बिना मर्द के मां बनना क्यों पसंद किया आशिमा ने
"चुना हुआ मातृत्व ही असली आज़ादी है. अगर आप के पास बच्चा पैदा करने की आज़ादी है तो ये स्वतंत्रता आपके मातृत्व के तजुर्बे को एक नया आयाम देती है. आज की महिलाएं अन्य तरीक़ों से मां बनने का फ़ैसला कर सकती हैं. वो ये चुनाव कर भी रही हैं. वो भी बिना किसी पछतावे के." यह कथन अमरीका की महिलावादी लेखिका बेट्टी फ्राइडन का है.
"चुना हुआ मातृत्व ही असली आज़ादी है. अगर आप के पास बच्चा पैदा करने की आज़ादी है तो ये स्वतंत्रता आपके मातृत्व के तजुर्बे को एक नया आयाम देती है. आज की महिलाएं अन्य तरीक़ों से मां बनने का फ़ैसला कर सकती हैं. वो ये चुनाव कर भी रही हैं. वो भी बिना किसी पछतावे के." यह कथन अमरीका की महिलावादी लेखिका बेट्टी फ्राइडन का है.
उनकी ऑनलाइन डेटिंग प्रोफ़ाइल में लिखा है कि वो चाय के साथ केक लेना पसंद करती हैं. उन्हें सेप्टिक टैंक और अंधेरे से अजब क़िस्म का डर लगता है. वो एक बच्चे की सिंगल मदर हैं. वो ऑनलाइन दुनिया में सिर्फ़ उन्हीं लोगों के साथ जुड़ना पसंद करेंगी, जो 'शादी करने के इच्छुक' हैं.
मुंबई की रहने वाली 45 वर्ष की फ़िल्मकार आशिमा छिब्बर कहती हैं कि उन्होंने 43 वर्ष की उम्र में आईवीएफ़ तकनीक की मदद से बच्चा पैदा किया और इसके लिए उन्हें लोगों की पूरी फ़ौज की मदद लेनी पड़ी. लेकिन, इस उम्र में बच्चा पैदा करने की ये वाजिब क़ीमत है.
आशिमा कहती हैं, "मैं नहीं चाहती थी कि मैं किसी मर्द का इंतज़ार करूं, जो आकर मां बनने का मेरा ख़्वाब पूरा करे. एक महिला के अंडाणुओं के बच्चे में विकसित होने की एक क़ुदरती मियाद होती है."
अंधेरी की एक बहुमंज़िला इमारत में दो खटोले हैं. ढेर सारे खिलौने हैं. परियों की दुनिया का अहसास कराने वाली लाइट है. बच्चों की देखभाल करने वाली दो नौकरानियां हैं. एक महिला हैं. जो कहती हैं कि वो बच्चे की ज़िंदगी और मोहब्बत वाली ज़िंदगी तब तक अलग रखेंगी, जब तक उन्हें अपनी पसंद का मर्द नहीं मिल जाता है.
मां बनने की चाहत
वो कहती हैं कि, "आज बच्चों की परवरिश में मदद करने वालों का चुनाव अपने लिए जीवन साथी तलाशने से ज़्यादा अहम है."
आशिमा के बच्चे की देखभाल करने वाली दो नौकरानियां और दोस्तों की लंबी-चौड़ी फ़ौज ही उन का परिवार है. आशिमा बताती हैं कि उन की मां कई बार हैदराबाद से अपनी नानी वाली ज़िम्मेदारी निभाने उन के पास आती हैं.
आशिमा ने 40 वर्ष की उम्र में आईवीएफ़ तकनीक के ज़रिए मां बनने की कोशिशें शुरू की थीं. उन्हें इस में दो बरस लगे. 43 साल की उम्र में आशिमा ने एक बच्चे को जन्म दिया. आशिमा छिब्बर यशराज फ़िल्म्स की फ़िल्म "मेरे डैड की मारुति" की निर्देशक रही हैं.
पिछले साल मई महीने में 'मां हूं ना' नाम की सिरीज़ के ज़रिए मुंबई की रहने वाली अकेली माओं का सम्मान किया गया था. इस सिरीज़ के एक एपिसोड में आशिमा ने भी शिरकत की थी. उस एपिसोड का नाम था-लड्डुओं का एक डिब्बा. इस में आशिमा ने अकेली मां के तौर पर आईवीएफ़ तकनीक से बच्चा पैदा करने के अपने फ़ैसले के बारे में अपने अनुभव साझा किए थे.
