बाल ठाकरे की शिवसेना हिंदुत्व की राजनीति करने के बाद भी महाराष्ट्र तक क्यों सिमटी रही?
बाल ठाकरे अपनी बेबाकी और कट्टर हिंदुत्व की राजनीति के चलते मशहूर थे और उनकी लोकप्रियता का दायरा मुंबई और महाराष्ट्र के बाहर भी था. इसके बावजूद शिवसेना उत्तर भारत में राजनीतिक ताक़त क्यों नहीं बन सकी?
बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना की पहचान पूरे देश भर में रही है. ठाकरे अपनी बेबाकी और कट्टर हिंदुत्व की राजनीति के चलते मशहूर थे और उनकी लोकप्रियता का दायरा मुंबई और महाराष्ट्र के बाहर भी था.
एक दौर ऐसा भी था जब भारत की कई राज्यों में बाल ठाकरे के प्रशंसक मौजूद थे. बाल ठाकरे ख़ुद भी केंद्रीय राजनीति में अहम बने रहना चाहते थे, लेकिन इन सबके बाद भी उनकी पार्टी महाराष्ट्र के बाहर अपनी कोई जगह नहीं बना सकी.
देश के पांच राज्यों में इस वक़्त चुनावी चर्चाओं का दौर चल रहा है. अगले महीने उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं. इन चुनावों में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना उत्तर प्रदेश और गोवा में चुनाव लड़ने के लिए तैयार है. गोवा में शिवसेना ने एनसीपी के साथ गठबंधन भी किया है.
वैसे यह जानना दिलचस्प है कि हाल ही में दादरा-नगर हवेली से लोकसभा का चुनाव जीतने वाली कलाबाई देलकर, महाराष्ट्र से बाहर निर्वाचित होने वाली शिवसेना की पहली सांसद हैं. पार्टी के नेता संजय राउत भी राष्ट्रीय राजनीति में पार्टी की भूमिका पर बात कर रहे हैं. यानी पार्टी राज्य से बाहर अपने आधार को बढ़ाने की कोशिश करती दिख रही है.
ऐसे में लोगों को इस पर अचरज हो सकता है कि पहले बाल ठाकरे का करिश्मा महाराष्ट्र की सीमा के बाहर दूसरे राज्यों तक क्यों नहीं पहुंच सका?
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हिंदू बहुल राज्यों में सफलता से महरूम
ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र से बाहर शिवसेना ने अपनी क़िस्मत नहीं आज़माई हो. शिवसेना पहले ही उत्तर भारत और हिंदू बहुल राज्यों दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में चुनाव लड़ चुकी है. इसके अलावा गोवा और कर्नाटक के बेलगाम में भी पार्टी ने अपनी क़िस्मत आज़माई है. साथ ही शिवसेना जम्मू-कश्मीर और पश्चिम बंगाल में भी चुनाव लड़ चुकी है.
दरअसल उत्तर भारत में बाल ठाकरे को लेकर हमेशा आकर्षण रहा. आज भी इन राज्यों में उनके ढेरों प्रशंसक मौजूद हैं. यही वजह है कि इन राज्यों में शिवसेना ने अपनी पहुंच बनाने की कोशिशें भी कीं, लेकिन इन राज्यों में न तो कभी पार्टी का संगठन मज़बूत हो पाया और न ही कभी उसे चुनावी सफलता ही मिली.
इसके चलते ही राष्ट्रीय प्रभाव के बावजूद, शिवसेना महाराष्ट्र तक सीमित पार्टी बनी रही.
वैसे यह जानना भी दिलचस्प है कि महाराष्ट्र के बाहर शिवसेना के पहले विधायक उत्तर प्रदेश से चुने गए थे.
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'बाहुबली' पवन पांडे शिवसेना विधायक
शिवसेना को यह कामयाबी 1991 में मिली थी, जब राम जन्मभूमि आंदोलन ज़ोरों पर था. पूरे देश में अयोध्या राम मंदिर के मुद्दे पर हिंदुत्व की हवा चलने लगी थी. उस समय बाल ठाकरे हिंदुत्व की राजनीति का प्रमुख चेहरा बनकर उभरे थे.
