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हिटलर के लोग जब आर्य जाति की जड़ें ढूँढ़ने भारत के रास्ते तिब्बत पहुंचे

साल 1939 में जर्मनी से पांच लोगों की एक टीम सिक्किम के रास्ते तिब्बत गई थी. इनका काम उस मिथक का पता लगाना था कि आर्य जाति की जड़ें कैसे तिब्बत से जुड़ती थीं. लेकिन इसका नतीज़ा क्या रहा.

By BBC News हिन्दी
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आर्य जाति की जड़ें ढूंढ़ने 1939 में तिब्बत के ल्हासा पहुंची टीम
ullstein bild Dtl/Getty Images
आर्य जाति की जड़ें ढूंढ़ने 1939 में तिब्बत के ल्हासा पहुंची टीम

साल 1939 में जर्मनी की नाज़ी पार्टी के प्रमुख सदस्य और होलोकॉस्ट (यहूदियों की सामूहिक हत्या) षडयंत्र के प्रमुख वास्तुकार हेनरिक हिमलर ने कथित आर्य जाति की उत्पत्ति को खोजने के लिए पांच सदस्यों की एक टीम को तिब्बत भेजा था.

दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने के एक साल पहले जर्मन लोगों का एक समूह भारत की पूर्वी सीमाओं पर गुप्त रूप से पहुंचा. वो 'आर्य जाति की उत्पत्ति के स्रोत' को खोजने के मिशन पर आए थे.

अडॉल्फ हिटलर का मानना ​​​​था कि 'आर्य' नॉर्डिक लोग लगभग 1,500 साल पहले उत्तर दिशा से भारत आए थे, और आर्यों ने स्थानीय 'अनार्यों' के साथ घुलने-मिलने का 'अपराध' किया था, जिससे पृथ्वी पर दूसरे सभी नस्लों से श्रेष्ठ होने के गुणों को उन्होंने खो दिया.

हिटलर ने नियमित रूप से अपने भाषणों, लेखों और वाद-विवादों में भारतीयों और अपनी स्वतंत्रता के लिए उनके संघर्ष के प्रति गहरी घृणा व्यक्त की. फिर भी हिटलर के शीर्ष सैन्य सहायकों में से एक और एस.एस. नामक सुरक्षा बल के प्रमुख हेनरिक हिमलर के अनुसार, भारतीय उपमहाद्वीप तब भी क़रीब से देखने लायक था. यहीं से इस प्रसंग में तिब्बत का आगमन हुआ.

हिटलर के साथ हेनरिक हिमलर
Keystone/Getty Images
हिटलर के साथ हेनरिक हिमलर

प्रलय से बचने वाले आर्यों की खोज

जो लोग 'गोरा नॉर्डिक श्रेष्ठ जाति' का विचार रखते हुए शपथ लेते थे, वे एक खोए हुए काल्पनिक शहर अटलांटिस की कहानी में यकीन रखते थे. वहां कभी 'सबसे शुद्ध रक्त' के लोग रहा करते थे. माना जाता है कि यह शहर अटलांटिक महासागर में इंग्लैंड और पुर्तगाल के बीच कहीं स्थित था. कथित तौर पर ये पौराणिक द्वीप एक दिन दिव्य वज्रपात की चपेट में आने के बाद डूब गया.

माना जाता है कि वहां से बचने वाले सभी आर्य अधिक सुरक्षित स्थानों पर चले गए. हिमालय, विशेष रूप से तिब्बत को उनकी सुरक्षित शरणस्थली माना जाता था, क्योंकि ये 'दुनिया की छत' के रूप में मशहूर है.

हिमलर ने 1935 में, एक यूनिट बनाई, जिसे 'अहननेरबे' या पैतृक विरासत ब्यूरो कहा जाता था. इसे ये पता लगाने के लिए बनाया गया कि अटलांटिस शहर के लोग बिजली गिरने और प्रलय होने के बाद आख़िर कहां गए, और उस जगह की खोज की जाए, जहां महान आर्य जाति के निशान अभी भी बने हुए हैं.