आशिमा कहती हैं कि, "मैं बच्चा पैदा करना चाहती थी. और, समय बड़ी तेज़ी से मेरे हाथ से निकल रहा था."
जुलाई 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया था कि, "जब कोई अविवाहित या सिंगल मदर बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र के लिए अर्ज़ी देती है. तो, ये सर्टिफ़िकेट उस के हलफ़नामे के आधार पर जारी कर दिया जाना चाहिए. उस पर इस बात का दबाव नहीं बनाया जाना चाहिए कि वो अपने बच्चे के पिता का नाम ज़ाहिर करे. आज के समाज में जहां, कई महिलाएं अकेले ही मां बनने और अपने बच्चे की परवरिश करने का फ़ैसला कर रही हैं. तो ऐसे में हमारे उन पर उन की इच्छा के ख़िलाफ़ ये दबाव बनाने का कोई मक़सद नहीं समझ में आता कि उन्हें अपने बच्चे के पिता का नाम बताने को बाध्य किया जाए."
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सर्वोच्च अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा था कि इस बच्चे को अपनाने को लेकर या तो पिता इच्छुक नहीं है, या फिर उसे बच्चे की कोई फ़िक्र नहीं है. जो किसी आम परिवार में देखने को मिलती है.
हालांकि, आम तौर पर वो महिलाएं ही आईवीएफ़ तकनीक से अकेले मां बनने का फ़ैसला कर रही हैं, जो समाज के ऊंचे और धनाढ्य तबक़े से आती हैं. लेकिन, आज औरतों के कामकाजी होने के साथ उन की आर्थिक आज़ादी भी बढ़ी है. ऐसे में परिवार की बनावट को लेकर संवाद में भी कई नए आयाम जुड़े हैं. समाज में भी सिंगल मदर की स्वीकार्यता बढ़ी है. हालांकि ये अभी सीमित स्तर पर ही है और बहुत हिचक के साथ किसी स्त्री के अकेले मां बनने के फ़ैसले को समाज में तस्लीम किया जा रहा है.
आशिमा छिब्बर की ही मिसाल लीजिए. जब वो गर्भवती थीं, तो मुंबई में उन की मकान मालकिन ने कहा कि उन्हें आशिमा के इस बहादुरी भरे फ़ैसले पर नाज़ है. आशिमा ने ख़ुद के अकेले मां बनने का फ़ैसला अपने मां-बाप को भी तब बताया था जब उन्हें गर्भ धारण किए हुए पांच महीने से ज़्यादा वक़्त बीत गया था. आशिमा के मां और पिता ने उन के फ़ैसले पर कोई ऐतराज़ नहीं किया. उन के हाथ से मां बनने का मौक़ा शारीरिक रूप से निकला जा रहा था. और, आशिमा के पास मां बनने के लिए मिस्टर राइट के मिलने का और इंतज़ार कर पाना मुश्किल होता जा रहा था.
आशिमा छिब्बर की ज़्यादातर परवरिश हैदराबाद में हुई थी. उन्होंने फ़िल्म बनाने की पढ़ाई ब्रिटेन में रह कर की थी. वो कहती हैं कि, "मां बनने की ख़्वाहिश हमेशा से मेरे मन में थी. इसीलिए मैं ने सिंगल मदर बनने का फ़ैसला लिया."
उन्होंने आईवीएफ़ तकनीक से मां बनने के लिए शुक्राणुओं के दानदाताओं के प्रोफ़ाइल की पड़ताल की. उन का ज़ोर सब से फिट और तालीम याफ़्ता लोगों पर था. जब उन्होंने आख़िरी दो स्पर्म डोनर के नाम तय कर लिए. तो, डॉक्टर ने आशिमा को सलाह दी कि वो उस शख़्स को चुनें, जो दोनों में ज़्यादा लंबा हो.
आशिमा कहती हैं कि, "आप को पता नहीं होता कि आप का बच्चा कैसा दिखेगा."
