अमेरिका-रूस के बीच की शांति समझौता करवा सकता है भारत, जानिए पीएम मोदी से ही क्यों हैं उम्मीदें?
पिछले साल 24 फरवरी को रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था और भारत ने अभी तक यूक्रेन युद्ध की निंदा नहीं की है। इसके बाद भी भारत और अमेरिका की रणनीतिक साझेदारी बढ़ी है।
India US-Russia News: नई दिल्ली में मार्च महीने में आयोजिक जी-20 विदेश मंत्रियों के सम्मेलन के दौरान भारत ने बड़ी कोशिश की, कि यूक्रेन युद्ध की निंदा करने के मुद्दे पर चीन और रूस का अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ कोई आम सहमति बन जाए, लेकिन भारत की ये कोशिश नाकाम हो गई और दोनों ध्रुवों के बीच कोई नतीजा नहीं निकल पाया। भारतीय विदेश मंत्री सुब्रह्मण्यम जयशंकर ने इस बात को स्वीकार किया और कहा, कि "हमने कोशिश की, लेकिन देशों के बीच का अंतर बहुत अधिक था।" जाहिर है, इस अंतर को पाटने की पहली भारतीय कोशिश फेल हो गई है, लेकिन विदेशी एक्सपर्ट्स की भारत को लेकर उम्मीदें खत्म नहीं हुई हैं। भारत इस साल जी20 शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहा है और तमाम विदेशी मेहमान इस साल सितंबर महीने में भारत का दौरा करने वाले हैं, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी नई दिल्ली आ सकते हैं, तो क्या... प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमेरिका और रूस के बीच एक पुल बन सकते हैं? आइये समझते हैं
नई दिल्ली की महत्वपूर्ण भूमिका
हालांकि, यूक्रेन संघर्ष पर चल रही वैश्विक महाशक्तियों के बीच कलह के कारण, भारत अमेरिका और रूस के बीच G20 संयुक्त घोषणा जारी करने में राजी करने में विफल रहा, लेकिन अमेरिका और रूस के बीच भावी मध्यस्थ के रूप में नई दिल्ली की महत्वपूर्ण भूमिका को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। वास्तव में, ऐसा विश्वास करने की कई वजहें हैं, कि भारत किसी भी देश के मुकाबले, दोनों पक्षों को बातचीत की मेज पर लाने का सबसे अच्छा मंच है और भारत के पास इसका सबसे बेहतरीन मौका भी है, जो जी20 अध्यक्ष होने के नाते उसे मिला है, लिहाजा क्या भारत यूक्रेन में चल रही लड़ाई खत्म करने के लिए आखिरकार आखिरी विकल्प बन सकता है, क्योंकि पुतिन और बाइडेन, दोनों के लिए भारत सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।
मध्यस्थ की भूमिका में भारत फिट कैसे?