उन्होंने 1938 में, इस 'खोज अभियान' पर पांच जर्मनों की एक टीम को तिब्बत भेजा.

पांच सदस्यीय जर्मन टीम

टीम के दो सदस्य बाकियों से अलग थे. एक अर्न्स्ट शेफ़र थे, जो 28 साल के एक प्रतिभाशाली जंतु विज्ञानी थे. वे पहले भी दो बार भारत-चीन-तिब्बत सीमा पर जा चुके थे. 1933 की नाज़ी विजय के तुरंत बाद शेफ़र एस.एस. में शामिल हो गए थे. इससे बहुत पहले हिमलर तिब्बत अभियान के लिए उनके संरक्षक बन गए थे.

शेफ़र को शिकार खेलना बहुत प्रिय था और उन्हें बर्लिन के अपने घर में ट्रॉफ़ियां जमा करना बेहद पसंद था. ऐसे ही एक शिकार अभियान के दौरान, दुर्घटनावश ग़लती से उन्होंने अपने पत्नी पर ही गोली चला दी. इससे उनकी पत्नी की मौत हो गई थी.

तिब्बत अभियान के दूसरे प्रमुख व्यक्ति ब्रूनो बेगर थे. वे एक युवा मानवविज्ञानी थे, जो 1935 में एस.एस. में शामिल हुए थे. बेगर तिब्बतियों की खोपड़ी और उनके चेहरे का माप लेते थे और फेसमास्क बनाते थे. उन्होंने अपने काम के बारे में बताया, "इस क्षेत्र में नॉर्डिक नस्ल के अनुपात, उत्पत्ति, महत्व और विकास के बारे में सामग्री एकत्र करना है."

पांच जर्मनों को लाने वाला जहाज मई 1938 की शुरुआत में श्रीलंका के कोलंबो में रूका. वहाँ से, एक अन्य सदस्य को मद्रास (अब चेन्नई) ले जाया गया और एक को कलकत्ता (अब कोलकाता).

पांच जर्मनों को लाने वाला जहाज मई 1938 की शुरुआत में श्रीलंका के कोलंबो में रूका
ullstein bild Dtl/Getty Images
पांच जर्मनों को लाने वाला जहाज मई 1938 की शुरुआत में श्रीलंका के कोलंबो में रूका

अंग्रेज़ उन्हें जासूस समझते थे

भारत के ब्रिटिश अधिकारी यहां आने वाले जर्मनों से सावधान थे और उन्हें जासूस समझते थे. शुरू में वो इन्हें भारत से गुजरने की अनुमति देना नहीं चाहते थे. उस समय के ब्रिटिश-संचालित अख़बार टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने ऐसे ही आरोप लगाने वाली हेडलाइन लगाई: "ए गेस्टापो एजेंट इन इंडिया".

भारत के पूर्वोत्तर राज्य सिक्किम, जो तब एक स्वतंत्र पर्वतीय रियासत थी, के रहने वाले ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारी भी अपने यहां से इन लोगों को तिब्बत नहीं जाने देना चाहते थे.

लेकिन अंत में नाज़ी टीम के संकल्प की जीत हुई. साल के अंत में ये पांचों जर्मन, अपने खच्चरों और सामान से बंधे स्वास्तिक झंडे के साथ तिब्बत में प्रवेश कर गए.

तिब्बत में स्वास्तिक एक जाना-माना चिह्न था. इसे वहां पर "युंगड्रंग" के नाम से जाना जाता था. शेफर और उनकी टीम ने भारत में रहने के दौरान यहां भी इसे कई जगह देखा होगा. हिंदुओं के बीच बहुत पहले से यह अच्छे भाग्य का प्रतीक रहा था. आज भी इसके चिह्न को लोग अपने घरों, मंदिरों, गली के कोनों और अपने टेंपो-ट्रक के पीछे लगाते हैं.