आशिमा ने अपने बेटे का नाम शिव रखा है. वो उम्र के दूसरे साल में है. उस का रंग गेहुंआ है और आंखें बड़ी-बड़ी हैं. शिव के पैदा होने से पहले आशिमा इस बात को लेकर आशंकित थीं कि उन का बच्चा दिखने में कैसा होगा. जब वो स्पर्म डोनर के प्रोफ़ाइल का चुनाव कर रही थीं, तो उन्हें शुक्राणुओं के दानदाताओं की तस्वीरें नहीं दिखाई गई थीं. बस, उन के बारे में बुनियादी जानकारी देने वाले रिज़्यूमे ही आशिमा को दिए गए थे.
अकेली मां के तौर पर अनुभव
आशिमा कहती हैं कि, "जब आप एक जोड़े होते हैं, तो आप को पता होता है कि आप का होने वाला बच्चा मां और पिता का मिला-जुला रूप होगा. या फिर अकेले मां या बाप पर जाएगा. लेकिन, मेरा बेटा मुझे रोज़ चौंकाता है. मेरे ज़हन में इस बात का कोई तसव्वुर नहीं है कि बड़ा हो कर वो कैसा दिखेगा."
आशिमा के लिए पिछला एक साल बहुत तसल्लीबख़्श और ख़ुशनुमा रहा है. हालांकि किसी भी महिला के लिए अकेले बच्चे की परवरिश करना बहुत अच्छा विकल्प तो नहीं है. लेकिन, वो कहती हैं कि इंसान को अपनी नियति को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करना चाहिए.
मसलन, बच्चा पैदा करने का फ़ैसला. आशिमा को ये फ़ैसला अकेले ही करना था. या फिर बच्चे को टीका लगवाने के लिए ले जाना. जब शिव को इंजेक्शन लगाया जाता है, तो आशिमा बहुत घबरा जाती हैं. बच्चे के साथ वक़्त गुज़ारने के सिंगल मदर के तजुर्बे एकदम अलग होते हैं.
मसलन, जब वो उस का पासपोर्ट बनवाने के लिए पासपोर्ट ऑफ़िस ले गईं, तो उन्हें कहा गया कि वो बच्चे को गोद लेने वाले विकल्प पर सही का निशान लगाएं. क्योंकि उन के फॉर्म में आईवीएफ़ से बच्चा पैदा होने वाला विकल्प ही नहीं था. लेकिन, आशिमा ने इस बात पर ज़ोर दिया कि शिव के पासपोर्ट के फॉर्म में मां के तौर पर उन्हीं का नाम हो क्यों कि उसे जन्म देने वाली मां वही हैं.
हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने कहा था कि क़ुदरत ने मर्दों को शिकार करने और मेहनत करने का हुनर दिया है. लेकिन, ईश्वर ने पुरुषों को घर का काम संभालने की क्षमता से नहीं नवाज़ा है. भागवत ने कहा था कि मर्दों के मुक़ाबले औरतें हर तरह का काम कर सकती हैं. भागवत ने अपने इस बयान से घर के काम-काज में पुरुषों के सहयोग को मानने से ही मना कर दिया था.
हालांकि आशिमा छिब्बर की अपनी ज़िंदगी, बच्चा पैदा होने के बाद पूरी तरह से बदल गई है. उन्होंने मल्टीटास्किंग यानी एक साथ कई काम करने सीखे हैं. इस में वो अपने कर्मचारियों की भी मदद लेती हैं. आशिमा मानती हैं कि समाज में 'अकेली मां' के लिए ये सहयोग मिलना बहुत महत्वपूर्ण है.
भारत में आम सामाजिक धारणा ये है कि शादी का संस्कार किसी महिला के दूसरे जीवन की शुरुआत होने जैसा है. ऐसे में किसी महिला का अकेले रहना और बच्चा पैदा कर के उसे पालना, आसान चुनाव नहीं है.
लेकिन, शहरों में रहने वाली औरतों को आर्थिक आज़ादी हासिल करने से ऐसे मुश्किल फ़ैसले लेने की ताक़त मिली है. इन फ़ैसलों के ज़रिए ये महिलाएं, शादी कर के घर बसाने जैसी घिसी-पिटी लक़ीरों के दायरे से ख़ुद को आज़ाद कर रही हैं. और इस तरह के साहसी क़दमों से महिलाएं तमाम सामाजिक पाबंदियों से भी ख़ुद को मुक्त कर रही हैं.
