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जब गुजराती युवाओं ने अपना नाम ‘आज़ाद’ रखा

हम में से बहुत से लोग भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद के उपनाम के बारे में नहीं जानते होंगे.

13 साल की उम्र में चंद्रशेखर ने अपने उपनाम तिवारी को हटाकर आज़ाद जोड़ लिया था.

चंद्रशेखर आज़ाद से प्रेरित होकर गुजरात के युवाओं ने 'आज़ाद', 'कामदार' और 'बादशाह' जैसे नाम चुने.

वडोदरा में कर्जन और शिनोर के लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया था.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर 'अंबालाल गांधी और रसिक भाई आज़ाद' नामक किताब लिखने वाले ललित राणा अपनी 

By BBC News हिन्दी
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प्रदर्शन
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प्रदर्शन

हम में से बहुत से लोग भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद के उपनाम के बारे में नहीं जानते होंगे.

13 साल की उम्र में चंद्रशेखर ने अपने उपनाम तिवारी को हटाकर आज़ाद जोड़ लिया था.

चंद्रशेखर आज़ाद से प्रेरित होकर गुजरात के युवाओं ने 'आज़ाद', 'कामदार' और 'बादशाह' जैसे नाम चुने.

वडोदरा में कर्जन और शिनोर के लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया था.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर 'अंबालाल गांधी और रसिक भाई आज़ाद' नामक किताब लिखने वाले ललित राणा अपनी किताब में ज़िक्र करते हैं कि रसिक शाह ने एक दिन अपना नाम बदलकर 'रसिक आज़ाद' कर लिया.

रसिक भाई आज़ाद गांधी के अहिंसा आंदोलन को मानने वाले थे. वडोदरा ज़िले के चोरंडा गांव में वह एक अध्यापक थे. अंबालाल गांधी चोरंडा में रहते थे और वह स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में सक्रिय थे. अंबालाल गांधी और रसिक भाई आज़ाद एक ही विचारधारा को मानते थे.

अन्य नेताओं की तरह चंद्रकांत और पद्माबेन ने भी 'आज़ाद' उपनाम को अपना लिया था.

चंद्रकांत और पद्माबेन आज़ाद मज़दूर संघ के नेता थे और मज़दूरों के अधिकार के लिए काम करते थे.

इस इलाक़े में कई लोगों ने अपने असली नामों को छोड़कर 'आज़ाद', 'कामदार' और 'बादशाह' जैसे उपनामों को अपनाया

1942 में जब पूरा देश भारत छोड़ो आंदोलन की गिरफ़्त में था तब वडोदरा के लोग ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ अपने तरीक़े से संघर्ष कर रहे थे.

18 अगस्त 1942

देश में जब आठ अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई तो गिरफ़्तारियां होने लगीं.

'अंबालाल गांधी और रसिक भाई आज़ाद' में इसका ज़िक्र है कि ब्रिटिश शासन का विरोध कर रहे वडोदरा के लोग लगातार जुलूस निकाल रहे थे.

इन जुलूसों में शामिल रहने वाले लोगों के ख़िलाफ़ ब्रिटिश शासन और वडोदरा रियासत ने वॉरंट जारी किए. 18 अगस्त 1942 की दोपहर को नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया और विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया.

लाठी और बंदूकों से लेस पुलिसकर्मियों को वडोदरा की सड़कों पर तैनात किया गया.

'अंबालाल गांधी और रसिक भाई आज़ाद' की किताब के मुताबिक़, भारत छोड़ो आंदोलन के तहत वडोदरा के क़रीब अदास गांव में एक प्रदर्शन आयोजित किया गया. वडोदरा से बहुत से युवाओं ने इसमें भाग लिया और पुलिस फ़ायरिंग में छह छात्रों की जान गई.

वडोदरा के कोटी पोल (गली) में लाठी चार्ज और फ़ायरिंग हुई जिसमें दो युवा मारे गए थे.

इन युवाओं की याद में वडोदरा और आणंद के बीच अदास रेलवे स्टेशन के नज़दीक एक स्मारक बनाया गया है.

डाकखाने को आग लगा दी गई

वडोदरा जनजागृति अभियान के संयोजक मनहर शाह ने बीबीसी गुजराती सेवा से कहा कि फ़ायरिंग और लाठीचार्ज के ख़िलाफ़ वडोदरा ज़िले में कई प्रदर्शन हुए.

