कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नाम पर एक क्यों नहीं होता विपक्ष?- नज़रिया
इसके लिए केंद्रीय एजेंसियों द्वारा इन नेताओं की 'घेराबंदी' बढ़ा दी जाती है. लेकिन यह बात भी आईने की तरह साफ है कि लोकसभा चुनाव में ये दोनों दल और इनके नेता अपने सुरक्षित राजनीतिक भविष्य की खातिर केंद्र में 'अनुकूल-सरकार' चाहेंगे और इसके लिए वे अंततः मौजूदा सत्ताधारी खेमे के खिलाफ अन्य विपक्षी दलों के साथ लामबंद होंगे.
देश की विपक्षी राजनीति के बारे में इन दिनों जो भी सवाल उभरते हैं, उनमें ज़्यादातर राहुल गांधी को लेकर होते हैं.
मसलन, 'क्या राहुल गांधी के नाम पर विपक्ष एकजुट हो सकता है? उनके नाम पर कई विपक्षी नेता सहमत नहीं हैं, फिर विपक्षी गठबंधन का क्या भविष्य होगा? क्या राहुल गांधी 2019 में प्रधानमंत्री मोदी के सामने टिकेंगे?'
ऐसे ज़्यादातर सवाल भाजपा और उसके शीर्ष नेता यानी प्रधानमंत्री मोदी की 'अपराजेय छवि' के बोझ से दबे नज़र आते हैं.
ये सवाल स्वाधीनता-बाद की भारतीय राजनीति के संक्षिप्त इतिहास को भी नज़रंदाज करते हैं.
विपक्ष ने कब एक 'सर्वस्वीकार्य नेता' की अगुवाई में लोकसभा चुनाव लड़ा? संसदीय चुनावों में जब कभी विपक्ष, ख़ासकर गैर-भाजपा अगुवाई वाले गठबंधन या मोर्चे को कामयाबी मिली, उसके नेता यानी भावी प्रधानमंत्री का चयन हमेशा चुनाव के बाद ही हुआ.
मोरार जी देसाई, वी पी सिंह से देवगौड़ा-गुजराल, यहां तक कि डॉ मनमोहन सिंह तक यही स्थिति रही.
विपक्ष में नाम तय करने की परंपरा
किसी एक नाम पर पहले से कभी सहमति नहीं बनी या उसकी ज़रुरत नहीं समझी गई.
आज़ादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस सत्ताधारी रही, इसलिए उसके संसदीय दल द्वारा निर्वाचित नेता प्रधानमंत्री होते थे.
व्यावहारिक तौर पर उनकी अगुवाई में वह अपना चुनाव अभियान चलाती थी. लेकिन विपक्ष द्वारा पहले से नेता की घोषणा कभी नहीं होती थी.
विपक्षी खेमे में इसकी शुरुआत भाजपा ने ही की, जब उसने अपने तत्कालीन नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करना शुरू किया.
फिर उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया. लेकिन 2004 के संसदीय चुनाव के वक्त जब कांग्रेस विपक्षी खेमे में थी, उसने प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार की घोषणा के बगैर ही चुनाव लड़ा.
वाजपेयी के सामने मनमोहन सिंह
तब सत्ताधारी खेमे की अगुवाई अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कद्दावर नेता कर रहे थे. उनके पास 'शाइनिंग इंडिया' का आकर्षक नारा भी था.
पर विपक्षी खेमे ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए बगैर वाजपेयी-नीत एनडीए को सत्ता से बेदखल कर दिया.
यूपीए की बैठक में गवर्नेंस का एजेंडा तय हुआ. चुनाव नतीजे से साफ हुआ कि कांग्रेस की अगुवाई में विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी.
किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. नव-निर्वाचित कांग्रेसी सांसदों ने सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का नाम तय किया.
लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इनकार किया. उ
नकी इच्छानुसार कांग्रेस संसदीय दल ने नाटकीय ढंग से जब डॉ. मनमोहन सिंह को अपना नेता चुना तो यूपीए के अन्य घटकों ने भी उन्हें अपना समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनाया.
क्या कहती है भारतीय संसदीय प्रणाली?
ऐसे में 2019 के संसदीय चुनाव के लिए विपक्षी दलों के संभावित मोर्चे की तरफ से किसी एक नेता या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम पर सर्व-स्वीकृति की अपेक्षा करना अपने देश की संसदीय परंपरा और इतिहास से एक तरह का अलगाव ही नहीं, अज्ञान भी होगा.
जो लोग देश की संसदीय प्रणाली के बदले 'राष्ट्रपति प्रणाली' लागू करने के पैरोकार हैं, वे ऐसा सोचें तो बात समझी जा सकती है.
लेकिन भारतीय संसदीय प्रणाली की न तो यह परंपरा है और न ही कोई ज़रूरत है.
भारत के संविधान के अनुच्छेद 74, 75, 77 और 78 से यह तस्वीर बिलकुल साफ हो जाती है.
राहुल गांधी विपक्षी मोर्चेबंदी के अहम सूत्रधार
संवैधानिकता और परंपरा से इतर अगर शुद्ध राजनीतिक स्तर पर आज का परिदृश्य देखें तो कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी विपक्ष की भावी मोर्चेबंदी के महत्वपूर्ण सूत्रधार बन गए हैं.
संभवतः इसी यथार्थ को स्वीकारते हुए रविवार को चेन्नई में द्रमुक नेता एम के स्टालिन ने राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने का प्रस्ताव पेश किया.
पर स्टालिन के प्रस्ताव में संजीदगी और तर्क से ज़्यादा गैर-ज़रूरी उत्साह नज़र आया.