इस पृष्ठभूमि के ख़िलाफ़, उत्तर प्रदेश के एक 'बाहुबली' पवन पांडे, शिवसेना के टिकट पर 1991 के विधानसभा चुनाव में अकबरपुर निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए थे. यह शिवसेना के लिए बड़ी उपलब्धि थी.
पवन पांडे जब विधायक थे तब शिवसेना ने उत्तर प्रदेश में अपना विस्तार करने की कोशिशें शुरू की थीं. शिवसेना ने लखनऊ, बलिया, वाराणसी और गोरखपुर में स्थानीय निकाय चुनाव भी जीते. पवन पांडे उत्तर प्रदेश में शिवसेना का चेहरा बने. लेकिन ये सिलसिला ज़्यादा दिन तक नहीं चल पाया.
पांडे अगला चुनाव हार गए. बाद में, जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों, 'बाहुबली' नेताओं पर नकेल कसने के लिए एक अभियान शुरू किया. इस अभियान से बचने के लिए पवन पांडे मुंबई पहुंच गए.
उन्होंने मुंबई में कुछ राजनीतिक दबदबा स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन उस समय शिवसैनिक रहे उत्तर भारतीय नेता संजय निरुपम की मौजूदगी के चलते यह संभव नहीं हो पाया. आख़िरकार पांडे बसपा में शामिल हो गए. बाद में जब शिवसेना ने उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ा, तो उन्हें कभी सफलता नहीं मिली.
शिवसेना और 90 का दशक
अयोध्या आंदोलन के माहौल में शिवसेना ने राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार के लिए अपने दरवाज़े खोल दिए थे. हिंदुत्व की राजनीति का असर हिंदी पट्टी के राज्यों में दिखाई देने लगा था और इसी वजह से शिवसेना की पहचान भी बनने लगी थी.
राम जन्म भूमि आंदोलन के दौरान बाल ठाकरे को लेकर पूरे देश में कौतूहल था, यह नब्बे के दशक का वह दौर था जब शिवसेना महाराष्ट्र की सत्ता पर क़ाबिज़ होने की कोशिश कर रही थी.
'बाल ठाकरे एंड द राइज़ ऑफ़ शिव सेना' पुस्तक के लेखक और पत्रकार वैभव पुरंदरे कहते हैं, "शिवसेना के बारे में उत्सुकता तब और बढ़ गई जब पाकिस्तान में लोगों ने 'ठाकरे-ठाकरे' करना शुरू कर दिया था."
यह वह समय था जब पूरे देश में शिवसेना के मराठी अस्मिता, आक्रामकता, राड़ा संस्कृति यानी गुंडागर्दी की संस्कृति की चर्चा होती थी. इससे पहले भी आपातकाल के दौर में कम्युनिस्ट विरोधी स्टैंड लेने के चलते शिवसेना सुर्ख़ियां बटोरी चुकी थी.
इन सबके बाद भी शिवसेना एक क्षेत्रीय या कहें स्थानीय ताक़त ही थी, मुंबई और ज़्यादा से ज़्यादा ठाणे तक इसका असर था. लेकिन 1985 के बाद, जब बाल ठाकरे ने हिंदुत्व का मुद्दा उठाया, अयोध्या का राम मंदिर का मुद्दा आया और मुंबई दंगे हुए, तब से शिवसेना महाराष्ट्र में तेज़ी से बढ़ी.
यह वह समय था जब बाल ठाकरे, शिवसेना की राष्ट्रीय पहचान के लिए आकर्षित हुए. उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश के विधायक को लिया जा सकता है, जिससे यह ज़ाहिर होता है कि तब बाल ठाकरे के मन में भी राष्ट्रीय राजनीति की आकांक्षाएं रही होंगी.
यही वजह है कि शिवसेना कई राज्यों में चुनावों में शामिल हुई. इन चुनाव परिणामों से शायद शिवसेना को यह एहसास हुआ होगा कि केवल मराठी के नाम पर राष्ट्रीय राजनीति में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है, इसलिए 1993 में उन्होंने हिंदी भाषा में दैनिक 'दोपहर का सामना' शुरू किया और उत्तर भारतीयों का सम्मेलन बुलाना शुरू किया.
