हड्डियां बीनने वालों को है किस बात का डर?
उत्तर भारत के कई राज्यों में एक तबका जीविका चलाने के लिए हड्डियां चुनने का काम लंबे समय से करता आया है.
इन हड्डियों को कुछ फैक्ट्रियों में पहुंचाते थे जहां पर इन्हें पीसा जाता है. इसके बाद इन हड्डियों का चूरा कई रासायनों को बनाने के काम आता है.
उत्तर प्रदेश में लोग बीते कई सालों से शांति से अपना काम कर रहे थे, लेकिन जब से राज्य सरकार ने
उत्तर भारत के कई राज्यों में एक तबका जीविका चलाने के लिए हड्डियां चुनने का काम लंबे समय से करता आया है.
इन हड्डियों को कुछ फैक्ट्रियों में पहुंचाते थे जहां पर इन्हें पीसा जाता है. इसके बाद इन हड्डियों का चूरा कई रासायनों को बनाने के काम आता है.
उत्तर प्रदेश में लोग बीते कई सालों से शांति से अपना काम कर रहे थे, लेकिन जब से राज्य सरकार ने गो हत्या पर प्रतिबंध लगाया है तब से इन लोगों का काम प्रभावित हुआ है.
फ़ोटोग्राफर अंकित श्रीनिवास ने ऐसे ही कई लोगों से मुलाक़ात की.
बीते साल ये क़ानून पास होने के बाद से कई लोग गो हत्या के शक में हमलों के शिकार हुए हैं.
55 साल के ब्रजवासी लाल कहते हैं कि प्रतापगढ़ में उन्हें कभी-कभी धमकियों का सामना करना पड़ा है.
"जब भी लोग हमें हड्डियों को लेकर जाते हुए देखते हैं तो उन्हें लगता है कि हम कसाई के यहां काम करते हैं. हमें एक किलो हड्डियों के बदले सिर्फ 3 से 5 रुपए मिलते हैं. ये कोई सम्मानजनक काम नहीं है, लेकिन इससे मेरे घर का खर्च चलता है."
"अब हमारे काम पर बहुत असर पड़ा है. हमें बेहद सावधान रहना पड़ता है. इसीलिए हम आधी रात से काम शुरू करते हैं और सुबह 10 बजे तक अपना काम पूरा कर लेते हैं."
वो बताते हैं कि लोग अक्सर उनके काम को सही नज़र से नहीं देखते और उन्हें समाज का अंग नहीं मानते हैं.
ब्रजवाली लाल कहते हैं, "हम दलित हैं. ऐसे में हमें ज़्यादातर लोगों से सम्मान नहीं मिलता है. इसके बाद ये काम हमें असल मायनों में अछूत बना देता है. लोग हमें देखते ही अपना रास्ता बदल लेते हैं."
लेकिन बात बस इतनी सी नहीं है. ब्रजवासी बताते हैं कि सड़े हुए कंकालों की बदबू असहनीय होती है.
"लोग सोचते हैं कि हमें इसकी आदत है, लेकिन ऐसा नहीं है. बात बस इतनी है कि हमारे पास कोई और चारा नहीं है. आप सड़े हुए मांस की बदबू की कभी कल्पना भी नहीं कर सकते."
आज भी दलितों को अलग गिलास में दी जाती है चाय?
क्यों गुजरात छोड़ना चाहता है यह दलित छात्र ?
"हम अक्सर कुत्तों के भी शिकार होते हैं. वो हमेशा हमारा पीछा करते हैं. कई बार मुझे कुत्तों ने काटा भी है."
सुग्रीव कहते हैं कि उनके काम के लिए शारीरिक और मानसिक ताक़त चाहिए होती है.
"हम मरे जानवरों की लाशों के लिए 40-50 किलोमीटर का सफर तय करते हैं. जब लोगों के घरों में जानवर मर जाते हैं तब भी लोग हमें बुलाते हैं. ये कोई सम्मान का काम नहीं है. लोग अपने घरों में पानी तक नहीं पिलाते हैं."
"सोचकर देखिए, हम समाज में एक अहम काम करते हैं. हम खेतों और घरों से मरे हुए जानवरों को हटाकर पर्यावरण साफ़ रखते हैं."
"लेकिन कोई भी हमारा सम्मान नहीं करता है. मेरे पास ये काम करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है क्योंकि मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूं. और किसी को भी जब ये पता चलेगा कि हम हड्डी बीनने वाले हैं तो कोई भी हमें काम नहीं देगा.''