वैसे भी उस समारोह मे राहुल सहित तमाम नेताओं को द्रमुक आयोजकों ने तलवारें थमा रखी थीं. अति-उत्साह तो यूं ही टपक पड़ेगा.
मोदी की 'अपराजेय छवि' का मिथक टूटा
आरएसएस-भाजपा और सोशल मीडिया पर उसके समर्थकों ने लंबे समय तक राहुल गांधी की कथित गैर-गंभीर छवि का खूब प्रचार किया.
उन्हें 'पप्पू' कहकर निपट अज्ञानी बताया. लेकिन पिछले गुजरात चुनाव में 'पप्पू' ने 'महाबली मोदी' के पसीने छुड़ा दिए.
गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा को अच्छी चुनौती दी. हालांकि सरकार भाजपा की ही बनी.
वहीं शुरुआती मुश्किलों के बावजूद कर्नाटक में अंततः कांग्रेस-जेडीएस सरकार बनी.
दिसम्बर, 2018 की 'राजनीतिक परीक्षा' में राहुल को बड़ी कामयाबी मिली. मुख्यधारा मीडिया ने पांच राज्यों के चुनावों को 2019 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले के 'सेमीफाइनल' का विशेषण दिया था.
इन पांच में तीन राज्य- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ हिन्दी भाषी क्षेत्र के हैं, जहां कांग्रेस ने भाजपा को हराकर सत्ता हासिल की है.
इससे प्रधानमंत्री मोदी की 'अपराजेय छवि' का मिथक टूट चुका है. इन तीन राज्यों में कांग्रेस की कामयाबी से उसके अध्यक्ष की राजनीतिक हैसियत बढ़ी है.
वो जो राहुल के नेतृत्व से बचते दिख रहे हैं
एक समय शरद पवार जैसे वरिष्ठ लोग कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी को अपना नेता मानने को हरगिज़ तैयार नहीं थे.
लेकिन आज सोनिया की बात कौन करे, वह राहुल गांधी को भी स्वीकार करने के लिए सहर्ष तैयार हैं.
शरद पवार से लेकर शरद यादव, एम के स्टालिन, चंद्रबाबू नायडू, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा, तेजस्वी यादव, फारूक अब्दुल्ला और सुधाकर रेड्डी सहित अनेक विपक्षी नेता भाजपा-विरोधी व्यापक विपक्षी मोर्चेबंदी में राहुल गांधी के नेतृत्व को मंजू़र कर रहे हैं.
सिर्फ़ तीन प्रमुख विपक्षी दलों- टीएमसी की नेता ममता बनर्जी, सपा के अखिलेश यादव और बसपा की मायावती व्यापक विपक्षी मोर्चेबंदी के मुख्य सूत्रधार के रूप में राहुल गांधी को अभी तक मंज़ूर करने से बच रहे हैं.
जयपुर, भोपाल और रायपुर में कांग्रेस की अगुवाई वाली नई सरकार के मुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह में न आकर मायावती, ममता और अखिलेश ने विपक्षी एकजुटता की अंदरूनी समस्या को भी उजागर किया.
सपा-बसपा की फौरी ज़रूरत
राजनीतिक प्रेक्षकों का बड़ा हिस्सा इसे यूपी-केंद्रित सपा-बसपा की राजनीति की फौरी ज़रूरत से जोड़कर देख रहा है.
माना जा रहा है कि अखिलेश और मायावती नहीं चाहते कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की जीत से उत्साहित कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने पैर पसारने की कोशिश करे.
जहां तक प्रधानमंत्री पद की 'विपक्षी दावेदारी' का प्रश्न है, बसपा समर्थकों का एक हिस्सा मायावती का नाम आगे करता रहता है पर यह बात मायावती को अच्छी तरह पता है कि चुनाव-बाद सबसे बड़ी ताकत के रूप में उभरने वाली पार्टी के नेता को ही प्रधानमंत्री पद की दावेदारी ठोकने का नैतिक आधार मिलेगा.
विपक्षी खेमे की ज़्यादातर पार्टियां पहले से ही कांग्रेस अध्यक्ष को मंजूर कर रही हैं.
ऐसे में देश के सबसे बड़े राज्य की दो प्रमुख पार्टियों के नेता होने के बावजूद माया या अखिलेश विपक्षी-मुख्यधारा से अलग-थलग होने का जोखिम नहीं उठाना चाहेंगे.
क्या ममता के पास है कोई विकल्प?
बहुत संभव है, दोनों नेताओं के मौजूदा तेवर किसी ख़ास राजनीतिक मजबूरी या रणनीति से प्रेरित हों.
यह भी माना जा रहा है कि मायावती और अखिलेश पर कांग्रेस का साथ न देने का केंद्रीय स्तर पर लगातार दबाव रहता है.
इसके लिए केंद्रीय एजेंसियों द्वारा इन नेताओं की 'घेराबंदी' बढ़ा दी जाती है. लेकिन यह बात भी आईने की तरह साफ है कि लोकसभा चुनाव में ये दोनों दल और इनके नेता अपने सुरक्षित राजनीतिक भविष्य की खातिर केंद्र में 'अनुकूल-सरकार' चाहेंगे और इसके लिए वे अंततः मौजूदा सत्ताधारी खेमे के खिलाफ अन्य विपक्षी दलों के साथ लामबंद होंगे.
जहां तक तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी का सवाल है, वह बंगाल में भाजपा-संघ की बढ़ती सियासी घेरेबंदी से स्वयं ही परेशान हैं.
भावी विपक्षी मोर्चेबंदी में शामिल होने के अलावा उनके पास कोई और विकल्प नहीं है.