1947 में अपनी स्वतंत्रता के बाद से, भारत ने एक गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को लगातार बनाए रखा है और यूक्रेन संघर्ष के दौरान भी भारत के लिए यह नीति, काफी अहम साबित हुई है। निश्चित रूप से इसका मतलब यह नहीं है, कि भारत किसी देश के ऊपर किसी और देश का पक्ष नहीं लेता है या पक्ष लेने से बचता है। हालांकि, भारत अभी भी हर देश के लिए एक स्वतंत्र मंच और ओपन-डोर पॉलिसी प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, भारत के न केवल क्यूबा, ईरान और उत्तर कोरिया के साथ, बल्कि ऑस्ट्रेलिया, जापान और नाटो जैसे कट्टर अमेरिकी सहयोगियों के साथ भी बेहतरीन राजनयिक संबंध स्थापित किए हुए हैं। लिहाजा, यूक्रेन युद्ध के लिए अगर भारत एक मध्यस्थ मंच बनता है, तो भारत एकमात्र ऐसा देश होगा, जो किसी पूर्वाग्रह में बंधा नहीं होगा, जिसके किसी भी देश के साथ कोई पूर्व डील नहीं होगी, जो किसी शर्त में बंधा नहीं रहेगा और भारत ही एकमात्र देश होगा, जो हर किसी की बातचीत का, हर पेशकश का स्वागत करने की स्थिति में होगा। लिहाजा, भारत के पास असीमित संभावनाएं हैं और मोदी सरकार के पास इस मौके को भुनाने का अच्छा मौका है।
US बनाम रूस, भारत के दोनों से अच्छे संबंध
भारत के एक मजबूत मध्यस्थ बनने की सबसे बड़ी वजह ये भी है, कि युद्ध में शामिल दुनिया की दोनों महाशक्तियों अमेरिका और रूस, दोनों के साथ भारत की काफी स्वस्थ भागीदारी है। इसके साथ ही मोदी सरकार ने जियो पॉलिटिक्स में भारत की गुट-निरपेक्ष भूमिका को 'बहु-ध्रुवीय' दुनिया से भी जोड़ दिया है। यानि, भारत हर किसी के साथ है, लेकन किसी के भी खिलाफ नहीं है। मल्टी-एलाइनमेंट के जरिए, भारत ने सभी शक्तियों के साथ अपने संबंध को मजबूत ही किए है और भारत किसी भी शक्ति से उलझने से बचा है। लिहाजा, नई दिल्ली को उम्मीद है, कि यह दृष्टिकोण भारत की सामरिक स्वायत्तता को संरक्षित करेगा क्योंकि महाशक्ति प्रतियोगिता काफी तेज हो गई है और अपनी इस नीति के जरिए मौजूदा जियो-पॉलिटिक्स में काफी सफलताएं हासिल की हैं।
रूस के साथ रहकर पुतिन की आलोचना!
यूक्रेन युद्ध के एक साल होन चुके हैं और भारत ने रूस की निंदा नहीं की है और पिछले एक साल में भारत रूसी तेल का बड़ा खरीददार बन चुका है। भारत की विशाल ऊर्जा जरूरतों को देखते हुए, और विश्व का सबसे ज्यादा जनसंख्या बनने की कगार पर पहुंच चुके भारत को देखते हुए, रूसी तेल खरीदने की प्रक्रिया किसी आलोचना के लायक नहीं है। लेकिन, पश्चिम इस कदम से निराश हो गया है, यह नई दिल्ली को क्रेमलिन पर उचित मात्रा में लाभ भी देता है, जो पश्चिमी प्रतिबंधों के बावजूद तेल की बिक्री जारी रखने के लिए बेताब है। शीत युद्ध के समय से, रूस के साथ भारत के पुराने और घनिष्ठ संबंध भी नई दिल्ली को रूसी नीतियों की आलोचना करने की अनुमति देते हैं, लेकिन भारत की आलोचना को रूस में बिना किसी प्रतिशोध के देखा जाता है। जैसे पिछले साल ताशकंत एससीओ शिखर सम्मेलन के दौरान पीएम मोदी ने पुतिन की आंखों में देखकर कहा था, कि "आज का युग युद्ध का युग नहीं है" और रूस ने पीएम मोदी के इस बयान को बिना किसी गुस्से के लिया था।
बिना झुके अमेरिका के साथ भारत के संबंध