आशिमा जैसी अकेली माएं ऐसे साहसिक फ़ैसले लेकर यौन संबंधों की आज़ादी से लेकर किसी अन्य तरह के संबंध की स्वतंत्रता हासिल करने के अपने अधिकार का उपयोग कर रही हैं. उन्हें अब ये आज़ादी हासिल है कि वो सरोगेसी या आईवीएफ़ तकनीक से अकेले ही मां बन सकती हैं. उन्हें मां बनने के लिए मर्दों की हुकूमत वाले समाज की थोपी हुई बंदिशों में ख़ुद को बांधने की ज़रूरत अब नहीं रही. क्योंकि इन बंदिशों का मतलब ये होता था कि उन्हें समाज द्वारा महिलाओं के लिए तय किरदार ही निभाने होंगे, जो वो करना नहीं चाहतीं.
वैसे, जहां भारतीय समाज में आम तौर पर मर्दों का बोलबाला है. वहां, पर उदारीकरण के बाद से कई क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिल रहे हैं. पहली बात तो ये कि महिलाओं के बीच शिक्षा को लेकर जागरूकता भी बढ़ी है और इस का दायरा भी बड़ा हुआ है.
2011 की जनगणना के मुताबिक़, महिलाओं की कुल आबादी में पढ़ी-लिखी स्त्रियों की तादाद, पिछली जनगणना के मुक़ाबले 11.79 प्रतिशत बढ़ कर 65.46 प्रतिशत तक पहुंच गई थी. दो दशक पहले जहां केवल 28.5 फ़ीसद परिवार शहरों में रहते थे. वहीं अब देश की 34 प्रतिशत आबादी शहरों में आबाद है. 2011 की ही जनगणना के मुताबिक़, 2001 से 2011 के बीच महिलाओं की आबादी 18 फ़ीसद बढ़ गई.
इन के बीच अकेली महिला यानी-तलाक़शुदा, पति से अलग रहने वाली या कभी शादी न करने वाली महिलाओं की संख्या 27 प्रतिशत बढ़ गई है. और अकेली महिलाओं के इस दर्जे में 35 से 44 साल उम्र की महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ कर 68 प्रतिशत पहुंच गई है. ये अभूतपूर्व स्थिति है. एक ऐसे देश में जहां शादी का जश्न ज़ोर-शोर से मनाया जाता है.
और जहां परिवार की पुरानी संरचना में एक मर्द, उसकी पत्नी और बच्चे होते हैं. वहां पर अकेली महिलाओं की ये बढ़ती तादाद काफ़ी अहम है. क्योंकि ये आंकड़े ख़ुशहाल ज़िंदगी के लिए शादी करने की सामाजिक शर्त को चुनौती देते हैं.
साल 2012 में जस्टिस के. एस. पुट्टास्वामी ने माना था कि महिलाओं को बच्चे पैदा करने का चुनाव करने का संवैधानिक अधिकार है. जो उन्हें संविधान के अनुच्छेद निजी स्वतंत्रता के अधिकार के तहत हासिल होता है.
लेकिन, 2019 में लाया गया सरोगेसी नियामक विधेयक ये शर्त रखता है कि केवल क़ानूनी रूप से विवाहित उभयलिंगी जोड़े ही सरोगेसी का विकल्प अपनाने के हक़दार हैं. इस प्रस्तावित बिल के दायरे से अकेले रहने वाले व्यक्तियों, तलाक़शुदा लोगों, लिव-इन सहयोगियों, विधवाओं, विधुरों और समलैंगिकों को अलग रखा गया है.
इस विधेयक में ये भी कहा गया है कि सरोगेसी का विकल्प आज़माने वाले जोड़ों को ये सत्यापित कराना होगा कि वो पांच बरस या इस से ज़्यादा समय से शादीशुदा हैं. और वो 'बच्चे पैदा करने में असमर्थ' हैं. तभी उन्हें जनहित के लिए सरोगेसी के लिए तैयार लोगों की मदद लेने का अधिकार होगा.
साथी की ज़रूरत
आशिमा छिब्बर मानती हैं कि उन्हें एक साथी की ज़रूरत है. और, वो शादी से ही पूरी हो सकती है. हालांकि उन के मन में मां बनने की ख़्वाहिश हमेशा से थी. ऐसे में उन्हें ये फ़ैसला करना था कि वो शादी पहले करेंगी या पहले बच्चा पैदा करेंगी. और जब उन्होंने अपनी आर्थिक चुनौतियों से छुटकारा पा लिया. और जज़्बाती मुश्किलों से भी वो आज़ाद हो गईं.