उन्होंने कहा, "शिनोर गांव के स्कूल और कॉलेजों में छात्रों ने जाना बंद कर दिया और उन्होंने विरोध मार्च आयोजित किया. प्रदर्शन में भाग लेने वाले लोगों पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया."

"प्रदर्शनकारियों ने पुलिस स्टेशन पर पथराव किया और गांव के डाकखाने को आग लगा दी."



"हिंसक प्रदर्शनों से सरकार गुस्से में आ गई और गायकवाड़ सरकार से मदद मांगते हुए वडोदरा में सेना भेजने का फ़ैसला लिया. स्थानीय लोगों ने सरकार के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपनी रणनीति तैयार की." रेल की पटरियों को नुकसान पहुंचाया गया.

वडोदरा राज्य प्रजा मंडल ने 'पुलिस जुलमो नी काली कथा' नामक एक किताब प्रकाशित की जिसमें ज़िक्र है कि 21 अगस्त को अंबालाल गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे लोग मिले.

किताब में लिखा है कि 22 अगस्त 1942 को लोगों को पता चला कि ब्रिटिश सेना साढ़े दस बजे शिनोर गांव पहुंचने वाली है जिसके बाद उन्होंने गांव में आग लगा दी.

किताब में कहा गया है कि सेना गांव तक न पहुंच पाए इसके लिए लोगों ने रेल की पटरियां तोड़ दीं.

भारथली से शिनोर तक की रेल की पटरियों को तोड़ दिया गया. रेलवे स्टेशन पर लॉग बुक्स को आग लगा दी गई और स्टेशन मास्टर को बांध दिया गया.

ब्रिटिश सेना और गायकवाड़ सरकार के जवानों ने शिनोर तक पहुंचने के लिए ट्रेन ली लेकिन उन्हें कर्जन स्टेशन से वापस वडोदरा लौटना पड़ा क्योंकि वहां कर्जन से आगे कोई पटरी नहीं थी.

लेकिन 'पुलिस जुल्मो नी काली कथा' किताब में लिखा है कि पुलिसकर्मियों को शिनोर भेजा गया था.

'रसिक, आज़ाद ने छोड़ दी सरकारी नौकरी'

वडोदरा के रसिक भाई आज़ाद और अंबालाल गांधी की जोड़ी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी.

'अंबालाल गांधी और रसिक भाई आज़ाद' और 'ओजस्वी आज़ाद' नामक किताबें प्रकाशित करने वाले मनहर शाह कहते हैं, "असहयोग आंदोलन में शामिल होने के बाद रसिक आज़ाद ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी और चंद्रशेखर आज़ाद की तरह अविवाहित रहे."

उन्होंने कहा, "1942 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए गांधीजी ने विनोबा भावे को चुना और इसी तरह से पहले व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए विनोबा भावे ने रसिक आज़ाद को चुना."

वडोदरा के स्वतंत्रता संग्राम में महर्षि अरविंद की भूमिका

अब एमएस विश्वविद्यालय के नाम से पहचाने जाने वाले बड़ोदा कॉलेज में महर्षि अरविंद दर्शनशास्त्र पढ़ाया करते थे. वडोदरा के लोग जो स्वतंत्रता संग्राम में शामिल थे वे महर्षि अरविंद से प्रेरित थे."

वरिष्ठ पत्रकार और गुजरात साहित्य अकादमी के प्रमुख विष्णु पंड्या बीबीसी गुजराती से कहते हैं, "साल 1905 में अरविंद वडोदरा में थे लेकिन उनका प्रभाव मध्य गुजरात पर था."



"पुराणी भाई (छोटू भाई पुराणी और अंबालाल पुराणी) बम बनाने में माहिर थे और वह इसे बनाना सिखाते भी थे.

'अंबालाल गांधी और रसिक भाई आज़ाद' किताब के अनुसार, बम बनाने के लिए एक बुकलेट प्रकाशित की गई थी, लेकिन ब्रिटिश अधिकारी अंधेरे में रहे क्योंकि इस किताब का नाम 'देसी दवा बनावावनी चोपड़ी' (दवा बनाने की पुस्तिका) था.


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English summary
When the Gujarati youth kept their name Azad
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