क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

बुनकरों की बुनाई से किसने दूर की कमाई- ग्राउंड रिपोर्ट

हमारे लिए तो क्या मंदी और क्या तेज़ी? दो साड़ी बुने तो डेढ़ सौ रुपए की कमाई एक दिन में होती है. हां, पिछले कुछ महीनों से साड़ी बुनने का ऑर्डर कम मिल रहा है तो काम भी कम हो रहा है. ख़र्चा चलाने के लिए साड़ी बनाने के अलावा मज़दूरी भी करनी पड़ रही है." ये कहना है, मऊ ज़िले की एक बुनकर बस्ती कासिमपुर में रहने वाले नौशाद का जो अपने घर पर ही पावरलूम चलाते हैं.

By BBC News हिन्दी
Google Oneindia News

"हमारे लिए तो क्या मंदी और क्या तेज़ी? दो साड़ी बुने तो डेढ़ सौ रुपए की कमाई एक दिन में होती है. हां, पिछले कुछ महीनों से साड़ी बुनने का ऑर्डर कम मिल रहा है तो काम भी कम हो रहा है. ख़र्चा चलाने के लिए साड़ी बनाने के अलावा मज़दूरी भी करनी पड़ रही है."

Weavers away from earning, know ground report

ये कहना है, मऊ ज़िले की एक बुनकर बस्ती कासिमपुर में रहने वाले नौशाद का जो अपने घर पर ही पावरलूम चलाते हैं. घर में दो पॉवरलूम हैं और पूरा परिवार यानी उनकी मां, पत्नी और दो बहनें साड़ी बनाने का काम करती हैं.

एक पावरलूम कुछ दिनों से ख़राब पड़ा है. जब ठीक था तो सभी लोग मिलकर दिन भर में दो या तीन साड़ियां बना लेते थे यानी सभी लोग मिलकर क़रीब 300 रुपए का काम कर लेते थे.

कासिमपुर में ज़्यादातर लोगों के घरों में पावरलूम हैं और लोगों के पास एकमात्र यही रोज़गार. ये लोग ऑर्डर पर साड़ियां बनाते हैं और एक साड़ी का मेहनताना इन्हें क़रीब 100 रुपए मिलता है. साड़ी बनाने में इस्तेमाल होने वाला धागा और नायलॉन ऑर्डर देने वाली पार्टी उपलब्ध कराती है.

देश भर में छाई आर्थिक सुस्ती का असर इस उद्योग पर और इससे जुड़े लोगों पर भी पड़ रहा है. मोहल्ले के दूसरे लोग बातचीत के दौरान कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में यहां से सैकड़ों लोग रोज़गार की तलाश में दूसरे देशों में या फिर भारत के ही विभिन्न हिस्सों में चले गए.

कासिमपुर के ही रहमान अंसारी कहते हैं, "12-14 घंटे की जी-तोड़ मेहनत के बाद यदि पेट भरने तक के लाले पड़ें तो भला कौन इस धंधे में रुका रहेगा. लेकिन बहुत से लोगों की मजबूरी है कि वो बाहर नहीं जा सकते, तो यहीं पड़े हैं."

उत्तर प्रदेश का मऊ ज़िला हथकरघा उद्योग का प्रमुख केंद्र है, जहां मुख्य रूप से बनारसी साड़ियां बुनी जाती हैं. इसके अलावा वाराणसी और आज़मगढ़ के मुबारकपुर में भी बनारसी साड़ियों की बुनाई और उनके विपणन का काम होता है.

राज्य के दूसरे इलाक़े जैसे गोरखपुर, टांडा, मेरठ और कुछ अन्य शहरों में भी हथकरघा उद्योग है और इन सभी जगहों पर स्थिति लगभग एक जैसी है.

यह हाल न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश का बल्कि पूरे देश का है. देश भर में हथकरघों और इसमें काम करने वाले लोगों की संख्या लगातार घटती जा रही है. हालांकि सरकार ने इस सेक्टर में तेज़ी लाने और मांग बढ़ाने की तमाम कोशिशें की हैं लेकिन स्थिति लगातार बिगड़ती ही जा रही है.

कपास किसान भी प्रभावित

भारत का कपड़ा उद्योग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से देश भर में क़रीब दस करोड़ लोगों को रोज़गार देता है जो कृषि क्षेत्र के बाद रोज़गार देने के मामले में सबसे बड़ा क्षेत्र है.