1939 में तिब्बत के स्थानीय लोगों के साथ जर्मन टीम
ullstein bild Dtl/Getty Images
1939 में तिब्बत के स्थानीय लोगों के साथ जर्मन टीम

डॉक्टर और वैज्ञानिक बनकर तिब्बत में रहे

उस दौरान, तिब्बत में हालात बदल रहे थे. 13वें दलाई लामा की 1933 में मृत्यु हो गई थी. नए दलाई लामा केवल तीन साल के थे. इसलिए बौद्ध धर्म को मानने वाले तिब्बत राज्य पर एक रीजेंट का नियंत्रण था. रीजेंट के साथ-साथ आम तिब्बतियों ने उन जर्मनों के साथ काफी अच्छा व्यवहार किया. फेस मास्क बनाने वाले बेगर ने वहां कुछ समय तक स्थानीय लोगों के डॉक्टर के रूप में भी काम किया.

हालांकि तिब्बत के बौद्ध नाज़ियों की विकृत सोच के बारे में नहीं जानते थे. नाज़ियों का मानना था कि हिंदू धर्म की ही तरह बौद्ध धर्म ने भी तिब्बत आने वाले आर्यों को कमजोर बना दिया था और उस वजह से उनकी आत्मा और शक्ति को नुकसान पहुंचा.

वाल्टर वुस्टी
ullstein bild Dtl/Getty Images
वाल्टर वुस्टी

द्वितीय विश्व युद्ध ने थामा अभियान

जब ये लगने लगा कि शेफ़र और अन्य लोग वैज्ञानिक शोध की आड़ में अपने वास्तविक "शोध" के लिए वहां अधिक समय तक रुक सकते हैं, तभी अगस्त 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ जाने से उनके अभियान में कटौती कर दी गई.

उस समय तक बेगर ने 376 तिब्बतियों की खोपड़ी और अन्य विशेषताओं को मापा. उनकी क़रीब दो हज़ार तस्वीरें लीं और "17 लोगों के सिर, चेहरों, हाथों और कानों के नकल बनाए" और "350 लोगों की उंगलियों और हाथों के निशान" लिए.

उन्होंने 2,000 "नृवंशविज्ञान से जुड़ी कलाकृतियों" को भी इकट्ठा किया. टीम के एक अन्य सदस्य ने 18,000 मीटर लंबी ब्लैक-व्हाइट फ़िल्म बनाई और 40,000 तस्वीरें लीं.

चूंकि उनकी यात्रा की अवधि में कटौती हो गई थी, इसलिए हिमलर ने इस टीम के कलकत्ता से उड़ान भरने की व्यवस्था की. इस टीम का विमान जब म्यूनिख उतरा तो उनके स्वागत के लिए वहां स्वयं हिमलर भी उपस्थित थे.

शेफ़र ने तिब्बती से लाए अपने अधिकांश "खजाने" को साल्ज़बर्ग के एक महल में रखा, जहां युद्ध के दौरान वे रहने लगे थे. लेकिन 1945 में मित्र देशों की सेना ने वहां छापा मारा. इस कार्रवाई में अधिकांश तिब्बती चित्र और अन्य सामग्रियां बर्बाद हो गईं.

युद्ध में अभियान के अन्य तथाकथित "वैज्ञानिक परिणामों" के साथ वही हश्र हुआ: वे या तो खो गए या बर्बाद हो गए. और नाज़ियों के अतीत की शर्म के चलते युद्ध थमने के बाद किसी ने भी उन सामग्रियों का पता लगाने की कोशिश नहीं की.

(वैभव पुरंदरे 'वेस्टलैंड बुक्स' से प्रकाशित 'हिटलर एंड इंडिया: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ हिज हेट्रेड फॉर द कंट्री एंड इट्स पीपल' के लेखक हैं.)

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English summary
When Hitler's people reached Tibet through India to find the roots of the Aryan race
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