्षमता विकसित हुई नहीं कि तेल को रिफाइन किया जाए तो यही होना था, जहां पहले 30 लाख बैरल रोज़ निकलता था वहां ढाई लाख बैरल भी नहीं निकल रहा. "
हालांकि चावेज़ की नीतियों के कारण ही कई दूसरे देशों की कंपनियों को यहां आने का मौक़ा मिला इनमें भारत भी एक है.
नकारात्मक राजनीति
संकट के इस दौर में वेनेज़ुएला के लोग देश की राजनीति को भी नकारात्मक भूमिका में देख रहे हैं.
सत्ता की बागडोर अब चावेज़ के क़रीबी रहे निकोलस मदुरो के हाथ में है. जानकार मानते हैं कि उनकी एकमात्र काबिलियत है कि वो चावेज़ के भरोसेमंद लोगों में थे अब मौजूदा परिस्थितियों मदुरो से ना तो राजनीति संभल रही है ना तेल कारोबार.
नेशनल असेंबली में विपक्षी दलों का बोलबाला है ऐसे में मदुरो ने जब अपने लिए अधिकार बढ़ाने की कोशिश की तो विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया. चावेज़ ने मदुरो को अपना उत्तराधिकारी तो बनाया लेकिन उनमें वो करिश्मा नहीं भर सके जो मुश्किलों का हल निकाल सके और देश को एकजुट रख सके.
वेनेज़ुएला में नोटबंदी के बाद अफरा-तफरी
मदुरो ने नए संविधान सभा का गठन करने की बात कर मामला और बिगाड़ दिया है. अब्दुल नाफ़े कहते हैं, "दोनों पक्षों ने अतिशयवादी रुख़ अपना रखा है, विपक्ष मध्यस्थता की कोशिशों को नकार रहा है, मदुरो सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं चाहे देश किसी हाल में जाए. ऊपर से संविधान संशोधन की बात करना और भी दुखद है. अभी 1999 में ही तो संविधान बना था. मदुरो से ये ग़लती तो हुई है."
मदुरो की नीतियों का विरोध देश के बाहर भी हो रहा है. लातिन अमरीकी देशों के साथ ही अमरीका भी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के कमज़ोर पड़ने से चिंता में है और प्रतिबंधों के रास्ते तलाश रहा है. वेनेजुएला का संकट पड़ोसी देशों के लिए भी मुसीबत बन सकता है. सबसे बड़ी चिंता तेल के भंडार को लेकर ही है. ऐसे बुरे हाल में कोई और मज़बूत नेता भी नज़र नहीं आता जो मुश्किलों के हल का कोई रास्ता निकाल सके.