तो फिर आशिमा ने वही किया, जो वो हमेशा से चाहती थीं. आशिमा बताती हैं कि गर्भवती होने के बाद से लेकर बच्चे की पैदाइश से पहले के आख़िरी दिनों तक वो ख़ामोशी से उल्टियां करती थीं और सेहत से जुड़ी मुश्किलों का सामना करती थीं. अकेलापन तो महसूस होता था. मगर, उन्होंने आहिस्ता-आहिस्ता ख़ुद को इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार किया और अपने आप को संभाला.
अब एक बच्चा होने के बाद एक आज़ाद और अकेली महिला के तौर पर उन की ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गई है. पहले वो देर तक घर से बाहर रह सकती थीं. लेकिन, अब उन्हें घर पर ज़्यादा वक़्त बिताना होता है. वो ये सुनिश्चित करती हैं कि वो दूसरों के एहसासों को बेहतर ढंग से समझ सकें. उन्हें बच्चे की जिस क़दर ख़्वाहिश थी.
और जितने योजनाबद्ध तरीक़े से उन्होंने मां बनने का ख़्वाब पूरा किया, उस से आशिमा में बड़ा बदलाव आया है. उन के बच्चे के पास जितने खिलाने हैं, उन में से ज़्यादातर दोस्तों से तोहफ़े में मिले हैं. आशिमा को हमेशा ऐसे लोग मिलते हैं, जो उन के साहसी फ़ैसले की तारीफ़ करते हैं. आशिमा को उम्मीद है कि वक़्त के साथ साथ परिवार की जो संकुचित परिभाषा समाज ने तय की है, उस का दायरा बदलेगा. और उन के जैसे अकेले मां या पिता बनने वालों को भी परिवार माना जाने लगेगा.
मुंबई में आशिमा के अपार्टमेंट की खिड़की से आप पूरे शहर का दीदार कर सकते हैं. इसकी बुलंद इमारतों और छोटी झोपड़ियों पर नज़र डाल सकते हैं. तब आप को एहसास होता है कि इस दुनिया में सब के लिए जगह है.
जुहू चौपाटी पर, आशिमा अपने बच्चे को इशारे से डूबते हुए सूरज को दिखाती हैं. बच्चे के साथ ऐसे बाहर निकलना आशिमा के लिए बहुत ख़ास है. वो अपने बच्चे को हर जगह ले जाती हैं, ताकि वो उन की ज़िंदगी का अटूट हिस्सा बन जाए.
जब आशिमा अपने बेटे के सामने बिस्किट को हिलाते हुए ललचाती हैं, तो उन की मां कनखियों से उन्हें देख कर मुस्कुराती हैं.
और अगर आशिमा को ऐसा कोई जीवन साथी नहीं मिलता है, जो उन्हें उनके असल रूप में स्वीकार करे और उन्हें वैसा ही पसंद करे जैसी वो हैं. तो, उन्हें पता है कि उन्हें अपने बेटे को समय आने पर बताना होगा कि उनके परिवार में वही दो लोग हैं.
आशिमा ने ऐसे परिवारों की कई मिसालें देखी हैं. पिछले महीने, वो एक ऐसे ही परिवार के साथ छुट्टियों पर गई थीं. उस परिवार में दो समलैंगिक व्यक्तियों का जोड़ा था. जिसने अपनी सब से अज़ीज़ महिला मित्र को सरोगेट मदर बना कर बच्चा पैदा किया था. वो फ्रांस में एक साथ, एक ही इमारत में रहते हैं. जहां दोनों समलैंगिक मर्द ऊपरी मंज़िल पर रहते हैं. तो उसी इमारत की निचली मंज़िल पर वो महिला रहती है. ऐसे में उनके के बच्चे के पास दो घर हैं.
दुनिया बदल रही है. और शायद आज जो बातें सब से ज़्यादा अहम हैं, वो हैं मोहब्बत, हिफ़ाज़त और ख़ुलापन.
आशिमा कहती हैं कि, "दुनिया में हर तरह के परिवार हैं. हम भी एक परिवार हैं. मेरी ज़िंदगी के पिछले 13 महीने बड़े ख़ुशनुमा रहे हैं."