पिछले महीने 20 अगस्त को नॉर्दर्न इंडियन टेक्सटाइल मिल्स एसोसिएशन यानी निटमा ने अख़बारों में एक विज्ञापन छपवाया था जिसमें टेक्सटाइल इंडस्ट्री की बदहाल स्थिति का ज़िक्र किया गया था.

विज्ञापन का शीर्षक था- 'भारत का स्पिनिंग उद्योग बड़े संकट से गुज़र रहा है, जिसकी वजह से काफ़ी संख्या में लोग बेरोज़गार हो रहे हैं.'

विज्ञापन में ये भी लिखा था कि ऐसा ही संकट साल 2010-11 के समय आया था और उस समय भी निर्यात में भारी गिरावट आई थी. निटमा ने इस उद्योग की गिरती हालत से बचाने के लिए कुछ उपाय भी सुझाए थे.

निटमा के सीनियर वाइस प्रेजिडेंट मुकेश त्यागी बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, "क़रीब एक तिहाई स्पिनिंग मिलें बंद होने की कगार पर हैं. 80 हज़ार करोड़ रुपए के कपास की फ़सल का कोई ख़रीदार नहीं है. हमारी मांग है कि सरकार कच्चे माल की क़ीमतों में कमी लाए और निर्यात पर लगने वाले कर में कटौती करे. सरकार डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के ज़रिए किसानों को उसकी फसल का भुगतान करे और बांग्लादेश, श्रीलंका और इंडोनेशिया से आने वाले कच्चे माल के आयात पर रोक लगाए."

मुकेश त्यागी का कहना था कि निटमा इस मामले में लगातार सरकार के संपर्क में है लेकिन अब तक सरकार की ओर से कोई आश्वासन या संकेत नहीं मिला है. अख़बारों में विज्ञापन देने के पीछे भी यही कारण था कि लोगों का और ख़ासकर सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट हो.

साल दर साल ख़राब होते हालात

सूरत, तमिलनाडु, बिहार, पंजाब, उत्तर पूर्व और देश के दूसरे हिस्सों से भी लगातार इस क्षेत्र में मंदी और बेरोज़गार होने वाले लोगों की ख़बरें आ रही हैं.

हालांकि सरकारी स्तर पर इस बात की पुष्टि नहीं की जा रही है क्योंकि इस क्षेत्र का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में आता है और उससे जुड़े आँकड़े सरकार के पास भी अपर्याप्त ही होते हैं.

लेकिन कपड़ा मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों पर नज़र दौड़ाएं तो इस क्षेत्र में बेरोज़गारी, मंदी और पलायन की स्थिति पिछले कई सालों से बदस्तूर जारी है.

हथकरघा उद्योग देश में रोज़गार मुहैया कराने के मामले में कृषि क्षेत्र के बाद दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है लेकिन इसमें रोज़गार की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है.

मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक़, साल 1995 में जहां देश भर में 65 लाख लोग इस पेशे से जुड़े थे, वहीं साल 2010 में ये संख्या सिर्फ़ 43 लाख रह गई.

तब से इसमें लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है. आँकड़ों के मुताबिक़, इनमें से 77 फ़ीसद महिलाएं हैं. मंत्रालय ने साल 2010 में इस तरह की तीसरी जनगणना की थी जिसके रिकॉर्ड उसके पास हैं.

यूं तो इसके पीछे बुनकरों की ख़राब स्थिति, दशकों पुरानी दरों से चली आ रही मज़दूरी, कच्चे माल की कमी जैसे तमाम कारण बताए जा रहे हैं लेकिन तात्कालिक रूप से कमी के कारण कुछ और भी हैं.

उत्तर प्रदेश बुनकर फ़ोरम के अध्यक्ष अरशद जमाल कहते हैं कि इस क्षेत्र में मंदी की स्थिति पिछले तीन साल में बढ़ी है.

अरशद जमाल के मुताबिक़, "इस क्षेत्र में नोटबंदी के बाद से ही मंदी का जो दौर आया, वो अब तक नहीं कम हो सका. नोटबंदी ने हथकरघा उद्योग की कमर तोड़कर रख दी थी, जिससे यह क्षेत्र अब तक नहीं उबर पाया है. रही सही क़सर जीएसटी ने पूरी कर दी."