''मेरे पिता भी यही काम करते थे. मेरे बच्चे भी यही काम कर रहे हैं. लेकिन मैं चाहता हूं कि वो कुछ और काम करें. ये मुश्किल लगता है कि क्योंकि वे भी पढ़े-लिखे नहीं हैं और हड्डी बीन रहे हैं."
बैसाखू हड्डियों के ढेर को एक गढ्ढे में डालते हुए सहमत दिखते हैं.
ये बदबू असहनीय है और गर्मियों में झेलने लायक नहीं रहती है.
बैसाखू कहते हैं, "मुझे पता है कि आपको यहां खड़े होने में दिक़्क़त हो रही है, लेकिन हम यही काम कई दशकों से कर रहे हैं. काश, मुझे कोई दूसरी नौकरी मिल जाती, लेकिन हमें कौन नौकरी देगा?"
वो भी इस बात पर ज़ोर देते हैं कि लोगों को ये समझने की ज़रूरत है कि हमारा जानवरों को मारने से कोई संबंध नहीं है.
'दलित हूं, बिज़नेस क्लास में चलता हूं'
"हम जानवरों को नहीं मारते. हम बस उनके मर जाने पर हड्डियां उठाते हैं, लेकिन कुछ लोग ये नहीं देखते और हमें गाली देने लगते हैं."
"मैंने गायों को बेहद बुरी हालत और घाव से कराहते हुए देखा है. मुझे लगता है कि काश लोग हमें परेशान करने की जगह गायों का ख़्याल रख सकें."
"हम जो काम करते हैं वह बहुत ही कठिन काम है. हम कई घंटों तक काम करते हैं. अपनी साइकिलों और कंधों पर भारी हड्डियां ढोते हैं. कभी-कभी हमें चोटें भी लग जाती हैं, लेकिन हमारे पास इलाज कराने के लिए पैसा भी नहीं होता है."
वो बताते हैं कि इस काम में नियमित आय भी नहीं है.
"कभी-कभी हमें कुछ भी नहीं मिलता. किसी दिन हमें 50 किलोग्राम हड्डियां मिल सकती हैं और किसी दिन हमें पांच किलोग्राम ही. ऐसे में इस काम में आय को लेकर किसी तरह गारंटी नहीं है."
बैसाखू कहते हैं, "मेरे ऊपर एक परिवार पालने की ज़िम्मेदारी है और जब मुझे कुछ नहीं मिलता तो मैं परेशान हो जाता हूं. मुझे लोगों से उधार मांगना पड़ता है जिसके बाद क़र्ज़ बढ़ता जाता है. ये एक ख़राब चक्र है."
वो कहते हैं कि हिंसा होने के ख़तरे ने उनके काम को और ज़्यादा मुश्किल बना दिया है.
"कुछ महीने पहले, मैं सुबह हड्डियां बीनकर वापस आ रहा था. मेरी साइकिल पर एक बड़ा कंकाल था. इसे देखकर कुछ लोगों ने मुझसे पूछा कि मैंने गाय की हत्या की है क्या?
मैंने उन्हें बताया कि वे ग़लत सोच रहे हैं, लेकिन वे फिर भी गालियां देते रहे. मुझे लगता है कि उन्हें इसमें आनंद मिलता है, क्योंकि ये समझना मुश्किल नहीं है कि हम जानवरों को नहीं मारते हैं."
"इस घटना के बाद मैं बेहद डर गया था."
छोटू कहते हैं, "मैं पहले ये काम करता था, लेकिन अब मैं एक घर में काम करता हूं. कभी-कभी ज़्यादा पैसे कमाने के लिए मैं ये काम कर लेता हूं."
"लेकिन मैं ये काम पूरी तरह बंद कर देना चाहता हूं. ऐसा काम करने का क्या फ़ायदा है जिसे लोग समझते न हों. हम दरअसल पर्यावरण को साफ़ रखते हैं, लेकिन बदले में हमें गालियां और धमकियां मिलती हैं."
वह सवाल करते हैं, "क्या थोड़ा सा सम्मान चाहना इतना मुश्किल है?"
'हम दलित हैं इसलिए हमारी चाय नहीं पिएंगे आप'
गुजरातः घोड़ी पर चढ़ने के 'जुर्म' में दलित की हत्या
'इस मासूम का होली मनाना उन्हें नागवार गुज़रा’