अमेरिकी फौज के हटते ही अफगानिस्तान की दुर्दशा शुरू, तालिबान के साथ मिलकर पाकिस्तान का डबल गेम
अफगानिस्तान में अशांति की आग में सबसे ज्यादा तेल डालने का काम करता है पाकिस्तान। जाहिर सी बात है, जब तक अफगानिस्तान अशांत रहेगा, अमेरिका की नजरों में पाकिस्तान की अहमियत बनी रहेगी।
काबुल, जून 15: मई 2021 अफगानिस्तान के लिए एक खतरनाक खूनी महीना साबित हुआ है। जिसमें सालों से आतंकवाद से त्रस्त देश को और अस्थिर और राजनीतिक तौर पर बेबस कर दिया है। अमेरिकी नेतृत्व वाली अंतरराष्ट्रीय ताकतों के अफगानिस्तान से हटते ही कट्टरपंथी सुन्नी संगठन तालिबान ने अल-कायदा के साथ अपने संबंधों को मजबूत करना शुरू कर दिया है और एक बार फिर से अफगानिस्तान अशांति की आग में धधकने लगा लगा है। तालिबान ने कट्टरपंथी इस्लामी ताकतों के साथ गठजोड़ फिर से मजबूत करना शुरू कर दिया है और सत्ता को गिराने के लिए धमाकों का सहारा लेना शुरू कर दिया है। और अफगानिस्तान की अशांति के पीछे अगर सबसे ज्यादा जिम्मेदार कोई है, तो वो है पाकिस्तान।
आग में घी डालता पाकिस्तान
अफगानिस्तान में अशांति की आग में सबसे ज्यादा तेल डालने का काम करता है पाकिस्तान। जाहिर सी बात है, जब तक अफगानिस्तान अशांत रहेगा, अमेरिका की नजरों में पाकिस्तान की अहमियत बनी रहेगी। साथ ही साथ, चीन के साथ पाकिस्तान अफगानिस्तान का सौदा कर बिचौलिए के तौर पर काफी पैसा कमा सकता है। लिहाजा, पाकिस्तान का 'डीप स्टेट' तालिबानी आतंकियों को लगातार अपना समर्थन दे रहा है। तालिबान के साथ शांति प्रक्रिया कोई सकारात्मक परिणाम देने में पूरी तरह से नाकामयाब रही है। और भविष्य में भी अफगानिस्तान में शांति की उम्मीद करना बेमानी है। अफगानिस्तान में अराजकता और अनिश्चितता की स्थिति और भी ज्यादा बढ़ने की संभावना है और जाहिर सी बात है, इससे भारतीय उपमहाद्वीप में क्षेत्रीय शांति भी प्रभावित होगी। क्योंकि अमेरिकी और अंतरराष्ट्रीय सैनिकों के देश छोड़ने के बाद सितंबर 2021 के बाद आतंकी संगठन पूरी तरह से सक्रिय हो जाएंगे और इसके साथ ही पश्चिम एशिया में पिछले दो दशकों से चल रही शांति स्थापना की कोशिशों का अंत हो जाएगा।
अफगानिस्तान से बाहर अमेरिका
इस साल 11 सितंबर तक संयुक्त राज्य अमेरिका को अफगानिस्तान में बचे 2,500 सैनिक भी बाहर चले जाएंगे। और अमेरिकी फौज के साथ ही नाटो के 7 हजार सैनिक भी अफगानिस्तान से जाने लगेंगे। आपको बता दें कि नाटो में अमेरिका के साथ ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जॉर्जिया के साथ तुर्की और ब्रिटेन भी शामिल है। और 11 सितंबर तक नाटो के सैनिक भी अफनानिस्तान से बाहर चले जाएंगे। लेकिन, अमेरिकी सुरक्षा बलों की वापसी की घोषणा के बाद से ही अफगानिस्तान में काफी ज्यादा हिंसा बढ़ गई है और अफगान सरकार और विद्रोही तालिबान के बीच शांति समझौता की कोशिश भी लगातार कम होती जा रही है।
अफगानिस्तान में अशांति का उदय
अप्रैल 2021 की तुलना में मई-2021 में अफगानिस्तान में आतंकवाद से जुड़ी मौतों में ढाई गुना से ज्यादा की वृद्धि दर्ज की गई है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अप्रैल में आतंकी घटनाओं की वजह से अफगानिस्तान में 1,645 लोग मारे गये थे तो मई में आतंकी घटनाओं में मरने वालों की सख्या बढ़कर 4,375 हो गईं। मार्च, 2020 के बाद से एक महीने में अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा मौतें हुई हैं। वहीं, अफगानिस्तान में अलग अलग आतंकी घटनाओं में अप्रैल महीने में जहां 388 सुरक्षा में लगे जवान मारे गये थे तो मई में मरने वाले सैनकों की संख्या बढ़कर 1134 हो गई है। वहीं, अफगानिस्तान की नेशनल डिफेंस एंड सिक्योरिटी फोर्स को, जिसे अमेरिकन सैनिकों के हटने के बाद देश की सुरक्षा को संभालनी है, उसके पास राशन और हथियार की काफी ज्यादा कमी हो जाएगी। और यही वजह है कि पिछले महीने अफगानिस्तान के सैनकों ने अपने 26 ठिकाने तालिबान के सामने आत्मसमर्पण कर दिए।