वहीं आर्थिक पत्रकार वीरेंद्र भट्ट इसके लिए सरकारी नीतियों को भी ज़िम्मेदार बताते हैं. वीरेंद्र भट्ट कहते हैं, "एक समय में सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में 21 कताई मिलें थीं जिनसे बुनकरों को धागा मुहैया कराया जाता था. आज सारी मिलें बंद हैं. मजबूरन, बुनकरों को महंगे दामों पर धागा और नायलॉन लेना पड़ता है. कुछ साल पहले इलाहाबाद स्थित एक कताई मिल को फिर से शुरू करने की कोशिश हुई थी लेकिन वो भी असफल रही. इस क्षेत्र में जो भी सरकारी नीतियां बनती हैं वो ज़्यादातर बुनकरों की बजाय व्यापारियों के फ़ायदे की होती हैं."

सरकारी योजनाओं की स्थिति

बुनकरों के कल्याण के लिए सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं. मसलन, स्वास्थ्य बीमा योजना, पॉवरलूम सब्सिडी योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, हथकरघा संवर्धन सहायता योजना. लेकिन सच्चाई ये है कि बुनकरों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है.

बुनकर नौशाद बताते हैं कि उन्हें बिजली के लिए इंतज़ार करना पड़ता है, "यदि रात में भी आई तो भी जगकर काम करना है. ऐसा न करने पर दिन में उस काम की भरपाई नहीं हो सकेगी. विपरीत परिस्थितियों और कम मज़दूरी में काम करने के चलते ज़्यादातर बुनकर तमाम तरह की बीमारियों से भी ग्रस्त हो जाते हैं."

यूपी बुनकर फ़ोरम के अध्यक्ष अरशद जमाल बताते हैं कि बुनकरों के बच्चों को न तो शिक्षा और न ही स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं मिल पाती हैं.

वो कहते हैं, "मऊ ज़िले में जहां मेरा घर है, उस मोहल्ले की आबादी क़रीब पचास हज़ार है. लेकिन वहां एक भी सरकारी प्राइमरी स्कूल नहीं है और न ही कोई अस्पताल. छह-सात हज़ार रुपए में पेट पालने वाले बुनकरों को अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजना और प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराना बेहद मुश्किल होता है."

जानकारों का कहना है कि सरकार हथकरघा उद्योग के विकास और प्रोत्साहन के तमाम दावे भले ही करती हो लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं. इसके पीछे वजह ये है कि पिछले कुछ सालों में बजट में इस क्षेत्र के लिए आवंटित धनराशि में निरंतर कमी आ रही है.

वित्तीय वर्ष 2016-17 के केंद्रीय बजट में इस क्षेत्र के लिए जहां 710 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे. वहीं 2017-18 में यह 604 करोड़ रुपए, 2018-19 में 386 करोड़ रुपए और 2019-20 में 456 करोड़ रुपए रह गया.

अरशद जमाल बुनकरों की समस्याओं को अक्सर विभिन्न मंचों पर उठाते रहे हैं. उनका कहना है, "सरकार सीधे बुनकरों की कुछ मदद कर दे तो स्थिति बेहतर हो सकती है. हमें ये पता ही नहीं है कि दुनिया को क्या चाहिए. तो क्रेता-विक्रेता सम्मेलन स्थानीय स्तर पर होने चाहिए ताकि पता चल सके कि लोगों की डिमांड क्या है. दूसरा ये कि तकनीक में सुधार के लिए सरकार मदद करे."

मुबारकपुर में बनारसी साड़ियों के स्थानीय व्यवसायी फ़िरोज़ अहमद कहते हैं कि वहां की बनी साड़ियों को बेचने की कोई व्यवस्था नहीं है. मुबारकपुर में एक विपणन केंद्र बना ज़रूर है लेकिन अभी शुरू नहीं हुआ है.

मऊ ज़िले में 50 के दशक में राज्य सरकार ने बुनकरों के रहने और अपना लूम बनाने के लिए एक कॉलोनी बनाई थी जिसे आजकल बुनकर कॉलोनी के ही नाम से जाना जाता है. अरशद जमाल बताते हैं कि उसके बाद इस तरह की किसी योजना को लाने की कोशिश नहीं की गई.

स्थानीय पत्रकार वीरेंद्र चौहान कहते हैं, "सरकारी योजनाओं की कोई कमी नहीं है लेकिन समस्या यही है कि उसका लाभ सीधे बुनकरों को कम ही मिल पाया है. इन्हें या तो इन सबकी जानकारी ही ठीक से नहीं मिल पाती है और मिलती भी है तो सरकारी जटिलता और अधिकारियों की कार्यशैली उनके मनोबल को ही तोड़ देती है."

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Weavers away from earning, know ground report
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X