सेना को नहीं मिला स्थानीय स्तर पर बड़ा चेहरा
हालांकि, महाराष्ट्र के बाहर शिवसेना को कभी स्थायी सफलता नहीं मिली. दूसरे राज्यों में संगठन स्थिर नहीं रहा. कुछ चुनावों में एकाध शानदार प्रदर्शनों को छोड़कर, कोई भी लगातार जीत हासिल नहीं हुई है. कुछ विश्लेषकों का यह भी मानना है कि इसकी एक वजह यह भी थी कि शिवसेना की सारी नीतियां महाराष्ट्र में सत्ता हासिल करने के लिए थीं और जब उन्हें महाराष्ट्र की सत्ता में हिस्सेदारी मिली तो पार्टी काफ़ी हद तक संतुष्ट हो गई.
उस समय, महाराष्ट्र पर ध्यान केंद्रित किया गया था और एक तरह से शिवसेना ने राष्ट्रीय राजनीति में अपने पांव पसारने का मौका गंवा दिया. पार्टी 1995 में राज्य की सत्ता में आए. इस उद्देश्य को प्राप्त करने के बाद, वे एक रणनीति तैयार कर सकते थे और महाराष्ट्र से बाहर भी विस्तार कर सकते थे, लेकिन पार्टी ने कभी भी वह रणनीति नहीं बनाई. पार्टी के नेता भी राज्य की सत्ता में ही लगे रहे.
वैभव पुरंदरे बताते हैं, "दूसरे राज्यों में पार्टी का कोई स्थानीय चेहरा नहीं था क्योंकि दूसरे राज्यों में किसी बड़े चेहरे का पार्टी से कोई जुड़ाव नहीं था. यह ठीक है कि पार्टी के पास बाल ठाकरे जैसी कद्दावर शख़्सियत मौजूद थी, लेकिन अलग अलग राज्यों में एक संगठन बनाने के लिए एक स्थानीय चेहरे की आवश्यकता होती है. 1999 के फ़िरोज़शाह कोटला मामले के बाद उन्हें दिल्ली में जयभगवान गोयल का एक चेहरा मिला. लेकिन आगे कुछ नहीं हुआ."
पुरंदरे जिन जयभगवान गोयल का ज़िक़्र कर रहे हैं उन्हें महाराष्ट्र के बाहर सबसे चर्चित शिवसैनिक कहा जा सकता है, उन्होंने पार्टी को दिल्ली में संगठित किया और उनका अपना अंदाज़ भी आक्रामक था.
क्यों महाराष्ट्र तक ही सिमट कर रह गई शिवसेना?
जब बालासाहेब ने भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैचों की अनुमति नहीं देने का स्टैंड लिया, तो गोयल और शिवसैनिकों ने दिल्ली के फ़िरोज़शाह कोटला मैदान में पिच को उखाड़ दिया. शिवसेना ने दिल्ली में कई आक्रामक आंदोलन भी किए. लेकिन संगठन लगातार चुनाव जीतने में कामयाब नहीं हुआ.
1999 में शिवसेना के महाराष्ट्र में सत्ता खोने के बाद, फिर से पार्टी का ध्यान महाराष्ट्र पर केंद्रित हो गया. यहां सत्ता हासिल करने की कोशिश ने राष्ट्रीय इच्छा को विफल कर दिया.
वैभव पुरंदरे बताते हैं, "शिवसेना महाराष्ट्र में सत्ता से बाहर हो गई. सीटें कम हो गईं. लगातार 15 साल तक सत्ता से बाहर रहे. इसलिए, बालासाहेब का ध्यान महाराष्ट्र में सीटें बढ़ाने पर था. उनकी उम्र भी बढ़ रही थी."
महाराष्ट्र के बाहर, दूसरे राज्यों में शिवसेना का ध्यान स्थानीय चेहरों को साथ लेने पर बिल्कुल नहीं था, इसका एक उदाहरण गुजरात में मिलता है. शंकर सिंह वाघेला ने नाराज़ होकर भारतीय जनता पार्टी छोड़ दी थी और कहा जाता है कि वे शिवसेना में शामिल होना चाहते थे.
पुरंदरे के मुताबिक, "गुजरात से बीजेपी के इस बड़े नेता का शिवसेना में आना बड़ी बात होती लेकिन बालासाहेब ने उन्हें शिवसेना में नहीं लिया. उनसे कहा गया था कि वह बीजेपी से पुराने रिश्ते ख़राब नहीं करना चाहते हैं. लेकिन गुजरात में शिवसेना ने एक मौका गंवा दिया."