अमेरिका के साथ भी भारत की साझेदारी, उतनी ही मजबूत मानी जा सकती है, जितनी कि भारत की साझेदारी आज के दौरान में रूस के साथ है। और यकीनन, यह इतिहास में सबसे अच्छी रही है। 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद से, नई दिल्ली ने वाशिंगटन के साथ मजबूत संबंधों को प्राथमिकता दी है, मुख्य रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में बीजिंग की बढ़ती मुखरता का मुकाबला करने के लिए, और सीमा रेखा पर चीन की आक्रामकता को रोकने के लिए, भारत और अमेरिका संबंध काफी महत्वरपूर्ण मोड़ पर है। 2017 में, चीन, भारत और भूटान के बीच भौगोलिक रूप से संवेदनशील त्रिकोणीय सीमा डोकलाम में चीनी सड़क निर्माण के खिलाफ दोनों देशों के बीच सैन्य विवाद शुरू हुआ था, जिसके बाद भारत के लिए अमेरिकी समर्थन में तेजी आनी शुरू हो गई। 2017 के बाद से चीन का मुकाबला करने के लिए भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका सहित समान विचारधारा वाले लोकतांत्रिक देशों के बीच एक सुरक्षा संवाद क्वाड को फिर से जीवित करने पर सहमत बनी। भारत और अमेरिका के बीच, बहुपक्षीय और द्विपक्षीय सहयोग जून 2020 में गालवान घाटी संघर्ष के बाद से तेजी से जारी है और दोनों देश ऐतिहासिक तौर पर करीब आ चुके हैं।
उभरती हुई शक्ति बन रहा है भारत
रूस और अमेरिका के साथ अपने मजबूत संबंधों के अलावा, भारत अपने आप में एक उभरती हुई महान शक्ति है, जिसका अर्थ है कि मॉस्को, वाशिंगटन और बीजिंग, तीनों ही बड़ी शक्तियां अब भारत को गंभीरता से लेते हैं। जैसा कि अब तक जी20 सम्मेलन से पता चला है, भारत अब पूरे विकासशील दुनिया की आवाज बन चुका है। पिछले सप्ताह विदेश मंत्रियों की बैठक में अपनी प्रारंभिक टिप्पणी के दौरान, मोदी ने वैश्विक शासन की विफलता पर खेद व्यक्त किया था और कहा था, "हमें यह स्वीकार करना चाहिए, कि इस नाकामी के दुखद परिणाम सबसे ज्यादा विकासशील देशों को ही भुगतने पड़ रहे हैं।" उन्होंने कहा, कि "हमारी उन लोगों के प्रति भी जिम्मेदारी है, जो इस कमरे में नहीं हैं। कई विकासशील देश अपने लोगों के लिए भोजन और ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने की कोशिश करते हुए अस्थिर ऋण संकट से जूझ रहे हैं।" यूक्रेन संकट का सबसे गंभीर असर विकासशील देशों पर ही पड़ा है।
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मध्यस्थता के लिए सबसे मजबूत क्यों है भारत?
अंत में, अगर बड़े कैनवास पर देखें, तो मध्यस्थता के लिए भारत का जो पॉजीशन है, उस स्थिति में दुनिया के बाकी देश नहीं हैं। उदाहरण के लिए, भारत एक तरफ विकासशील दुनिया का प्रतिनिधि बन चुका है, जबकि चीन ने रूस का खुलेआम समर्थन कर, सही मायनों में अपना सबकुछ झोंक दिया है। हाल ही में शी जिनपिंग ने यूक्रेन शांति के लिए 12-सूत्रीय समझौता कार्यक्रम भी पेश किया है, लेकिन ये कार्यक्रम काफी पक्षपाती है। युद्ध शुरू होने के शुरूआती दिनों में इंडोनेशिया, इजरायल, फ्रांस और तुर्की जैसे देशों ने भी मध्यस्थता करने की कोशिश की थी, लेकिन ये तमाम देश बुरी तरह ले नाकाम हुए हैं। क्योंकि, ना तो व्लादिमीर पुतिन और ना ही वलोडिमीर जेलेंस्की ही बातचीत के लिए तैयार हुए और सबसे महत्वपूर्ण बात ये, कि इन देशों का ना तो रूस पर ही ज्यादा प्रभाव था और ना ही यूक्रेन पर। लिहाजा, तमाम परिस्थितियों को देखने के बाद सिर्फ और सिर्फ एक देश, जो युद्ध में शांति समझौता करवा सकता है, उस खांचे में सिर्फ भारत ही बैठता है। लिहाजा, इस साल जब जी20 की बैठक में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत आते हैं, तो प्रधानमंत्री मोदी शांति समझौता करवाने की दिशा में एक पुल की तरह काम कर सकते हैं।