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राजद्रोह कानून पर रोक से कई लोगों को जमानत मिलने की उम्मीद

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Provided by Deutsche Welle

नई दिल्ली, 11 मई। सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार और सभी राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि जब तक राजद्रोह के कानून को हटा देने के विषय पर सुनवाई पूरी नहीं हो जाती तब तक इस के तहत कोई नया मामला ना दर्ज किया जाए. इसे एक ऐतिहासिक आदेश और इस कानून के अंत की तरफ बढ़ाया गया पहला कदम माना जा रहा है.

राजद्रोह भारत की दंड दंहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत एक जुर्म है. इसे अंग्रेज अपने शासन के दौरान 1870 में लाए थे. फिर इसमें कई बार संशोधन भी किए गए.

(पढ़ें: सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून पर एक सप्ताह में केंद्र से जवाब मांगा)

151 साल पुराना 'कोलोनियल' कानून

यहां तक कि इलाहाबाद हाई कोर्ट और पंजाब हाई कोर्ट ने अलग अलग फैसलों में इसे असंवैधानिक भी बताया, लेकिन 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने ''केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य' नाम के फैसले में इसे वापस ला दिया.

लेकिन इस कानून का ना सिर्फ सरकारों ने धड़ल्ले से इस्तेमाल किया है बल्कि सुप्रीम कोर्ट में भी इसके खिलाफ कई याचिकाएं लंबित पड़ी हैं. वरिष्ठ पत्रकार शशि कुमार द्वारा राजद्रोह कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दर्ज की गई याचिका के अनुसार 2019 में राजद्रोह के तहत 93 मामले दर्ज किए गए.

(पढ़ें: मीडिया का मुंह बंद करने का हथियार बनता राजद्रोह कानून)

इन 93 मामलों में से महज 17 प्रतिशत मामलों में चार्जशीट दायर की गई और अपराध सिद्धि तो सिर्फ 3.3 प्रतिशत मामलों में हुई.

13,000 लोग जेल में

आंकड़े अपने आप में इस कानून की अनावश्यकता को साबित करते हैं. और इसके पीड़ितों की फेहरिस्त को देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि कैसे यह कानून अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था के रास्ते में एक बड़ा अवरोधक है.

उत्तर प्रदेश पुलिस ने कैरवैन पत्रिका के सम्पादकों के खिलाफ भी राजद्रोह का मामला दर्ज किया था

मौजूदा याचिका में याचिकाकर्ताओं के वकील कपिल सिब्बल ने अदालत में कहा कि इस समय पूरे देश में इस कानून के तहत 800 मामले दर्ज हैं और 13,000 लोग जेल में हैं.

(पढ़ें: पत्रकार नामी ना हो तो गिरफ्तारी के खिलाफ सुनवाई भी नहीं होती)

इनमें शामिल हैं उमर खालिद और शरजील इमाम जैसे छात्र एक्टिविस्ट, सिद्दीक कप्पन और गौतम नवलखा जैसे पत्रकार, रोना विल्सन और शोमा सेन जैसे एक्टिविस्ट और कई ऐसे लोग जिनके नाम सुर्खियों में नहीं आते.

इनमें वरवरा राव जैसे बुजुर्ग कवि-एक्टिविस्ट भी हैं, जिन्हें बिगड़ते स्वास्थ्य के बावजूद नियमित जमानत की जगह सिर्फ मेडिकल जमानत दी गई. फादर स्टैन स्वामी की जमानत के इंतजार में मौत हो गई थी.

अदालत ने इस कानून पर रोक लगा कर इन सभी लोगों को जेल से बाहर निकलने की उम्मीद दी है. देखना होगा कि अब राज्य सरकारें और अदालतें इन सब की जमानत की याचिकाओं को लेकर क्या फैसला लेती हैं.

Source: DW

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English summary
indias top court puts colonial ear sedition law in abeyance
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