बाल ठाकरे महाराष्ट्र से बाहर नहीं निकले
महाराष्ट्र से बाहर शिवसेना का विस्तार नहीं होने की एक वजह जहां स्थानीय स्तर पर नेताओं का नहीं मिलना रहा वहीं एक दूसरी अहम वजह यह रही है कि बाल ठाकरे ख़ुद कभी पार्टी के विस्तार के लिए महाराष्ट्र से बाहर नहीं निकले.
वे कभी प्रचार करने बाहर नहीं गए. सुरक्षा कारणों से अक्सर ऐसा होता था. लेकिन उनके बाहर निकलने से जो प्रभाव हो सकता था, उससे पार्टी महरूम रह गई. 1999 में एक बार शिवसैनिकों ने दिल्ली में उनका अभिनंदन करने का आयोजन रखा था, लेकिन उन्होंने ख़ुद की जगह उद्धव ठाकरे को भेजा था.
वैभव पुरंदरे बताते हैं, "यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि बालासाहेब ने ख़ुद महाराष्ट्र नहीं छोड़ा था. इससे जो प्रभाव हो सकता था वह नहीं हुआ होगा. वह उनकी प्रसिद्धि का शिखर था. एक बार वह समय चला गया, तो आप ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते. लेकिन उन्होंने रणनीति का विस्तार करने के लिए कुछ नहीं किया. सुरक्षा कारण और कुछ अन्य कारण हो सकते हैं लेकिन तथ्य यह है कि वे बाहर नहीं निकल सके. यह कहा जाना चाहिए कि उनमें दूरदर्शिता की कमी थी."
बीजेपी से गठबंधन के चलते भी नहीं हुआ विस्तार?
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि राष्ट्रीय पार्टी भाजपा के साथ गठबंधन के चलते भी शिवसेना महाराष्ट्र के बाहर अपना विस्तार नहीं कर सकी.
दरअसल उत्तर भारत के जिन इलाकों में बाल ठाकरे का आकर्षण था, जहां उन्हें चुनावी सफलता मिलने की संभावना थी, वही इलाके भाजपा के मुख्य चुनावी क्षेत्र थे.
इसका ज़िक्र उद्धव ठाकरे बाल ठाकरे के जन्मदिन और दैनिक सामना के सालाना जलसे के आयोजन पर किया था.
उन्होंने कहा था कि, "बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के समय हिंदुत्व की राजनीति के बढ़ने का दौर था और हमलोग महाराष्ट्र में रह गए, अगर हिंदुत्व की राजनीति का पूरा फ़ायदा उठाया होता तो हमलोग दिल्ली में होते."
इन राज्यों में बीजेपी भी हिंदुत्व के मुद्दे पर राजनीति कर रही थी. अगर शिवसेना ने इन इलाकों में विस्तार करने की कोशिश की होती, तो भाजपा के साथ संघर्ष अपरिहार्य था. यह भी एक वजह थी जिसके चलते शिवसेना ने ख़ुद को महाराष्ट्र तक सीमित रखा.
इस पहलू पर वैभव पुरंदरे ने लिखा है, "यह नहीं कहा जा सकता है कि भाजपा के कारण शिवसेना का विस्तार महाराष्ट्र के बाहर नहीं हुआ. वह भी तब जब भाजपा की जड़ें बहुत पुरानी हैं. बालासाहेब के दिमाग़ में यह विचार रहा होगा कि बहुत अधिक बाहर न जाएं. अन्यथा भाजपा के साथ संबंध ख़राब हो गया होता. प्रमोद महाजन और लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनके व्यक्तिगत संबंध थे."
लेकिन मौजूदा समय में शिवसेना और बीजेपी के रास्ते अलग हो चुके हैं. शिवसेना अब कांग्रेस, राकांपा, तृणमूल जैसे नए सहयोगियों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में भाग ले रही है.
उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना बाल ठाकरे के अंदाज़ से अलग राजनीति करती दिख रही है. ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या उद्धव की नई शिवसेना महाराष्ट्र के बाहर विस्तार करेगी और राष्ट्रीय राजनीति में अपना प्रभाव छोड़ पाएगी? ज़ाहिर है इसका जवाब आने वाले समय में ही मिलेगा.
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