तालिबान को मदद
मई की शुरुआत में अफगानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्ला मोहिब ने संकेत दिया था कि अल-कायदा अफगानिस्तान में तालिबान की युद्ध मशीन को सक्रिय रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट-खुरासान प्रांत एकसाथ मिलकर आतंकी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। एक हफ्ते बाद, अफगानिस्तान के पहले उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह ने जोर देकर कहा था कि तालिबान अल-कायदा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहा है। सालेह ने अपनी बात साबित करने के लिए अफगान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बलों द्वारा प्राप्त किए गये अल-कायदा से जुड़े सबूतों को भी सामने रखा था।
पाकिस्तान का 'डबल गेम'
अफगानिस्तान सरकार के लिए सबसे ज्यादा चिंता की बात ये है कि पाकिस्तान ही तालिबान की मदद कर रहा है। और पाकिस्तान आतंकियों का कितना हमदर्द देश है, ये तो किसी से छिपा हुआ नहीं है। अफगानिस्तान के एक प्रांत की सरकार ने साफ तौर पर कहा कि अफगानिस्तान में रहने वाले पाकिस्तानी आतंकियों की मदद करते हैं, लिहाजा अफगानिस्तान से पाकिस्तानियों तो बाहर निकाला जाए। पाकिस्तान के एनएसए ने साफ तौर पर कहा है कि पाकिस्तान लगातार तालिबान को गोला-बारूद, हथियार दे रहा है। अफगानिस्तान के एनएसए ने खुलेआम कहा कि तालिबान पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का गुलाम संगठन है। वहीं, 15 मई को एक इंटरव्यू के दौरान अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने दोहराया कि पाकिस्तान तालिबान का समर्थन कर रहा है। लेकिन पाकिस्तान के विदेश कार्यालय ने इसे "गैर-जिम्मेदाराना बयान" और "निराधार आरोप" बताया।
शांति प्रक्रिया का क्या होगा?
राष्ट्रपति अशरफ गनी ने पिछले महीने कहा था कि वह शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के साथ-साथ तालिबान का मुकाबला करने के लिए भी एक सर्वदलीय 'सुप्रीम स्टेट काउंसिल' के गठन पर जोर दे रहे हैं। अशरफ गनी ने काउंसिल की संरचना और गठन पर कई नेताओं से मुलाकात की है लेकिन अभी तक इसका गठन नहीं किया गया है। इस परिषद का गठन पिछले साल होना था। लेकिन, कोशिशें अब तेज किए गये हैं। अफगानिस्तान में स्थानीय रिपोर्टों के मुताबिक, सुप्रीम काउंसिल के लिए 18 सदस्यीय सूची तैयार की गई है। अफगानिस्तान के लिए दुर्भाग्य की बात ये है कि अमेरिकी सैनिकों के हटते ही अफगानिस्तान के तखर, बगलान और दयाकुंडी के उत्तरी प्रांतों में हिंसा में काफी तेजी आ गई है। वहीं, ताजिक नेता अहमद मसूद (पूर्व मुजाहिदीन नेता अहमद शाह मसूद के बेटे) ने 5 मई को काबुल में कहा, कि अगर तालिबान एक सैन्य समाधान की तलाश जारी रखता है तो अफगान मुजाहिदीन समूह संगठन उससे टकराने के लिए तैयार है। मसूद ने जोर देते हुए कहा कि विदेशी सेना की वापसी को देखते हुए तालिबान के पास युद्ध का कोई औचित्य नहीं था। ऐसे में लगता नहीं कि अफगानिस्तान में अगले कई सालों तक शांति आ पाएगी।